स्पर्श सुख
स्पर्श सुख
आज प्रभा की नींद बेटी की सिसकियों से ही खुली,वो नींद में कोई सपना देखते देखते ही रो रही थी।
"क्या हुआ अंजू?कोई डरावना सपना देखा!"कहते हुए उसने उसे गद्दे से उठाकर सीने से लगा लिया और अपने पास ही प्यार से सुला लिया।मम्मी की अपनी प्यारी बच्ची से किये गए इन प्रश्नो की आवाज़ से पापा राजेश की नींद भी खुल चुकी थी।
सब कुछ बड़ा अप्रत्याशित लग रहा था।उठने के बाद भी वो सिर्फ रोये चली जा रही थी।स्वप्न में घटित घटना का एकदम से विवरण प्रस्तुत नहीं कर पा रही थी।
सयानी होने के बाद तो वो अपने रूम में सोने लगी थी परंतु भीषण गर्मी की रातों में वो अपना गद्दा इसी ऐसी रूम में जमीन पर डालकर सो जाती थी।
राजेश को भी बड़ा अजीब लगा क्योकि जब से वो बड़ी हो गयी है,वो बचपने वाला टॉफी और खिलोनो के लिए मचल कर रोना तो जैसे भूल ही चुकी थी।जरा सी तो थी,कब पंद्रह साल की हो गयी,पता ही नहीं चला और इतनी बड़ी भी हो गयी।मन फिर उसकी बाल लीलाओं में कहीं खो सा गया,जब वो उसकी ज़िद के लिए पहले थोड़ी देर उसे तरसाता था फिर दे देता था जैसे वॉकमैन सुनने की ज़िद,कंपनी की तरफ से आयी हुई डॉक्टर्स को देने वाली गिफ्ट्स और न जाने क्या क्या,सब कुछ उसे चाहिए था।खूब रोने मचलने के बाद मनचाही चीज़ मिल जाने पर चेहरे की भाव भंगिमाएं इतनी तेजी से बदलती थी मगर आँसुओं का क्या वो तो लुढक पड़े तो इतनी जल्दी नहीं सूखेंगें ।स्ट्राबेरी जेली जैसे हिलते गालों पर आँसुओं वाला तृप्त चेहरा बन जाता था।जब तक बोलना नहीं सीखा था मम्मी पापा के बीच में पड़ी वो नन्ही सी जान पापा की सीटी से आकर्षित हो टुकुर टुकुर देखती थी।राजेश भी प्रभा की देखा देखी "मेरे घर आयी एक नन्ही परी"वाली धुन सीटी में निकालता था।प्यार की इस बाज़ी में मम्मी ही जीतती थी क्योंकि भूख लगने पर स्तनों की खोज उसे उस और ही ले जाती।"होगा कोई बीच,तो हम तुम और बंधेंगे"वाली बात साक्षात् दिख रही थी परंतु दोनों की तरफ से उसका प्यार पाने की एक होड़ भी थी।आश्चर्य है कि इतने सरल शब्दों में इतनी बड़ी बात गोपाल दास नीरज जी ने कह दी जो स्वयं अविवाहित ही रहे।
पाँव लेने पर एक बार फिर बाज़ी पलट चुकी थी।बाहरी दुनिया देखने का आकर्षण फिर उसे पापा के निकट ले आया था।कब पापा ने शर्ट डाली,चप्पल पहनी,बाइक की चाबी उठाई,इन गतिविधियों पर उसकी पैनी निगाह रहती थी।राजेश उससे नज़रे बचाकर जब कभी अकेले निकल जाता था तो पीछे से रोने की आवाज़ आती थी और वो बाइक वापस मोड़ लेता था।पापा के शेविंग करते वख्त निकल आया ज़रा सा खून भी उसके लिए कोतूहल और डर का विषय हुआ करता था।वो सहम कर सूचित करती "पापा,खून निकल आया।अब मैं बनाऊँगी।"शेविंग क्रीम के गाढ़े झाग को आहिस्ते से रेजर से हटाने में उसे कितना मज़ा आता था।
आज भी राजेश वो स्पर्श वापस चाहता है जब गोदी में उठाने पर नरम पुट्ठे उसके हाथों में धस जाते थे,वो नर्म नाज़ुक अहसास भी कुछ दिनों का ही मेहमान था।हर अदाएं तो मम्मी की ही थी।चोरी छुपे मम्मी की महँगी लिपस्टिक निकाल कर लगाने के दौरान पकडे जाने पर सरपट दौड़ते हुए आती थी और पापा की गोद में चढ़ जाती थी।राजेश भी उसको बचाते हुए गर्व से कहता था "इस तक पहुँचने के लिए पहले मेरी लाश पर से गुजरना पड़ेगा।"और उसे एक सुरक्षा कवच का अहसास दिलाता था।
बाइक की टंकी और उसके बीच की जगह बच्ची के लिए सुरक्षित थी।इसी पर बैठकर वो नई नई दुनिया का टाइटैनिक व्यू लिया करती थी।पान की दुकान पर एक बार हेमा मालिनी क्या खिला दी,अगली बार मांग तैयार थी "हे मालिनी दो",एक अक्षर खा गयी लेकिन अपनी चाह दर्शा दी।हेमा मालिनी से ये उसका पहला परिचय था।बैंक भी साथ जाने के कारण वो एक बात समझी थी कि ये वो जादुई जगह है जहाँ से पैसे मिल जाते हैं और मम्मी पापा के साथ साथ उसकी भी सभी ख्वाहिशें पूरी हो जाती हैं।इसलिए जब एक बार महंगा खिलौना अफ़्फोर्ड नहीं कर पाये थे और मम्मी ने अपनी मज़बूरी प्रकट की थी कि "अभी पैसे नहीं हैं"तो उसने पूरे आत्मविश्वास से आदेश दिया था "बैंक से निकालो।"अब उसे कैसे समझाते कि जमा भी तो हमें ही करना पड़ता है।
सिटकनी तक हाथ नहीं पहुचने के बावज़ूद ज़िद रहती थी कि पापा के काम से लौटने पर दरवाज़ा वही खोलेगी।व्हिस्की को पापा की दवाई बताना भी उस रोज़ महंगा पड़ गया था जब दीदी के रिश्तेदार घर में ही पेग लगा रहे थे।उसने एक मिनट देखा और भरी सभा में एलान कर दिया "ये वाली दवाई तो हमारे पापा भी पीते हैं।"राजेश और प्रभा अगले बगले झाँकने लगे थे।
ज़िन्दगी की फ्लिप ओवर बुक में अगर देखा जाये तो बचपन में "पापा मुझे गोद में ले लो"कहने वाली बच्ची का स्पर्श समय के साथ धीरे धीरे पापा से कम होता गया लेकिन मम्मी से बना रहा।
प्रभा ने एक बार झिड़का भी था "इतनी बड़ी होकर भी पापा से चिपकती है।"
अब पापा उसे चिपकाने की कोशिश भी करते तो झिड़क देती थी "पापा आपकी मूंछे गड़ती हैं,बगल से पसीने की बास आती है।कैसे फावड़े जैसे हाथ हैं!मुझे दर्द होता है।"प्रभा अब गर्व से राजेश को दिखाते हुए उसे चिपकाती और कहती "ये देखो मेरे लाड़ की बच्ची है,मुझसे चिपकती है,तुमसे नहीं।"और माँ बेटी पापा को चिढ़ा कर खूब हँसती।
वैसे प्रभा राजेश को इस बात का भान करवा चुकी थी कि" लड़की अब बड़ी हो गयी है,तुम्हारा ये चिपका कर प्यार करना ठीक नहीं,कहीं इधर उधर हाथ लग गया तो,वो कंफरटेबल फील नहीं करती।"फिर भी राजेश के अंदर मौजूद पिता का प्यार कभी कभी मचल उठता था।"बड़ी हो गयी है तो क्या हुआ!पापा के लिए तो बच्ची ही रहेगी।बचपन में कैसे मुझसे कुश्ती लड़ती थी और चड्डी में ही मेरे ऊपर चढ़ जाती थी,मैं हार जाता था और वो खुश हो जाती थी।"
पुरानी यादों से तंत्रा टूटी तो देखा अब वो गुमसुम पड़ी धीरे धीरे सामान्य हो रही है।कोई दुबका सा बैठ गया था।मम्मी ने फिर पूछा "बता तो ऐसा क्या देख लिया? अंततः वो फूट पड़ी "पापा को किसी ने गोली मार दी,पापा की किसी से लड़ाई हो रही थी और उसने गोली चला दी।"
न जाने क्यों किसी टी.वी.सीरियल देखने का असर था या अवचेतन में पनपती असुरक्षा का भाव,पिता को खो देने का डर स्वप्न में भी इतना भयावह था कि आँख खुल जाने पर उनको जीवित देख लेने के पश्चात् भी सामान्य होने में वख्त लगा।
अचानक वो मम्मी के पास से बिस्तर पर लुढ़ककर पापा के पास आ गयी और उकड़ू होकर उनसे लिपट गयी।राजेश की दोनों बाँहों ने उसे प्यार से आग़ोश में ले लिया था जैसे पूरे संसार को बाँध लिया हो।आज अरसे बाद वो फिर वही स्पर्श सुख अनुभव कर रहा था।