सपूत का कपूत
सपूत का कपूत
एक देहात में अल्प भू-धारक किसान था। उसके परिवार में तीन लड़कियां और एक लड़का था। परिवार बड़े होने के कारण दोनों पति-पत्नी अपने खेत के अलावा अन्य बड़े किसानों के खेत में ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर करके कार्य करते थे। कड़ी मेहनत और रात-दिन एड़ियां रगड़ने के बावजूद मुश्किल से परिवार का गुजारा कर पाते थे। एक-एक बूँद से जैसे घड़ा भर जाता हैं। वैसे ही मेहनत के गाढ़ी कमाई से कुछ पैसे बचाकर बच्चों को स्कूल पढ़ने भेजा करते थे। उन्हें समझ में आया था कि इस गरीबी के दल-दल से अगर निकलना हैं। तो बच्चों को पढ़ना जरूरी है। शिक्षा ही शेरणी के दूध का काम करेगी। अन्य परिवारों की तरह उन्होंने अपने बच्चों का बाल-मजदूरी करने में समय जाया नहीं किया था। उसके लड़के ने शालांत परीक्षा पास कर ली थी। उसे अपने परिवार की खस्ता माली हालत की अच्छी समझ हो चुकी थी। उच्च शिक्षा के मोह को छोड़ के, उसने ड्राफ्टमॅन और टाईपिंग की परिक्षायें अच्छे अंको से पास कर ली थी। उसकी कड़ी मेहनत और सकारात्मक सोच ने उसके भाग्य के द्वार खोल दिए थे। उसे तुरंत राज्य सरकार के लोक निर्माण विभाग में लिपिक के पद पर स्थाई नियुक्ति मिली थी।
अभी परिवार में बुरे दिनों का अस्त हुआ था। माता-पिता अपने खेत में पहिले जैसे ही काम किया करते थे। अभी लड़का कमाने लगने से परिवार खेती में भी पैसा लगाकर अच्छी पैदावार ले रहे थे। परिवार अभी पैसा कमाने में व्यस्त हो गया था। सभी बहिनें आगे-पीछे शादी करने योग्य हो गई थी। लड़के ने संकल्प किया था कि सभी बहनों के हाथ पिले करने के बाद वो घोड़ी चढ़ेगा। परिवार में थोड़ी संपन्नता आ गई थी। लड़कियां भी सुंदर और लिखी पढ़ी होने से अच्छे रिश्ते आ रहे थे। परिवार ने बारी-बारी से सभी लड़कियों की अच्छे घरानों में शादी करवाई थी। इस कारण लड़के की शादी की उम्र बढ़ चुकी थी। इसलिए माता-पिता ने लड़के की शादी तुरंत करने की सोची थी। शादी होने के बाद लड़का थोड़ा सा आर्थिक दृष्टि से संपन्न हो रहा था। योजनानुसार उसने शहर में मुख्य बाजार के मुख्य रास्ते पर एक जमीन खरीदी थी। उसने उस पर एक अपना बड़ा निजी मकान बना लिया था। मकान बनाने की खुशी तब दुगनी हो गई थी। जब परिवार का दीपक का जन्म हुआ था। दादा-दादी खुश हुये थे। घराने का वंशज आने से उनके खुशी में चार चाँद लग चुके थे। कई पीढ़ियों बाद परिवार गरीबी की दल-दल से बाहर आया था। इसलिए पोते का अच्छे से घर में ठाट और दुलार हो रहा था। पोता मानो मुंह में चांदी के चम्मच के साथ पैदा हुआ हो !। बच्चा धीरे-धीरे सभी के लाड-प्यार के साथ बड़ा होने लगा था। उसके सभी बाल-हट्ट परिवार पूरा करने का प्रयास कर रहा था। लाडला अभी स्कूल जाने लगा था। लेकिन उसकी पढ़ने में शुरु से ही दिलचस्पी कम थी। परिवार वालों की सोच थी कि समय के साथ समझ बढ़ने पर वो अच्छा पढ लेगा !। लेकिन उनका अनुमान सही नहीं था। उसकी पढ़ाई करने में कभी रुची बढ़ी ही नहीं। फिर भी उसने लड़खड़ाते हुये परिवार के सतर्कता के कारण शालांत परीक्षा को औने-पौने अंको से पास कर लिया था। मात-पिता को अभी भी उम्मीद थी कि आगे चल के वो अच्छी पढ़ाई कर लेगा !। वे उसे आगे पढ़ने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे थे। लेकिन वो आगे पढ़ने के लिए मना कर रहा था। लाडले के हट बाजी के सामने माता-पिता ने अपने हथियार डाल दिए थे।
बच्चा आगे पढ़ना नहीं चाहता था। इसलिए पिता ने कुछ निजी कंपनीयों में उसके रोजगार का जुगाड़ किया था। लेकिन वो कुछ ही दिनों में वहाँ से पलायन कर लेता था। मेहनत करने में उसे परहेज था। कई नौकरियां आजमाने के बाद उसने नौकरी न करने का अपना मानस बना लिया था। गंभीर परिस्थिति का आकलन करने के बाद पिता ने प्रयास करके उसे घर में ही एक डेली-नीड्स की दुकान खोल दी थी। लेकिन वो उस दुकान में भी रुची नहीं ले रहा था। अभी मात-पिता और रिश्तेदारों ने एक रॉय बनी थी कि जब तक इस पर जिम्मेदारियों का बोझ नहीं पड़ेगा, तब तक ये ऐसा ही निकम्मा ही रहेगा !। पिता ने उसकी शादी बड़े धूम धाम, बैंड बाजे के साथ एक बारहवीं पास लड़की के साथ कर दी थी। लेकिन
जैसे सबको उम्मीद थी। वैसा नतीजा सामने नहीं आया था। खरबूजे के साथ तरबूजा भी रंग बदलने लगा था। दुल्हन भी उसी की तरह आलसी निकली थी। समय बिताने के लिए उसने उसे शिक्षिका बनना हैं ऐसी रट लगाई थी। ससुरजी ने प्रयास करके उसे बि.एड में प्रवेश दिलाया था। बड़े मुश्किल से उसने उस प्रशिक्षण को पूरा किया था। उसे कहीं कोई शिक्षिका की जॉब नहीं मिली थी। लेकिन उसने एक सुंदर लड़के को जन्म दिया था। दादा-दादी ने घर के चिराग का तहे दिल से सम्मान किया था। उसका नामकरण विधि बड़े धूम –धाम से मनाया गया था।
धीरे-धीरे बहू-बेटा अपने इरादे पूरे करने के चक्कर में लगे थे। सब से पहिले उन्हें पोते के खर्चे-पानी के लिए पैसा चाहिए करके किराएदारों से आनेवाला किराया लेने लगे थे। पोते के चाहत के कारण सांस-ससुर ने उनकी बात मान ली थी। बच्चा जैसे –जैसे बड़ा होने लगा उसका और स्वयं उनका खर्चा बढ़ने लगा था। खुद कुछ करने के अलावा वे बिना मेहनत किए अन्य विकल्प पर माथापच्ची कर रहे थे। बेटे और बहु ने सांस-ससुर के सामने एक प्रस्ताव रखा था। जिस में उन्होंने शहर के बिचो बीच मुख्य राह पर स्थित मकान की कीमत अच्छी मिल रही थी। उसे बेचकर प्राप्त धन से शहर के बाहर जमीन लेकर मकान बनाने का प्रस्ताव रखा था। बचे हुये धन का मामूली हिस्सा माता-पिता रखेंगे क्योंकि उन्हें सेवानिवृत्ति वेतन तो मिल रहा था। और बचे धन को मियादी जमा में वे अपने नाम पर रखेंगे। उससे प्राप्त नियमित ब्याज पर वे अपना परिवार पालेंगे !। अंडे सेवे कोई, बच्चे लेवे कोई। आखिर में माता-पिता अपने पुत्र-प्रेम और नन्हे से पोते को देखते हुये उनके उस प्रस्ताव पर राजी हो गये थे। योजनानुसार उस मकान को बेच दिया गया था। पूरा परिवार अभी किराये के मकान में रहने लगा था।
जैसे ही उनका नया मकान बना था। वैसे ही बेटा-बहु अपने बेटे के साथ मात-पिता को वही छोड़ कर रहने लगे थे। इतना होने के बाद भी मात-पिता खुश थे कि उनका पुत्र परिवार के साथ खुशहाल हैं। उसी में उनकी खुशी थी। उम्रदराज होने से उनका स्कूटर चलाते समय एक दो बार अपघात हो गया था। एक अपघात में उनके पैर के हड्डी में काफी गहरी चोट लगी थी। एक बड़ा हड्डी का आपरेशन करना पड़ा था। जिसके कारण कई माह तक उन्हें बेड रेस्ट लेना पड़ा था। पता चलने पर भी पैसा खर्चा करना पड़ेगा इस डर से वे अपने पिता को देखने तक नहीं आये थे। हिम्मत रखने वालों का साथ हमेशा दैव देता हैं। उस परिस्थिति का मुकाबला करते हुये वे दोनों सामान्य जिंदगी जी रहे थे। ऊँट कब किधर करवट लेगा ये कभी कोई बता नहीं सकता। बेटे के परिवार में अचानक खर्चे में महंगाई के कारण बढ़ोतरी होने लगी थी। जैसे स्कूल का खर्चा, बिजली-पाणी का बिल, घर-कर और अन्य फुटकर खर्चे इत्यादि। उधर घटते ब्याज की दर के कारण घटती आमदानी की वजह से बेटे के घर में वातावरण बिगड़ता चला गया था। अभी मियां-बिबी में टेड निर्माण हो गई थी। फिर पति-पत्नी ने गन्ना मिठा लगता हैं। इसलिए उसे जड के साथ खाने का मन बना लिया था। फिर दोनों मात-पिता के पास चले गये थे। उनके सामने प्रस्ताव रखा की अभी आपकी उम्र हो गई हैं। यहाँ आपका कोई ध्यान रखने वाला नहीं हैं। आप अपने पौते के साथ रहो !। वो तुम्हे बहुंत याद करता हैं। अभी उनकी परिस्थिति, इधर कुआँ, उधर खाई जैसी हो गई थी। आखिर में सूखे तालाब के झरने जो लग-भग सूख गये थे। फिर से पुनर्जीवित हो उठे थे। पूरा परिवार अभी एकत्र रहने लगा था।
पिता अपनी संपूर्ण सेवानिवृत्ती वेतन बेटे को बिना कुछ कहे देने लगा था। अपने अनुभव से उनके इरादों को नाप लिया था। अगर भगवान बुद्ध के विचारों पे चल कर बेटे का मुक्तिदाता न बनकर अच्छा मार्ग दाता बनता और उसे स्वावलंबी बनाने में प्रयास करते !। तो उन्हें ये पीड़ा झेलनी नहीं पड़ती । अभी उनके जाने के बाद अपने बेटे और उसके परिवार की चिंता उन्हें नहीं होती। वो बड़े खुशी से इस दुनिया को समर्पण के साथ अलविदा कह सकते थे !।लेकिन पुत्र मोह के कारण सुपुत्र पे भारी कुपुत्र निकला था।
