हरि शंकर गोयल

Comedy

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हरि शंकर गोयल

Comedy

स्त्रियाँ

स्त्रियाँ

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आज शाम को चाय का प्याला लेकर आती हुईं बड़ी चहक रही थीं श्रीमती जी । उनके चेहरे की मुस्कान बता रही थी कि बात कुछ खास है । लग रहा था कि जैसे कारूं का खजाना हाथ लग गया हो । 

 हमने छेड़ते हुये कहा "क्या बात है मैडम जी , आज तो चेहरा ऐसे खिल रहा है जैसा मुझे देखकर खिला था उस दिन जब हम पहली बार मिले थे । आज फिर से कुछ वैसा ही प्रोपोजल कहीं से आया है क्या" ? 


हमारी इस बात पर वे क्रोधित हो गई । मुस्कान गायब और चेहरे से क्रोध की चिंगारियां निकलने लगी । बोली " आपको तो अभी भी शादी के ही खयाल आते रहते हैं । कमाल है । तुम मर्दो का एक शादी से पेट नहीं भरता है क्या ? हम स्त्रियां ऐसी वाहियात बातें दिमाग में लाती ही नहीं हैं । आप लोग पता नहीं क्या क्या खयाली पुलाव पकाते रहते हो "? 


"अजी, हम कहाँ खयाली पुलाव पकाते हैं । हम तो पका पकाया खाते हैं । पकाने का काम तो औरतों ने अपने हाथ में ले रखा है । वे खिचड़ी पकाने में तो माहिर हैं ही । पूरे मोहल्ले में पकती है तुम लोगों की खिचड़ी । हम मर्दों का क्या है ? हमें तो कुछ बनाना आता नहीं , बल्कि बनते हैं उल्लू , आप लोगों द्वारा । आज तो आपके चेहरे की रंगत देखकर हम यह समझ बैठे कि कुछ राज की बात जरूर है । चलिये , अब बता भी दीजिए कि किस कारण इस चेहरे पर बहार छाई है" ? 


वो चहक कर बोलीं "अरे मेरी वो सहेली है ना रितु , उसका मैसेज था" ? 


उनकी सहेलियों का जिक्र आते ही हमें कुछ कुछ होने लगता है । जिज्ञासा जाग जाती है कि वे क्या कह रही थीं हमारे बारे में । बस, कान उधर ही लग जाते हैं । हमारी इस आदत को वो अच्छी तरह जानती हैं इसलिए हमें टोकते हुये बोलीं "अरे उसने आपके और मेरे बारे में कुछ नहीं कहा । आप इतने उत्साहित मत होइये । मुझे पता है कि आपको मेरी सहेलियों में बहुत दिलचस्पी रहती है" । वे उलाहना देते हुये बोलीं 


जब किसी की चोरी पकड़ी जाती है तब उसकी जो हालत होती है , वही हालत हमारी हो गई थी । जब हमसे कुछ कहते नहीं बना तो बात बदलते हुये कहा " ऐसा कौन सा संदेश भेजा है आपकी सहेली ने कि आपके चेहरे पे नूर बरसने लगा है । जरा हमें भी दिखा दो ना वह मैसेज " ।  


"एक कविता भेजी है । बहुत ही शानदार है । स्त्रियों के बारे में है" 

"जरा पढ़कर सुनाओ ना " । हमने चिरौरी करते हुये कहा 

"आप क्या करोगे उसे सुनकर ? एक कविता है जिसमें औरतों की प्रशंसा की गई है । पुरुषों को तो स्त्रियों की प्रशंसा कभी अच्छी नहीं लगती है । जल भुन जाते हैं । इसलिए आप क्या करोगे पढ़कर " । मुंह चिढ़ाते हुये वे बोलीं 


"अजी, औरतों की प्रशंसा तो केवल हम पुरुष ही कर सकते हैं । औरतों में इतना दम कहाँ जो वे हम मर्दों की प्रशंसा करें ? हम मर्द ही हैं जो आप लोगों को चांद और न जाने किन किन उपमाओं से अलंकृत करते रहते हैं । आप लोग तो हमारी केवल आलोचना ही करते हो" । हमने नहले पर दहला मारा और बात आगे बढ़ाते हुये कहा । "अब सुना भी दो न । हम भी तो सुनें कैसी कविता है" 


"तो सुनिये" । वे कविता पढ़ने लगीं 


हम स्त्रियों की तो बात ही अलग है 

हम सब कुछ सहेज कर रखती हैं 

रिश्ते नाते, पैसा, जेवर, कपड़े वगैरह । 

हम अच्छे से संभालकर रखती हैं 

मान सम्मान, इज्ज़त, गरिमा, लाज, शील । 


वे आगे पढ़ती इससे पहले ही हमें शरारत सूझी और उन्हें छेड़ने का मन हुआ । यद्यपि पीठ ने टोका भी कि आपके छेड़ने के चक्कर में उसका कचूमर निकल जायेगा मगर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ? हमने भी नहीं सुनी । श्रीमती जी को चिढ़ाने के अंदाज में कहने लगे 

"एक मिनट रुकिये । ये कविता अर्द्ध सत्य है" 

"कैसे" 

"इसमें जो बातें लिखी हैं वे कुछ सही हैं । बाकी गलत हैं । जैसे इसमें लिखा है कि वे सहेजती हैं । यह सही है मगर क्या सहेजती हैं ये गलत लिखा है । वे रिश्ते नाते नहीं सहेजती बल्कि वे सहेजती हैं लड़ाई का सामान , आग लगाने की सामग्री । इसी तरह वे संभाल कर रखती हैं पुरानी जली कटी बातें , सात पुश्तों का कच्चा चिट्ठा । किसने कब क्या कहा ? कौन सी गाली दी ? वगैरह" । हमने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया था । 


वे हमारी बात को इगनोर करते हुये कहने लगीं " और सुनो । 

स्त्रियां बढ़ाती हैं 

कुल की शान, मर्यादा , प्रतिष्ठा । 

वे बांधती हैं 

पूरे परिवार को स्नेह की डोर से । 

वे सींचती हैं रिश्तों को 

मेहनत से, प्यार के पानी से । 


हमने उन्हें टोकते हुये कहा "बस, बस, बस। अभी रुको जरा । फिर गलत कहा आपने । वे बढ़ाती तो अवश्य हैं लेकिन क्या ? बात को बढ़ाकर बतंगड़ कर देती हैं । रार को बढ़ाती हैं । वे बांधती अवश्य हैं मगर क्या ? अपने मायके की प्रशंसा के पुल । अपने भाई बहनों की उपलब्धियों के महल । वे सींचती तो अवश्य हैं मगर क्या ? अफवाहों और संदेहों की फसल । वे ढंकती तो जरूर हैं मगर अपने चेहरे की झुर्रियां । वे छिपाती हैं अपनी उम्र , सिर के सफ़ेद बाल" । हमने अपनी हंसी मन ही मन दबाते हुये कहा और उनके चेहरे के भाव ताड़ने लगे । 


जैसा सोचा था वैसा ही होने लगा । उनके चेहरे की भाव भंगिमा बदलने लगी । वो मासूमियत और नूर गायब हो गया । जैसे पानी खौलने लगता है वैसे ही उनका चेहरा खौलने लगा था । पारा बढने लगा था । हम अपनी मेहनत पर नाज करने लगे और यह सोचकर कि अब इससे आगे लक्ष्मण रेखा क्रॉस नहीं करनी है इसलिए उठकर जाने लगे । 


हमारे इस उपक्रम को वे समझ गयीं और मोबाइल एक तरफ रख हमारे दोनों हाथ पकड़कर कहने लगी " अरे, कहाँ चल दिये ? जो बोया है उसे काटोगे नहीं" ?  


और इतना कहकर दे बेलन, दे चिमटा । जो भी हाथ में आया सब दे मारा । बेचारी पीठ कहने लगी "मैंने तो पहले ही कहा था कि तुम्हारे कर्मों का फल मुझे झेलना पड़ता है । दुष्ट कहीं के" । 


आज एक बार फिर से बुरी तरह सुंताई झेलकर मजा आ गया । सब हाथ पांव सहित पूरा बदन हलका फुल्का हो गया था । तबीयत हरी हो गई थी । ऐसा लग रहा था जैसे बढिया सी मसाज हो गई हो । एक महीने की खुराक मिल गयी थी 



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