स्वच्छंदता
स्वच्छंदता
वो आज 10 दिन बाद हॉस्पिटल से आया था। उसकी मेड और सोसाइटी सेक्रेटरी ने उसे हॉस्पिटल में भर्ती किया था। क्रोनिक फूड पोइजेनिंग हुई थी उसको। उसे तो चार दिन बाद होश आया था। ये दस दिन वो एक पेशेंट था। ये ही बुलाया जाता था उसे अस्पताल में। कोई नही था जो उसका नाम जानता हो। बस आज उसको डिस्चार्ज करते समय उसने अपना नाम सुना था। वो भी तब, जब उसके हेल्थ इंसयूरेन्स कार्ड से उसके इलाज के खर्चे की औपचारिकता की जा रही थी।
वो अकेला ही रहता था। पहले पिता और बाद में माँ उसकी उसकी शादी की अधूरी इच्छा लिए इहलोक चले गए। उसे शादी जैसी परंपरा पर विश्वास ही नही था। उसे अपना स्वछंद जीवन ही पसंद था। जहां कोई बंधन नही था। बस एक खुमारी थी, मस्ती थी, इर्द गिर्द लोगो की भीड़ थी। और वो भीड़ भी इस खुमारी में ही खोयी थी।
उसने अपना फोन चेक किया। उसमे संदेश भरे पड़े थे। उसके ऑफिस के थे जिनमें पेंडिंग पड़े कार्यो के बारे में उससे पूछा जा रहा था। और अब तो उन संदेशों की भाषा काफी सख्त हो गयी थी। कुछ मिसकॉल थे। लेकिन एक भी संदेश में किसी ने नहीं पूछा था “तुम कैसे हो?”
उसने अब अपना सोसल मीडिया स्टेटस देखना शुरू किया। बहुत सारे मित्र थे यहाँ उसके। इस आभासी संसार में ही तो उसके मित्र बचे थे। लेकिन उसकी तस्वीरों पर हज़ारो लाइक देने वालों में से कोई नही था जिसने ये जानने की कोशिश की हो कि वो दस दिन से कहाँ है? किसी ने नहीं पूछा था “तुम कैसे हो ?”
ये सोसल मीडिया या आभासी संसार होता ही ऐसा है। यहाँ आपके हज़ारो मित्र और फॉलोवर होते हैं लेकिन जब तक आप हो बस तब तक ही। लाखो हज़ारो मित्रो की भीड़ में किसी को ये ख्याल ही नही होता कि कब कौन कहाँ खो गया ?
पार्टियों में मस्त रहकर जिंदगी गुजारी थी उसने। जीवन का ये ही मतलब था उसके लिए, “स्वछंदता”। उसने अपनी माँ की नही सुनी, शादी नही की क्योंकि वो बंधन में नही जीना चाहता था| माँ की मौत के बाद भी उसे एक बंधन से मुक्ति ही महसूस हुई थी। माँ फोन पर पूछती रहती थी क्या कर रहा है?, खाना खाया या नही?, और एक निश्चित प्रश्न "शादी कब करेगा ?"
माँ की मौत के बाद कोई नही था उसके स्वछंद जीवन में हस्तक्षेप करने वाला। वो अहाद्वालित हो उठता था सोसल मीडिया पर अपनी तस्वीरों पर हज़ारो लाइक देखकर। लड़कियों को अपने पीछे दीवाना देखकर। क्योंकि वो एक अच्छी पोस्ट पर था और बहुत से लोगो को उससे लाभ प्राप्त हो सकता था| जिस कारण उससे बहुत लोगो को आशा रहती थी किसी प्रकार के लाभ प्राप्त करने की।
जीवन के 40 वसंत पर कर चुका था वो। लेकिन इन दस दिन में जब वो मौत से जूझ रहा था कोई नही था जिसे उसकी फिक्र हो। इन दस दिन में वो अपना नाम भूल चुका था, क्योंकि कोई नही था उसके पास जो उसे उसके नाम से बुलाये। वो बस एक पेसेंट था। ये ही उसे अपनी पहचान लगने लगी थी। उसने देखा, उसकी आँखों में आंसू थे।
उसे आज पहली बार अपनी माँ के उन सवालों की कमी खाल रही थी। वो अकेला महसूस कर रहा था। आज उसे खुद पर दया आ रही थी। वो शिद्दत से चाह रहा था कि फोन की घंटी बजे और माँ उससे पूछे "फोन क्यों नही किया? मैं करलू तो करलूं तुझे तो याद आती नही" फिर माँ का प्यार से पूछना "ठीक तो है? खाना ढंग से खाता है" वो स्वप्न लोक से धम्म से धरती पर गिरा। उसे याद आयी माँ की बात "शादी करले बेटा, जीवन में जब सब अपने में खो जातें हैं, बच्चे भी बड़े होकर अपने ठिकाने लग जातें हैं, तो तब पति-पत्नी ही रह जाते हैं एक दूसरे का सहारा देने के लिए। जबसे तेरे पिता गए अकेली पड़ी हूँ, लेकिन उन्होंने ही साथ दिया आज तक। समझ जा शादी करले।"
उसकी माँ अकेली थी| लेकिन उसने कभी ये सोचा ही नहीं। लेकिन उसकी माँ थी इसलिए वो कभी अकेला नहीं था। आज कोई भी नही था शायद जिसे याद भी हो कि वो कौन है ? कहाँ है ?
या जो उससे पूछे “तुम कैसे हो ?”
अब वो फुट फुट कर रो रहा था। आज वो अकेला था अपनी स्वछंदता के स्मारक पर।