स्वयं में निहित संभावनायें ..
स्वयं में निहित संभावनायें ..
देवरानी का हुआ, हृदय परिवर्तन परिवार की हित की दृष्टि के साथ ही सरोज के लिए भी अत्यंत हितकारी हुआ।
सरोज के जुड़वाँ बच्चे होने के कोई महीने भर बाद एक सुबह कुएँ पर देवरानी ने आदर भाव से सरोज से कहा- जिठानी घर उतना ही बड़ा है। सब के खाने, कपड़ों और झाड़ू बुहारी का काम मैं करती ही रही हूँ। आप दो और सदस्य के लिए भी करना, मेरे लिए कोई बड़ा भार नहीं। आप मेरी मानें तो आपसे, मैं एक बात कहना चाहती हूँ।
सरोज ने पास लेटे बच्चों को थपकी देते हुए सशंकित स्वर में पूछा - बताओ क्या चाहती हो?
तब देवरानी ने कहा- मैं, पहले जैसे ही सब काम कर लूँगी। आप बस इतना कीजिए कि अपने बच्चों के साथ, मेरे बच्चों की देखभाल और उनका भी मार्गदर्शन किया करें।
सरोज को यह सुन सुखद आश्चर्य हुआ कि शब्दों के तीरों से उसके मन को आहत करने वाली, देवरानी इतने शिष्टाचार से कहना भी जानती है।
सरोज सोचने लगी कि जो देवरानी, अपने बच्चों से सरोज के प्यार को लेकर कभी सशंकित थी कि सरोज, की भावना उनमें से किसी के, गोद लेने की तो नहीं, वही आज, अपने बच्चों का जिम्मा, उसे किस विचार से देना चाहती है।
इस जिज्ञासा में उसने देवरानी से पूछा- ऐसा करने से तुम्हें किया हासिल होगा? छोटे छोटे बच्चों की देखभाल, इतना बड़ा भी काम नहीं कि बाकी सारे काम का भार तुम खुद पर लेकर रखो।
इस पर देवरानी ने बोला - जिठानी, आपका स्वभाव बहुत अच्छा है, अगर मेरे बच्चों का लालन-पालन आपके आँचल की छाया में होता है तो शायद, वे भी बड़े होकर ऐसे गुणशाली होंगे।
सरोज जो पहले देवरानी के व्यवहार से दुःखी हो जाया करती थी आज, उसी देवरानी से अपनी, ऐसी सुंदर भावपूर्ण प्रशंसा से अभिभूत हो गई। स्नेह से देवरानी के सिर पर हाथ रखते हुए उसने कहा - तुम एक बार सोच लो, तुम पर काम का भार बहुत तो नहीं हो जाएगा?
देवरानी ने तब कहा- मुझे, बच्चों के उचित लालन पालन करने का भार, ज्यादा तथा महत्वपूर्ण लगता है।
सरोज को बहुत ख़ुशी हुई कि देवरानी उस पर, इतना अधिक विश्वास कर रही है।
सरोज ने ख़ुशी से मुस्कुराते हुए कहा- तब मुझे मंज़ूर है। लेकिन मेरी एक शर्त है।
अब देवरानी सशंकित हुई, उसने तत्परता से पूछा- जिठानी, कैसी शर्त?
सरोज ने खिलखिला कर हँसते हुए कहा- यह कि अब तुम और बच्चे नहीं पैदा करके, मेरे पर भार न बढ़ाओगी।
देवरानी का भय दूर हुआ उसने भी मज़ाक में ही जवाब दिया- मंजूर, मगर आप इसकी हिदायत, अपने देवर को भी दीजियेगा।
फिर उनके सयुंक्त परिवार में, ऐसे कार्य विभाजन से काम होने लगा। कुछ दिन बाद एक दोपहर, जब पाँचों बच्चे खा पीकर, सरोज के पास लेटे, सो रहे थे तब सरोज पिछले वर्ष की घटनाओं की, यूँ याद एवं उन पर विचार कर रही थी-
जीवन में कुछ सुविधाओं के मोह से बँधकर कोई मनुष्य एक ढर्रे पर चलते, उसी को जीता चला जाता है। अगर किया भी तो ज्यादा से ज्यादा, इतना ही विचार करता है कि कैसे, आय और बढ़ा ले ताकि अपने लिए, और सुविधायें, और ख़ुशियाँ खरीद सके।
कोरोना खतरे से खड़ी चुनौतियों ने, किसी और के विचारों में कोई परिवर्तन लाया या नहीं, मगर सरोज के अपने विचारों में निश्चित ही, क्रांतिकारी परिवर्तन लाया था।
मुंबई के लॉक डाउन फिर, अपनी ही धारावी बस्ती में, फैलते संक्रमण से, कमजोर तबके के लोगों की की चिंताओं को उसने निकट से देखा था। शासन और स्थानीय लोगों को, अपने से अवांछनीय, जैसा बर्ताव करते देखा था।
फिर लाचारी में जगन के साथ खुद का उस महानगर, उस जीवन से पलायन देखा था, जिसमें सामान्य परिस्थिति में, वे शायद पूरा जीवन व्यतीत कर देते।
गाँव की ओर के 1200 किमी के लंबे मार्च में अपने तथा, गैर लोगों की, नारी के प्रति मानसिक ग्रंथि देखी थी। कुछ ऐसी ही ग्रंथियाँ उसने अशिक्षित तथा कमजोर परिस्थिति के लोगों के लिए, पढ़े लिखे एवं संपन्न लोगों में अवलोकित की थी।
बहुत से परोपकारी दिखने वालों का कटु सच भी जान लिया था।
याचक हाथ फैलाये लोगों को, दूसरे ऐसे ही याचक लोगों से, संवेदनहीनता को भी अनुभव किया था। सब अपने लिए ज्यादा बटोर लेने को लालायित दिखते थे।
उसके बाद बिन बुलाये मेहमान जैसे, अपने ही घर में, देवरानी के बुरे व्यवहार का सामना भी किया था।
दिखावा भले ही कुछ और किया जाये मगर पड़ी, सबको अपनी ही थी।
उसने महसूस किया था कि प्रायः सभी ही के प्रयास, अपने लिए थोड़े थोड़े और सुखों के प्रबंध के थे। इन प्रयासों में अनैतिक रूप से, वर्जनाओं की उपेक्षा की जाती भी होती थी।
ऐसा सब छुपे तौर पर इस सावधानी के साथ करने की कोशिश में होते कि खुद की छवि ठीक दिखे।
ऐसे सब कटु सच से साक्षात्कार ने उसके मन को अवसाद से भर दिया था। खुद के मन में क्या है इसे कोई और नहीं समझ सकेगा, ऐसा भ्रम सभी को रहता है। जबकि किसी के मन में बैठी कलुषित प्रवृत्तियों और उनके बुरे मंतव्य को, अन्य कोई, बिना बहुत दिमाग लगाए समझ सकता है। यह जुदी बात है कि समझ लीं गईं बातें, अक्सर लोग प्रकट नहीं करते हैं।
इन सब में सरोज समझ सकी थी कि लगभग सभी उद्देश्य विहीन जीवन जी रहे हैं तथा औरों के साथ थोड़े छल कर लेने को, बड़ी बुध्दिमानी या उच्च शिक्षित मानने की भूल कर रहे हैं।
वह ही निष्कर्ष निकाल सकने में सफल हुई कि आधुनिक तरह से शिक्षित होने या ना होने का, मनुष्य जीवन की गूढ़ताओं को समझ पाने से कोई संबंध नहीं है।
उसे स्वयं पर आश्चर्य हुआ कि 25 की छोटी आयु में ही और सिर्फ कक्षा 10 तक पढ़ी होने पर भी, वह जीवन के गूढ़ रहस्य कितनी सरलता से समझ पा रही है।
यह सब कोरोना प्रभाव था। जिसने समझने वालों के लिए, यथार्थ देख लेना आसान किया था। उसके मन में विचार आया कि शायद स्वतंत्रता के संग्राम में इतने हल्के लोग न रहे होंगे। अन्यथा अँग्रेज ऐसी मनःस्थिति के लोगों को थोड़े थोड़े प्रलोभनों से, एकजुट होने से रोक लेते और अब भी शासन कर रहे होते।
फिर उसके मन में संशय उत्पन्न हुआ कि कदाचित आधुनिक जीवन शैली अपनाने की होड़ एवं उसके लिए बहाई जा रही विकास की गंगा ने, परिवेश ऐसा बना दिया है, जिसमें मनुष्य, मानवता से विमुख हो रहा है।
चूंकि देवरानी ने उस पर कार्य बोझ कम रखा था।
ऐसे में सरोज को लगा कि एक साथ दो बच्चों का होना, जगन को यहाँ ज्यादा काम एवं आमदनी मिलना, जगन और सरोज का, परिवार और गाँव में आदर मिलना, सब सरोज के लिए भगवान का विशेष संकेत है कि वह समाज परिवर्तन के लिए कार्य करे।
ऐसा समझ उसने तय किया कि अपने परिवार के बच्चों के लालन पालन के साथ साथ ही, गाँव के बच्चों तथा यहाँ की गृहिणियों में चेतना लाने के लिए, वह कार्य करेगी।
वह चाहेगी कि वे गृहिणियां, अपने बच्चों में ऐसे संस्कार सुनिश्चित करें कि बड़े होकर वे लड़कियों तथा स्त्रियों से मर्यादित व्यवहार करें। तथा छल-कपट, लोभ एवं अति स्वार्थी प्रवृत्ति से मुक्त रहकर, अपने अपने जीवन में, न्यायप्रियता से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करें ..