स्तब्ध
स्तब्ध
मनीष, 32-33 वर्ष का सजीला नौजवान था वो, घुंघराले बाल, कत्थै आँखे जिनमें प्रसन्नता सहज ही दृष्टि गोचर हो जाती थी, चेहरे पर हृदय लुभावनी मुस्कुराहट और वाणी में विनम्रता उसे उन तमाम लोगो से अलग करते थे जो किसी मुकाम पर पहुँच कर अपनी जड़े भूल जाते हैं। अभी दो वर्ष पूर्व ही उसने अपनी शल्य चिकित्सा का परास्नातक पूरा किया था और हमारे चिकित्सालय से जुड़ा था, मृदुभाषी होने के कारण बहुत जल्दी ही वह सभी का प्रिय बन गया था। उसका मरीजों से बात करने का तरीका , पूर्व चिकित्सकीय जानकारी लेने का ढ़ग , सहयोगी कर्मचारियों से व्यवहार उसे विशेष बना देते थे। सभी को पूरा विश्वास था कि एक दिन वह बहुत बड़ा चिकित्सक बनेगा। चूँकि हम समव्यस्क ही थे तो हमारा ज्यादातर समय साथ ही गुजरता था , बहुत सुलझा हुआ व्यक्तित्व था उसका , हास्पिटल से रुम और रुम से हास्पिटल यही उसकी दुनिया थी। अपने काम के प्रति ऐसा जूनुन मैने तो बहुत कम ही लोगों में देखा हैं, कोई भी छोटी से छोटी चीज उसकी नजर से बचकर नही जा सकती थी , गजब की अंतर्दृष्टि थी , सीखने के लिए तो दीवाना था वो,
कोई नया यंत्र हो या नयी तकनीक जब तक वो सिद्धहस्त नही हो जाता उसे चैन नही पड़ता था। मरीजों की सेवा के लिए तो जूनुन की हद तक पागल था वो , एक बार की बात हैं वह वार्ड के राउंड पर था , किसी मरीज ने किसी प्रकार के दुर्व्यवहार की शिकायत कर दी थी , फिर तो उसने पूरा अस्पताल सिर पर उठा लिया था , बड़ी मुश्किल से मैने हस्तक्षेप कर मामला किसी तरह सुलझाया तब जाकर वह शांत हुआ , उसका इतना रौद्र रुप किसी ने पहले नही देखा था। बाद में जब मैने उससे पूछा तो बोला " यहाँ लोग इस भरोसे से आते हैं कि उनको सबसे अच्छी चिकित्सा मिलेगी, आप ही बताईये हम उस विश्वास को कैसे टूटने दे सकते हैं "। उसकी यह बात मेरे दिल को छू गयी थी, आज के इस व्यवसायिक युग में ऐसा निश्छल व्यक्ति मिला बहुत ही दुर्लभ हैं, जब लोग सिर्फ वेतन के लिए काम करते हो मनीष को सिर्फ अपने रोगियों की चिंता थी। वैसे तो वह सभी से बड़ी नम्रता से बात करता था पर मैने देखा कि वह तीमारदारों से कभी भी सीधे बात नही करता था और बात बात पर उन्हें छिड़क दिया करता था। मुझे उसका यह व्यवहार बहुत विचित्र प्रतीत होता था , आखिर कार एक दिन मैने उससे उसके इस व्यवहार का कारण पूछ ही लिया कि "यार तुम रोगियों से तो इतने अच्छे से पेश आते हो , उनको कोई कमी हो जाये तो नाराज हो जाते हो, बेचारे तीमारदारो तुम्हारा क्या बिगाड़ा हैं ?"
वो क्षण भर को बहुत गंभीर हो गया , उसकी आँखों में दुनियाभर की संजीदगी साफ देख सकता था मै ं, फिर उसने जो जवाब दिया उसे मै कभी भूल नही पाँऊगा , वो बोला " सहानुभूति का प्रदर्शन मजबूत से मजबूत इंसान को तोड़ सकता हैं और मै उन्हें कमजोर नही करना चाहता " उसकी ये बात मेरे दिल को छू गयी। समय अच्छा बीत रहा था , सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि पता नही किसकी नजर लग गयी, कोरोना के रुप में साक्षात आफत ही टूट पड़ी| प्रतिदिन पचासों लोग अस्पताल में भर्ती होने लगे , मनीष पूरी तन्मयता से उनकी सेवा सुश्रुषा में दिन रात लगा रहता था , जहाँ लोग मरीजों के पास जाने में भी भयभीत रहते थे, मरीजों से बातचीत के माध्यम से वो बराबर उनको ढाढस बंधाने का काम भी किया करता। पिछले अवकास में जब हम साथ में थेे तो मैंने पूूूछा था उससे "क्या तुम्हे डर नही लगता यदि तो तुझे संक्रमण हो गया तो " अपनी मुस्कान के साथ उसने जवाब दिया "कर्तव्य पथ पे जो मिला ये भी सही वो भी सही " और बात आयी गयी हो गयी। इसके बाद हमारी तैनाती अलग अलग जगहों पर हो गयी तो मुलाकात संभव नही हो पायी। 15 दिनों बाद अचानक से जब ये सूचना मिली की कोरोना संक्रमण के कारण मनीष अब हमारे बीच नही रहा तो मै स्तब्ध रह गया।
