सर्वत्र विजयते
सर्वत्र विजयते


मगर आज नवीन बहुत ही उदास था। आज उसके प्रतिष्ठान का २५वां सालाना समारोह था। बहुत बड़ा आयोजन किया गया था। उसके प्रतिष्ठान के कर्मचारियों के अतिरिक्त भी बहुत से सम्मानित अतिथि समारोह में उपस्थित थे। पार्टी पूरे रंग में थी। प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में गिलास था। चाहे ड्रिंक का चाहे साफ्ट ड्रिंक का। नवीन के हाथ में भी था। ड्रिंक का। फिर भी नवीन उदास था। उसकी उदासी का कारण थी रूनी। रूनी उसका असली नाम नहीं था। असली नाम तो रूनझुन था। नवीन उसे प्यार से रूनी पुकारता था। रुनी- उसी के प्रतिष्ठान में काम करने वाली उसकी सहकर्मी। बजाज साहब की पर्सनल सेक्रेटरी। उसे याद है- रूनी ने पहल स्वयं की थी। कहा था "मैं तुम्हें पसंद करती हूं"। रूनी यदि उससे ये वाक्य नहीं कहती तो शायद नवीन स्वयं उससे ये बात कभी न कह पाता। और तब शायद आज उसके उदास होने की नौबत नहीं आती। उस घटना के बाद दोनों पहले प्रतिष्ठान के रेस्टोरेंट में फिर अन्य स्थानों पर मिलने लगे थे। दोनों के बीच प्यार गहरा होता गया। सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहता यदि बजाज साहब का बेटा यश न आया होता। वस्तुत: जब नवीन ने नौकरी ज्वाइन की थी तब यश विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहा था। चार महीने पहले ही वापस लौटा है। यूरोप की संस्कृति उस पर हावी थी। आते ही उसने रुनी पर अपना जाल फेंका और रूनी उस जाल में फंस गई।
"रुनी तुम ठीक नहीं कर रही हो।"
उसने उसे समझाने की कोशिश की।
"क्या ठीक नहीं कर रही हूं?"
रूनी ने अंजान बनते हुए कहा।
"यश से तुम्हारी निकटता एक साथ तीन जिंदगियां बर्बाद कर देगी।"
"ऐसा कुछ नहीं होगा। कोई जिंदगी बर्बाद नहीं होगी। उलटे तीनों आबाद हो जायेंगी।"
"तुम्हारा पता नहीं। मगर मेरी जिंदगी तो बर्बाद अवश्य होगी। मैं तुम्हारे बिना नहीं जी पाऊंगा।"
"बी ब्रेव। व्यवहारिक बनो। ख्यालों की दुनिया से बाहर आओ। ख्यालों से जिंदगी नहीं कटती। पैसे से कटती है। जो यश के पास भरपूर है।"
"पैसा तो मेरे पास भी कम नहीं है।"
"फिर भी तुम यश के नौकर हो और यश तुम्हारा बाॅस।"
"तो तुम मेरी बाॅस बनना चाहती हो।"
"यदि ईश्वर मौका दे रहा है तो क्या बुराई है।"
रूनी ने अपना मंतव्य प्रकट कर किया।
और यहीं से दोनों के बीच दूरियां बढ़नी शुरू हो गई। आज नवीन यश और रुनझुन को एक-दूसरे के इर्द गिर्द घूमते देख परेशान हो गया। लाख समझाने के बाद भी उसका मन समझने को तैयार नहीं था। उसके हाथ में गिलास था, गिलास में शराब, शराब में नशा, नशा आंखों में, आंखों में आंसू और आंसुओं ने सीने में बवंडर मचा रखा था। नवीन सबसे अलग होकर शराब के काउंटर के पास रखें स्टूल पर जा बैठा। पी तो यहां सभी रहे थे। मगर दूसरे जहां शराब को इंज्वाय कर रहे थे वहीं नवीन अपने आप को भूल जाने के लिए पी रहा था। एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा, लगातार पैग पर पैग पीते देख विनीत ने उसे समझाया-
"इस तरह शराब पियोगे तो मदहोश हो जाओगे।"
"हां! मैं मदहोश होना चाहता हूं।"
"क्या तुम्हें लगता है कि रुनझुन अकेली लड़की है दुनिया में? कोई और लड़की नहीं आएगी तुम्हारे जीवन में?"
"पता नहीं। आ भी जाए, तो क्या? प्यार तो एक बार ही होता है, बार-बार नहीं।"
"प्यार भी हो जायेगा मेरे दोस्त। बस तुम खुद को संभाल लो।"
"मैं संभलना ही तो नहीं चाहता।"
नवीन की आवाज में करूणा छलक आयी।
"मुझे अकेला छोड़ दो।"
नवीन इस समय अकेला रहना चाहता था।
"ठीक है। मैं चला जाता हूं। मगर तुम मेरी आंखों से दूर नहीं रहोगे। मैं तुम्हें एक लड़की के लिए बर्बाद होते नहीं देख सकता।"
विनीत उससे दूर चला गया।
नवीन को बेहिसाब शराब पीते देख बजाज साहब ने भी उसे टोंका-
"तुम ठीक तो हो। देख रहा हूं, कुछ परेशान हो।"
"ठीक हूं, सर!"
"कोई परेशानी हो तो मुझे बता सकते हो। तबियत ठीक न हो तो घर जा सकते हो।"
"मैं ठीक हूं, सर! थैंक्यू।"
बजाज साहब उसकी परेशानी नहीं समझ सकते थे। जो समझ सकती थी वो जान कर अंजान थी।
उस शाम नवीन ने इतनी शराब पी कि उसे वहीं उल्टी हो गयी। उल्टी करके नवीन बेहोश हो गया। विनीत ने उसे किसी तरह घर पहुंचाया। इस घटना के बाद नवीन शराब में डूबता चला गया। यहां तक कि अपने काम के प्रति भी वफादार नहीं रहा। बजाज साहब ने नवीन को कई बार चेतावनी दी। मगर नवीन पर कोई असर नहीं हुआ। बजाज साहब नवीन की योग्यता देख चुके थे। इसलिए उसे नौकरी से निकालने के बजाय कुछ दिनों की छुट्टी देकर यूरोप घूमने भेज दिया। नवीन यूरोप गया। घूमा फिरा। वापस आया। मगर अपने कार्यालय नहीं गया। दिन भर इधर-उधर घूमता। शाम होते ही शराब में डूब जाता। ये उसका रोज का सिलसिला बन गया था। अपनी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा बर्बाद कर दिया। एक शाम इतनी शराब पी कि घर ही नहीं पहुंच सका। सड़क के किनारे बेहोश होकर गिर पड़ा। सुबह होश तब आया जब एक कुत्ता उसका मुंह सूंघ रहा था। आज उसे अपने ऊपर बहुत ग्लानि हुई। उसकी आत्मा ने उससे कहा 'तूने अपनी योग्यता एक लड़की के लिए बर्बाद कर दी। धिक्कार है तुझे। तूने खुद को इतना गिरा दिया कि आज कुत्ते तेरा मुंह सूंघ रहे हैं। सही समय पर नहीं जागता तो शायद कुछ और भी कर देते।'
नवीन आत्मग्लानि से भर गया। उठा। अपने घर पहुंच गया। दो दिन तक घर से बाहर नहीं निकला। सिर्फ अपने बारे में सोचता रहा। इस बीच उसने शराब को हाथ भी नहीं लगाया। दो दिन बाद उसने विनीत को फोन लगाया।
"अरे! कहां हो भाई! तुम्हारा कोई पता ही नहीं चल रहा।"
" मेरा नाम मत लेना। किसी को मेरे बारे में बताना भी नहीं। आफिस से छूट कर मेरे घर पर मुझसे मिलों।"
कहकर बिना उत्तर सुने फोन काट दिया।
विनीत उसके घर आया। नवीन ने उसे घर बुलाने का प्रयोजन बताया।
"मैं अब नौकरी नहीं करना चाहता।"
"तो क्या करना चाहते हो?"
"अपनी कम्पनी डालना चाहता हूं।"
"ये हुई ना मर्दों वाली बात। डालो कम्पनी। मैं तुम्हारे साथ हूं। जो बन सकेगा तुम्हारे लिए करुंगा।"
"फिलहाल तो मुझे पूंजी की जरूरत पड़ेगी।"
"हो जायेगी।"
"कैसे ?"
"एक अप्लीकेशन लिखो, उद्योग विभाग के नाम। पास करवाने की जिम्मेदारी मेरी।"
"पहला ये कि फिलहाल उसे ये पता नहीं चलना चाहिए कि इस कम्पनी का मालिक मैं हूं। दूसरा ये कि उससे बदला लेने या उसे नीचा दिखाने की नियत से मत रखना। मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है।"
"और रुनझुन से?"
"आज की तारीख में उससे भी नहीं।... सच कहूं तो आज मैं अगर अपने कल के मालिक को नौकरी देने में सक्षम हो सका हूं तो वो रूनझुन के कारण ही। ऐसे में उससे मैं किस बात की शिकायत रखूं।"
"नवीन! आज तुम बहुत ऊंचे उठ गये हो। तुम्हें प्रणाम करने का मन हो रहा है।"
"उसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं तुम्हें ऐसे ही आशीर्वाद दे देता हूं।"
नवीन ने हंसकर कहा।
विनीत वापस अपने चैंबर में चला गया।
एक वर्ष और बीत गया। आज नवीन की कम्पनी का पांचवां सालाना जलसा था। अभी तक यश को अपने मालिक के बारे में पता नहीं था। न जाने विनीत ने किस तरह मैनेज किया था। जलसे में कम्पनी के कर्मचारियों और उनके परिजनों के अतिरिक्त शहर के बहुत से गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। सभी को नवीन का इंतजार था। तय समय पर नवीन जलसे में आया। यश और उसकी पत्नी रूनझुन की आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गई। नवीन और रूनझुन का सामना होने पर नवीन ने उससे पूंछा-
"कैसी हो रूनी?... माफ़ करना, तुम्हें रूनी कहकर पुकारने का अधिकार मैं बहुत पहले खो चुका हूं।"
"मैं नहीं जानती थी कि इस कम्पनी के मालिक तुम हो। अन्यथा मैं नहीं आती।"
"चिंता मत करो। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। तुम्हारे भाग्य में जो था वो तुम्हे मिल गया, मेरे भाग्य में जो था वो मुझे मिला। इसमें न तुम्हारा दोष न मेरा। फिर शिकायत कैसी ?"
"तुमने शादी कर ली।"
कुछ रुककर रूनझुन ने पूछा