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कुमार संदीप

Abstract

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कुमार संदीप

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स्वाभिमान

स्वाभिमान

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शहर में चहुंओर शोरगुल का महौल था। चौराहे पर जाम लगा हुआ था। सभी के चेहरे पर एक अजीब बेचैनी दिखाई दे रही थी। शायद उन सबों की बेचैनी की वजह वक्त की पाबंदी थी या यूं कहें जल्द-से-जल्द जाम से बाहर निकलने की।

गरीबी की मार झेल रहा भोनू भी जाम में फँसा था।

साइकल से था भोनू। हर रोज़ वह साइकल से काम पर जाता था। बेशक गरीब था पर दिल का बहुत अमीर और स्वाभिमानी था भोनू। जाम के दौरान जैसे-जैसे गाड़ियाँ आगे बढ़ीं उसने भी साइकल आगे बढ़ाया। उसकी साइकल एक महँगी गाड़ी से जरा सा टकरा गई। गाड़ी के मालिक ने गाड़ी का शीशा खोलकर मुख बाहर करते हुए क्रोधित होकर अमीरी का प्रदर्शन दिखाते हुए कहने लगा" अरे ! दिखाई नहीं देता तुम्हें बहुत जल्दी है आगे निकलने की।

कौन-सा तुम्हें बड़े से ऑफिस में काम पर समय से पहुंचना है। मेरी गाड़ी इतनी महँगी है कहीं खरौंच आ जाता तो। संभलकर चल अन्यथा मुझे औकात दिखानी आती है तुम जैसे लोगों को। " भोनू कुछ देर के लिए चुप रहा फिर उसने कहा "साहब ! उतनी जल्दी तो नहीं है आपकी तरह मुझे आगे निकलने की। पर हाँ आज यदि मैं जाम के कारण काम पर लेट से पहुंचा तो शाम को मेरे घर चूल्हा नहीं जलेगा और बच्चे भूखे सो जाएंगे।

और हाँ, गाड़ी में आप इतनी लंबी बात कर रहे हैं न जरा गाड़ी से बाहर आकर बाहर का मंजर देखिये एक बार।

कई गरीब बेसहारे बेचारे तकलीफ में है। जरूरी नहीं कि सभी आपकी तरह धनवान ही हो। गलती से मुझसे गलती हो गई कि आपकी गाड़ी से मेरी साइकल टच कर गई। क्षमा कर दीजिए!पर आगे से किसी गरीब को उसकी औकात दिखाने की बात मत कीजीएगा। गाड़ी मालिक को अब बहुत अफसोस होने लगा। अहंकार और अमीरी की वजह से उसकी आँखें बंद थी जो अब खुल चुकी थी। उसने हाथ जोड़कर भोनू से माफी माँगा। और आगे से ऐसी गलती न करने का वचन लिया। अब जाम भी क्लियर हो चूका था। सभी अपने-अपने गंतव्य तक पहुंचने लगे।


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