यादों के झरोखों से..
यादों के झरोखों से..
2007 या 8 की बात है। स्कूल में परीक्षा होनी थी, इसलिए उस पूरे हफ्ते हमें अपने-अपने 'हाउस' में बैठने को कहा गया था- ब्लू, रेड, ग्रीन, यलो ताकि आपस में प्रतियोगिता के साथ-साथ रिविज़न हो सके। ज्योत्सना मिस अपने नाम के अनुरूप हमारे हिन्दी भाषा के ज्ञान को रौशन करने की प्रबल इच्छा और असीम प्यार से सिंचित करने की कोशिश किया करती। पर हम ठहरे काॅंवेंट की अंग्रेज़ी चिड़िया, कोई मौका नहीं छोड़ती हिंदी को नज़रंदाज़ करने का। और वहीं मिस हिन्दी की ज्ञाता व प्रशंसक थी। वे जितना ही अच्छा पढ़ाती थी, उतना ही अच्छा 'टेस्ट' भी लेती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि उनकी उम्मीदें हमसे बहुत अधिक थी। मुझे बाकी लड़कियों का तो पता नहीं, पर मुझे इस डर से तैयारी करनी पड़ती थी कि कहीं दूसरे बिल्डिंग में शिकायत मेरी मां तक ना चली जाए।
एक दिन, मिस मेरी बारी आने पर एक कविता के कवि का नाम तथा एक अन्य प्रश्न भी मुझसे पूछा। नाम के तीन शब्दों में से पहला और आखिरी तो याद रह गया, परंतु दूसरा मैं सचमुच भूल गई थी या उनका डर था, पता नहीं। मैंने डरते-डरते "सूर्यकांत... निराला..." जैसे ही मेरी धीमी आवाज़ उनके कानों तक गई, वो फ़ौरन झुक गई, मैं सहम गई, और पूरा क्लास चौंक गया। शायद उन्हें लगा कि मैंने कवि का पूरा नाम सही से न बोलकर उनकी बेइज्जती की है। उन्होंने बोला- "लाओ तो रे लाठी..."। मुझे तुरंत ही 'त्रिपाठी' याद आ गया। और वो उठकर आगे आई और मुझे हंसकर पुचकारते हुए बोली- " ये हुई न बात।" और फिर पूरा क्लास ठहाकों से गूंजने लगे।
इस किस्से के बाद किसी भी कवि या कवियित्री को पढ़ने से पहले उनका पूरा सही नाम जानना मैंने अपनी आदत बना ली। और एक बात जो मैंने सीखी कि बच्चे को सिखाने का अंदाज अलग हो, तो वह सीख बिन कहे भी उसके साथ जिंदगी भर रहेगी।