अपनों के बिना
अपनों के बिना


अपने छोटे भाई को माँ के साथ सही से बात नहीं करते और छोटी-सी बात पर परिवार से दूर जाने का प्रस्ताव माँ के सामने रखते देखकर एक दिन संजीव भाई से कहता है, "भाई! तुमने दसवीं कक्षा में हिंदी के चैप्टर में एक कहानी 'बहादुर' तो पढ़ा ही होगा। जब हमारे अपने हमारे साथ नहीं होते हैं, अपनों से रुठकर हम बाहर चले जाते हैं, तो किस तरह हमें जमाने वालों से दुत्कार सहन करना पड़ता है। लोगों के ताने सुनने पड़ते हैं। बहादुर के कैरेक्टर को तुमने पुस्तक में बखूबी पढ़ा ही होगा। किस प्रकार बहादुर मालिक के यहाँ मालिक के घर का हर काम करता था फिर भी मालिक के परिवारवाले उसे तीखी बातें सुनाते थे। और एक दिन बहादुर मालिक का घर छोड़कर कहीं दूर चला जाता है। मेरे भाई हमें बहादुर जैसे पात्र से अपनी ज़िंदगी में सीख लेने की ज़रूरत है। अपनों के साथ,सहयोग, प्रेम के बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं होता है। हमें अपनों की कही बातों को सही रूप में लेना चाहिए।" भाई की बात और बहादुर के कैरेक्टर की याद ने पल भर में मृत्युंजय को पूर्णतः बदलकर रख दिया। मृत्युंजय कहता है, "बड़े भाई जी, आप सही कहते हैं। मैं ही ग़लत था कि अपने परिवारवालों को ग़लत समझकर घर से दूर जाने की बात मन में सोच रहा था।" इतना कहते ही मृत्युंजय की आँखों से अनायास ही आँसू बहने लगे।