सत्य,सत्य है
सत्य,सत्य है


(1)
बात उस समय की है जब भारत आजाद हुआ ही था। जहाँ एक तरफ अंग्रेजों से आजादी की खुशी थी वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान जैसे एक नए मुल्क के बनने का गम था। ऐसे समय में बहुत सी ताकतें भारत में दंगा और लूट मार कराने के चक्कर में लगी हुई थी।
पर कुछ ऐसी भी ख़ुफ़िया ताकतें थी जो इन सब को रोकने का प्रयास कर रही थी। ऐसी ही एक संस्था थी। "बी वी रो स" जिसका मुख्य काम था समाज की गतिविधियों पर नज़र रख कर उसके मनचले लोगों की पहचान कर के उनपर लगाम लगाना। जिससे भारत में शांति का माहौल बना रहे। और लोगों में प्रेम तथा भाईचारा कायम रहे।
(2)
इस खुफिया संस्था के पास एक से बढ़ कर एक कामयाब आदमी थे पर उनमें से सबसे भरोसेमंद और कामयाब थे, सम्राट सिंह, कद काठी में योद्धा जैसा व्यक्तित्व, रोबदार चेहरा, गहरी आँखें हल्की सी लालिमा लिए हुए। कुल मिला कर एक अच्छा सा व्यक्तित्व, साथ में अपने काम में इतने निपुण की लोग उनकी मिसाल देते थे।
हुआ यूं कि उनके नजर में एक ऐसा व्यक्ति आय जिसका नाम करिम था। उसके रहन सहन और बात चीत से उस पे उनको शक हुआ कि ये बंदा भारत विरोधी काम कर रहा है।
अपने तय रणनीति के तहत उन्होंने उसे गिरफ्तार किया।
(3)
करीम बार बार बोल रहा था कि मैं निर्दोष हूँ मुझपर झूठा इल्जाम लगाया गया है पर सिंह साहब अपने काम में इतने पारंगत थे कि करीम के बोलने से किसी को भरोसा नहीं हो रहा था।
वैसे मुजरिम के कहने पर कहाँ कभी पुलिस वाले भरोसा करते हैं।
सिंह साहब को अपने सोच और अपने समझ पर बहुत भरोसा था और सभी लोग उनसे इतने मुतमईन थे कि किसी ने सत्य क्या है इसपर ध्यान ही नहीं दिया। और उस समय भारत का माहौल ही ऐसा था कि कोई किसी पर भरोसा नहीं कर सकता था।
क्योंकि हर जगह हिन्दू मुस्लिम सिख ये सब अपने अपने धर्म के नाम पर लड़ाई और अपने अपने को बचाने में लगे थे।
(4)
उस वक्त का माहौल ऐसा था कि शक के आधार पर लोगों को पकड़ा जा रहा था ऐसे समय में करीम का पकड़ा जाना कोई अजीब बात नहीं थी। करीम पर जल्दी फैसला सुनाने वाली अदालत में केस चलाया गया और सिंह साहब के सबूतों के आधार पर उसको दोषी भी साबित क
र दिया गया। जज ने उसको देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त पाया और फाँसी की सजा सुनाई गई।
करीम अपने दुआ में हरदम यहीं प्रार्थना करता कि या रब मेरा सच सबके सामने ला दे ताकि मैं निर्दोष साबित हो सकूँ।
कहते हैं कि सच्चे दिल से की गई दुआ जरूर कबूल होती है।
(5)
हुआ कुछ यूं ही फाँसी के दो दिन पहले सोते वक्त सिंह साहब ने सपना देखा कि उनसे कुछ गलती हो गई है। पर वो ये समझ नहीं पा रहे थे कि गलती क्या हुई है। तब तक नींद खुल गई। पूरे दिन सपना के बारे में सोचते सोचते उनकी हालत खराब हो गई थी। कभी उनको लगता था कि ये बस एक सपना था, कभी उनको लगता था कि सपने में बहुत कुछ सच्चाई थी कभी कुछ तो कभी कुछ। ऐसे करते हुए सिंह साहब पूरे दिन परेशान रहे और फिर से रात हुई और फिर से सो गए।
फिर से वहीं सपना पर अबकी उनसे कोई बोल रहा था कि तुमने आज तक जो भी काम किया है बहुत काबिले तारीफ है पर ये जो तुम करीम को फाँसी दिलवा रहे ये तुम्हारी यश कीर्ति और पुण्य को धो देगा।
(6)
सीधे करीम का नाम सुनकर सिंह साहब चौक गये और उनकी नींद खुल गई। देखा तो अगल बगल में कोई नहीं था पर इस सपने ने सिंह साहब को झकझोर दिया और सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या जो मैंने किया है वो सही है या गलत।
आदमी जब अपने किये हुए कार्य को दोहराता है या याद करता है तो उसमें खुद से कितने सारे दोष नजर आने लगते हैं।
सिंह साहब ने फिर से जांच की फ़ाइल को पढ़ना शुरू किया तब रात के लगभग 3 बजे होंगे सुबह होने तक सिंह साहब ने अपनी गलती पकड़ ली और फाँसी से कुछ समय पहले ही उन्होंने साक्ष्य को सही ढंग से प्रस्तुत किया और अपनी गलती मान ली।
इंसान जब अपनी गलती को मान कर उससे शिक्षा लेता है तो वो और महान हो जाता है।
(7)
सिंह साहब के कहने पर करीम की फांसी रुक गई और उसे बा इज्जत बरी कर दिया गया। हुआ यूं था कि जिसे वो करीम समझ कर ले आए थे वो समीर था हुलिया मिलने से दोनों में सिंह साहब को उलझन हो गया था। खैर सिंह साहब अपने सुधार पर खुश थे और प्रभु का शुक्रिया अदा कर रहे थे।
इसी लिए कहा गया है
जा के राखो साइया मार सके ना कोय....
और मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है।
इति।