सूरदास
सूरदास
भाग १
बेगुनाह, नीम की छांव में बैठा अपने जीवन को याद करता सूरदास, शादीपुर में आने वाले सभी लोगों के लिए एक ईमारत के समान अटल था। पर भव्य नहीं। शहर से आती हुई सड़क का आखरी पड़ाव था - पंजूपुर और शादीपुर को विभाजित करती पुलिया। सूरदास की ही तरह, यह पुलिया एक अरसा गुज़ार चुकी थी। सरकार के झूठे वायदों और मंत्रियों की दलीलों से शोषित, यह पुलिया अब हार मान चुकी है।
इसी पुलिया से दाएं एक रास्ता शादीपुर को जाता है। यह रास्ता शमशान घाट को लगता है। इसी रास्ते के आरम्भ में एक खाली जगह है। यह सूरदास का घर है। एक काठी की छड़ी, लोहे का डोलू, केसरी बाना और आँखों में अंधकार के साथ, वो यहीं बैठे रहते हैं। रास्ते के इर्द-गिर्द केवल वृक्षों और लतरों का व्यास है। यह एक परिधि है, जो किसी तपस्वी के तेज से भस्म हो चुकी दिखाई देती है। एक भूरे रंग की बोरी बिछा कर सूरदास सुबह ही यहाँ आकर बैठ जाता है। यह जगह दिन भर उसका मनोरंजन करती है। शाम का पर्दा गिरते ही वह नदी किनारे अपनी टूटी पढ़ी झोंपड़ी में चला जाता है। कोई नहीं जानता की यह बसेरा स्थायी है भी या नहीं ? या फिर सूरदास के पास कोई घर है भी के नहीं ? पर शाम गिरते ही यह वृक्ष पिसाच बन जाते हैं, इसलिए यहाँ रुका नहीं जा सकता। इंसान अकस्मात् मौत की जगह, पल-पल मरना ही चुनता है। पुराने ज़माने के लोगों की तरह सूरदास भी आत्महत्या को गुनाह मानता था। इसलिए नहर किनारे होने के बावजूद भी कभी उसमें छलाँग नहीं लगायी। और लोग कहते हैं की वह विक्षिप्त है। नदी से उसका विशेष नाता है, सूरदास के विवरण में नदियां अक्सर आ जाती हैं।
बच्चे सूरदास को अपना मन बहलाने का ज़रिया मानते थे। शाम को जब वो अपने झोंपड़े की और जा रहा होता था, तब वो उसपर परचून वाले की दुकान के बहार रखे हुए सड़े -गले आलू फेंकते थे। सूरदास नेत्रहीन वहीं खड़ा रह जाता था , जैसे हिरन शेर की आवाज़ सुनते ही इधर उधर ताकना शुरू कर देता है, वैसे ही परेशान और भयभीत वो खौफ से यहाँ वहां देखने लगता था। पर वो नेत्रहीन होने के सबब कुछ ज्ञात नहीं कर पाता था। यह भाव उसे क्रोधित कर देता था और वह गालियाँ देना शुरू कर देता था।
गालियाँ सुन के बच्चे बहुत खुश होते थे। यह काम बरसों से होता आ रहा था। अब तो बच्चों के बच्चे भी सूरदास को आलू मरकर मनोरंजन करने लगे थे। शायद सूरदास सदियों से यूँ ही भटक रहा था। शायद वो एक आत्मा था। या फिर कोई औगढ़। पर पुराने लोग उसके जीवन के बारे में जानते हैं। यह लोग, ज़्यादातर, मर चुके हैं। इसलिए कहानियां गढ़ना काफी सुगम बन गया है। सूरदास, हालाँकि कहानी का स्त्रोत बन चूका है , पर अफ़सोस यह है की यह कहानी एक डरावनी कहानी है और सूरदास ही उसका राक्षस है, नायक नहीं !
हमारे देश में अक्सर जिसके साथ गुनाह होता है, मीडिया उसे ही दोषी दिखाती है और सरकार की तरफदारी करती है। समाज यह ताकीद कर देता है की उस इंसान का बहिष्कार कर दिया जाये। और वो बेगुनाह सदा-सदा के लिए लोगों के मन में गढ़ती कहानियों का एक पात्र बन कर रह जाता है। जिसका नसीब उनकी मन रूपी पुस्तक पर निर्धारित होता है। यह कितना निर्दयी और दुखदायक है।
मैं विवेक सहगल हूँ , आपका सूत्रधार और मैं आज आपसे सूरदास के जीवन की बात कर रहा हूँ। यह कथा कोई आम कथा नहीं है। यह कथा तीन मुख्य आयामों की पृष्ठभूमि पर सृजित है - संघर्ष, न्याय और बहिष्कार। आज़ाद भारत में इन तीनों के क्या मायने हैं और क्या इनका निष्कर्ष है? यह इस वक्त का सबसे ज़रूरी प्रश्न है।
सूरदास के जीवन के शुरुवाती जीवन की खास जानकारी पूरे शादीपुर में किसी के पास नहीं है। मेरे पड़दादा नम्बरदार थे। उन्होंने काफी यश और धन कमाया। उनके पास जायदाद थी, उनकी मृत्यु एक लाइलाज बीमारी से हुई। मेरी दादी चंद्रकांता ने उनकी बहुत सेवा की, अपने जीवन में उन्हें एक ही ग़म था, जब उनके पिता अपनी आखरी सांसें गिन रहे थे तब वो उन्हें मिलने नहीं जा सके थे इसलिए अब जब उनका पुत्र, मेरे दादा रामस्वरूप, बाहिर मुंबई थे तो उन्हें अपने पैतृक श्राप का खौफ दिन रात सताने लगा था। उन्हें यह भय था की वो बिना अपने पुत्र का मुख देखे ही मर जायेंगे। पर भाग्य तो कर्मों पर निर्धारित होता है। मेरी दादी ने यह जान लिया था की मालिक राम सहगल के जीवन की ज्योति जल्द ही शांत होने वाली है। उम्र छोटी थी, और अपने ससुर का सम्मान बाहुल्य। अपने पति को चिट्ठी उन्हें बुलाया, और इस पारिवारिक श्राप को तोड़ दिया। मालिक राम ने अपनी बहु के असीम यत्नों से खुश हो उन्हें दो पुत्रों का वरदान दिया। जो पूरा भी हुआ।
चंद्रकांता कपूर के पिता बाघमाल पाकिस्तान में कपास के बहुत बड़े उद्योगपति थे, बहुत धनी और नामी। विभाजन के बाद अजमेर आ गए। यहाँ मेरी पड़दादी कौसल्या के भाई, अमरनाथ मल्होत्रा, दादी के लिए रिश्ता लेकर आये। बाघमाल की सबसे छोटी पुत्री, जो उनकी लाडली थी उसका रिश्ता तय करते ही उन्हें उसके जाने का दुःख सताने लगा था। पर उनकी पत्नी को अलग ही गम था, की यदि राम सुन्दर नहीं हुए और उनका परिवार अच्छा न हुआ तो वो यह शादी तोड़ देंगी और अपनी पुत्री समेत नहर मैं कूद जाएँगी। मीरा कपूर पैसे की पीर थीं, विभाजन के समय जब लोग अपने परिवार से बिछड़ रहे थे तब यह पाकिस्तान जाकर अकेले ही सारा सोना ले आईं थीं। और अब जब उन्हें यह आशंका हुई की उनके पति ने उनकी पुत्री का रिश्ता गरीब घर में किया है तो वह डर से काँप उठी।
राम और उनका परिवार अभी इतना अमीर नहीं हुआ था , पिता के बिगड़ते स्वस्थ्य के चलते केवल जायदाद ही बची थी। जब वो बारात लेकर अजमेर गए तो उनके घर आने से पहले ही यह बात फ़ैल गयी की लड़का तो चाँद से उतर के आया है, बहुत सुन्दर है। यह सुन के मीरा को चैन पढ़ा। पर विवाह के बाद जब कांता घर गयी तो मीरा ने पाया की उनकी सबसे प्यारी पुत्री सबसे कमज़ोर घर गयी है। उन्होंने अपने घर में चोरी करके अपनी पुत्री का घर भरना शुरू किया। उन्हें यह विकल्प सबसे अच्छा लगा पर किस विभूति से वो अपनी पुत्री का नसीब लिख रही थीं? पर राम काफी स्वाभिमानी थे और कांता को क्या पैसा मिलता है उन्हें पता भी नहीं था। सगन का पैसा कैसा खर्च हो जाता था कांता को पता भी नहीं चलता था, इसी बीच उनके चार बच्चे भी हो गए थे। आर्थिक संताप बढ़ने लगे थे, इसलिए दंपति ने महा-संघर्ष की कसम खायी। अपनी भावी पीढ़ियों को सुख से लैस करने के लिए अपना वैवाहिक जीवन दाव पर लगाया।
मेरे दादी जी का स्वप्न था की वो एक बढ़ी कंपनी में नौकरी करें ,प्रभु ने उनकी कामना सुनी और उन्हें मनचाही नौकरी भी मिली। दिन ही दिनों में सहगल शादीपुर में सबसे अमीर हो गए। और कांता ने यहाँ के सारे व्यवसायों की ज़िम्मेदारी ली। मीरा कपूर अपने बाकी बच्चों से अलहदा और अपने पति की ख्वाहिश और आदर्शों को ध्वस्त करके कांता को धन और गहने भेजती थी। कांता ने इससे अपने गुणों में भी लाया। इसलिए कभी उस धन से जायदाद में वृद्धि न कर सकी।
चंद्रकांता में गुण थे, पर मालिक राम के जाने के बाद उनमें अहंकार का आविर्भाव हो गया। कौसल्या तो देवी थी और मासूम भी, सो अपना मन मरकर बैठी रही। चंद्रकांता ने उन्हें कोई अधिकार नहीं दिया। वहीं जहाँ बाकि औरतें चाकरी करती थी, कान्ता रानी के सामान जीवन व्यतीत करती थी।
शादीपुर में दिन-प्रतिदिन फैक्टरियां लगती जा रही थी। बंगाल, बिहार, झारखण्ड और ओडिशा से लोग यहाँ आकर बसने लगे थे। जिन लोगों पर जायदाद थी उन्होंने उन्हें कमरों में बदल दिया और उन्हें किराये पर चढ़ा दिया।
तब मेरे पिता जवान थे जब सूरदास भी हमारे कमरों में किराये पर रहने आये थे। उन दिनों यह कमरे किसी बड़े होटल से कम नहीं थे। इसलिए अच्छे ओहदे पर काम करने वाले लोग भी यहाँ रहने आ जाया करते थे। सूरदास के शुरुआती जीवन की इतनी ही जानकारी है। वो भी इसलिए क्योंकि वो हमारे किरायेदार रह चुके थे।
भाग २
सूरदास की हिंदी पर बेजोड़ पकड़ थी। पश्चिम भारत से था। या फिर दक्षिण से भी हो सकता है। पर उसकी हिंदी पर बेजोड़ पकड़ थी। सुना था लक्ष्मी और सरस्वती एक साथ नहीं ठहरती , सूरदास का जीवन इसका सबूत था। आवाज़ ऐसी की चन्द्रमा की कांती भी उसके समक्ष तुच्छ थी। बरसो से सुनी पढ़ी कोख से जब आखिरकार शिशु जन्म लेता और उसकी किलकारी से जो सुकून माता को मिलता है उससे से भी अधिक सुख सूरदास की आवाज़ में था। छोटी उम्र में ही वो अपना घर परिवार त्याग कर शादीपुर में आ गए थे। सुबह फैक्ट्री में मजदूरी करके पैसा कमाते थे और शाम को रियाज़ करते थे। उस समय शादीपुर के हालात बहुत जटिल थे। मज़दूरों के लिए कोई नियम नहीं था और न ही कोई दया। व्यवधानों से युक्त जीवन को बिना किसी प्रश्न के जीना और मेहनत करके भी उद्योगपतियों से एक एक रुपये के लिए भीख मांगना ही उस वक्त मज़दूरों का नसीब था। अब तो मज़दूर ही शादीपुर के करता धर्ता हैं। अब इनसे ज़्यादा कोई समझदार नहीं हैं। अब तो शादीपुर का रंग रूप पूरा बदल गया है। पहले कभी यह गाँव था, अब तो नगर निगम में आ गया है। इल्यास खान के बाद तो अब कोई यहाँ सरपंच नहीं बना। २४ घंटे बिजली रहती है। वन-वनस्पति सब विह्वल हो चुकी है और केवल फैक्टरियां, मलयज आलम और हवा में ज़हर ही बची है। शादीपुर देश के मध्यम-वर्गीय लोगों को अभिव्यक्त करता है। शहर की सभी सुविधाएं यहाँ से उतनी ही दूर हैं जितनी पीछे लगते गाँवों के लिए। पर वो गाँव विशुद्ध रूप से ग्रामीण है। खेती ही रोज़गार है, श्यामल पर फसल लहराती है और शुद्ध वातावरण में सब ख़ुशी से और एकता के साथ रहते हैं। शहर का तो कोई सानी ही नहीं है। और फिर आता है शादीपुर। शहरियों ने इससे कूड़ा दान समझकर सभी फैक्टरियां पहले तो यहाँ लगा दी और कहा की रोज़गार मिलेगा , पर पानी की निकासी और प्रदूषण की बात तो की नहीं थी। रोज़गार तो पहले भी था ही। बदलाव तो बस यह हुआ की जो लोगों के पास धन था उन्होंने शहर में घर ले लिया। और शादीपुर में रहना कर्कश हो गया है। पर मधुर तो सूरदास की वाणी थी।
सूरदास ने यब बहुत जतन करके किसी तरह बढ़े संगीतकारों को अपना परिचय दिया तो निराशाजनक प्रतिक्रिया ही पायी। पर उन्हें लोगों तक अपनी आवाज़ पहुँचानी थी और भगवन ने उन्हें रेडियो स्टेशन में बहुत बढ़ी पदवी दिला दी। सूरदास की काया पलट गयी। पर यह सुख ज़्यादा नहीं चले।
भाग ३
खुदा जाने कौन! पर किसी ने सूरदास की चाय में कोई दवा मिला दी और उसकी आवाज़ चली गयी। एक ही पल में सूरदास के जीवन के सामने अंधकार छा गया। वो उठा ही नहीं। क्योंकि जो उठा वो एक फटी कर्कश आवाज़ और नेत्रहीन लाचार आदमी था, जो जगत से हार चूका था। अपने कार्यकाल के पहले ६ महीने में ही उसने अपनी कंपनी को बहुत बढ़े मक़ाम दिलाये।
सूरदास पढ़े-लिखे थे इसलिए न्यायालय गए। पर पढ़े लिखे लोगों की यही एक दिक्कत होती है वो सच्चाई से अज्ञात होते हैं।
न्यायालय में न्याय नहीं मिलता दोस्तों।
सूरदास को भी नहीं मिला। सूरदास के आगे पीछे कोई नहीं था। उसने हार नहीं मानी। पर वो कर भी क्या सकता था ? एक दिन मुख्य मंत्री के दफ्तर पहुंचे , १० रुपये भीख में मिल गए। शाम को घर के रास्ते में किसी ने उन्हें इस गुस्ताखी के लिए पिटवाया। उसके सारे कपड़े फट गए और उन्हें शादीपुर की पुलिया के मोड़ पर फेंक दिया। एक राह चलते साधू ने उसे अपना चोगा दिया। और सूरदास एक ज्ञानी कलाकार से एक भयानक और अभद्र बाबा बन गया।
एक पोस्टर पे लिखा होता था ' बाबा सिर्फ दूध पिता है, चाय नहीं ' । सूरदास एक अरसे तक इन्साफ की उम्मीद लगाकर बैठा रहा। इन्साफ नहीं मिला। वो विक्षिप्त हो गया।
मैं कल ही यहाँ आया। आज शादीपुर पाताल जैसा हो गया है। सरेआम गोली चलती है, किवारें और चिटकनियाँ बढ़ी हो गयी हैं। शादीपुर अब भी उस मध्यम वर्गीय सूरदास की तरह इंसाफ और बदलाव के इंतज़ार में है।
बच्चों ने आलू इकट्ठे करने बंद कर दिए हैं। सुना है सूरदास की हत्या हो गयी है। पुलिस भी नहीं आयी, सुना है MLA का जन्मदिन था। नहीं होता तब भी नहीं आते, सूरदास की क्या औकात थी। अब उस खाली जगह पे घास उगनी शुरू हो गयी। सूरदास की मज़ार पर यही चादर बिछ सकती है। मिटटी का था, मिट्टी हो गया। पर ऐसी भी क्या नफरत इस ज़माने को उससे थी। सूरदास ने एक दिन भी सुख नहीं देखा। में सोचता हूँ , की उसने कभी इंसान नहीं देखा। दुनिया कहती है वो शराबी था। कोई उससे हरामी कहता है। मैं उससे इंसान कहना चाहता हूँ , क्योंकि उससे कभी इंसान समझा ही नहीं गया। धन एक ज़रूरत से पहला प्राथमिक ज़रूरत बना, अब तो धन एक संस्था है। ऐसी संस्था जो न्याय, अधिकार, प्राधिकार और सामाजिक समावेश निर्धारित करती है. हमारे देश में जो नाउम्मीद स्थिति इस वक्त उजागर हो चुकी है उसका क्या समाधान है? शिक्षा ? हो नहीं सकता क्योंकि अब तो शिक्षा भी अच्छी-बुरी हो गयी है, विद्या भी उनकी है जिनपर लक्ष्मी माँ की कृपा है। और अगर आप समाज के उन दायरों से है जो सदियों से पिछड़े हुए है, वो कसबे जहाँ सुबह सूरज भी नहीं निकलता, तो भारत में इस वक्त आप अस्त हो चुके हैं। पर सूरदास तो आज का नहीं था, वो तो न बीजेपी का है न कांग्रेस का। उसने तो कितनी सरकारें देखी हैं तो फिर दोष किसे दें?
दोष इंसान का ही है। समाज के वो धनी और विशेषाधिकारी लोगों की गरम सांसें अब गरीब और अपवर्जित लोगों की हड्डियां सकने लगीं है। दिन-प्रतिदिन बढ़ती यह आर्थिक और सामाजिक विभाजन की रेखा अब साफ़ शब्दों में कहने लगे है की की अगर तुम गरीब हो, तो यह तुम्हारा दोष है! अगर गरीब हो तो अमीर बनो, हक़ मत माँगो।
पर क्या यह इंसाफ है? शायद हाँ! क्योंकि इंसाफ की उम्मीद तो इंसान से की जाती है, और हम इंसान नहीं है। यह लोप इंसानियत का है, प्रशासन का नहीं। यह हार समाज की है, सरकार की नहीं।
'वो मनुष्य है की जो मनुष्य के लिए मरे' - मैथिलीशरण गुप्त
