नानीजी का घर: किस्से दर किस्से

नानीजी का घर: किस्से दर किस्से

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नानीजी का घर यानी बाई-पिताजी का घर। ये संबोधन रिश्तों के हिसाब-किताब से नहीं बल्कि जो जिस नाम से सर्वाधिक सदस्यों द्वारा कुनबे में पुकारा जाता था वही हो जाता था। जैसे नानीजी की भी मम्मी यानी मेरी परनानी को सब भाभी बोलते थे क्योंकि उनके देवर उन्हें भाभी बोलते थे। मम्मी और पाँचो मामाजी द्वारा यही बाई-पिताजी संबोधन प्रयुक्त होता था जबकि हम भाई-बहन अपने पिताजी को बापाजी बोलते थे क्योंकि कभी मुम्बई के गुजराती बहुल इलाके भूलेश्वर में रहने के कारण वही बोलने की आदत पड़ गयी थी ऐसा मम्मी ने बताया था।

भारत की आर्थिक राजधानी बम्बई जो अब मुम्बई हो चुकी है की जलवायु मम्मी को रास नहीं आयी और मन हमेशा अपनी माँ के पास वापस भोपाल आने को ही तरसता रहा।उनकी ज़िद के आगे अन्तोगत्वा हमारे क्रोधी मगर संवेदनशील बापाजी पंडित विनोद चंद्र शास्त्री ने भी समर्पण कर दिया था।

संस्मरण में ही इसे किस्सागोई कह सकते हैं। हालांकि किस्से सच्चे-झूठे हो सकते हैं परंतु यहाँ ये किस्से इस मायने में हैं कि यह मैंने मम्मी और मामाजी के मुँह से सुने हुए हैं। मम्मी ने ही बापाजी के चिढ़चिढ़े स्वभाव के पीछे के कारण का समर्थन करते हुए बताया था कि "बापाजी जब सौलह साल के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। माँ एक बहन और दो विधवा चाचियों की जिम्मेदारी एकदम से उनके ऊपर आ गयी थी इसलिए ऐसे हो गए हैं। "बापाजी और गुड्डी जीजी को कभी आपस मे बात करते हुए भी नहीं देखा था, उसके बारे में भी मम्मी ने ही बापाजी का ही समर्थन करते हुए बताया था कि "इनको कोई पलटकर जवाब दे दे तो कतई बर्दाश्त नहीं करते, गुड्डी ने इनको जवाब दे दिया था, उसके बाद से इन्होंने बात ही नहीं की।"

उजले ललाट व तीखे नैन नक्श वाले मेरे दादाजी प्रकांड पंडित रामचंद्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य थे जो बम्बई के बड़े बड़े उद्योगपतियों को घुड़दौड़ में जीतने वाले घोड़े का सही-सही नंबर भी बता देते थे। दीवाल पर फ्रेम में लटकी उनकी पुरानी फोटो देखने बाद भी मुझे वह सुन्दर, तेजस्वी लगे थे जबकि दादीजी की दाँत बाहर निकली हुई फ़ोटो थी। स्टोव में ज्यादा हवा भर दी और स्टोव फट गया था जिससे झुलस कर दादाजी की दरनाक मृत्यु हो गयी थी ये किस्सा भी मम्मी ने ही सुनाया था।

 जन्मने के बाद जब से हम होश संभालते हैं, हमारी यादें प्रायः वहीं तक जाती हैं। किस्से हमे उससे भी पीछे ले जाते हैं। इतिहास में तो राजा महाराजाओं की कहानियाँ होती हैं परंतु किस्सों की एक अलग ही दुनिया है। इनको भले ही इतिहास का हिस्सा न माना जाए पर ये हमें अपने गुजरे हुए समय, परिजनों व सामान्यजन के बारे में उत्सुकता और रोचकता से बताते हैं, हँसाते हैं, रुलाते हैं, गुदगुदाते हैं।

साठ का दशक खत्म होते ही भोपाल में बसने के सपने देखे जाने लगे थे। बापाजी द्वारा मम्मी के साथ हमे कुछ समय के लिए नानीजी के घर छोड़ दिया गया था और नया घर खरीदने के लिए पैसों का इंतज़ाम करने के लिए वह वापस मुम्बई चले गए थे।

      बाई-पिताजी का चौक वाला घर:

भोपाल के केंद्र में चोक स्थित जामा मस्जिद के पास वाला नानीजी का घर समस्त सामाजिक,पारिवारिक,राजनीतिक, बुद्धिजीवी गतिविधियों का केंद्र भी था। अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदारों का आना-जाना लगा रहता था। हालांकि पिताजी उस वक्त तक रिटायर हो चुके थे परंतु उसके बाद वो सामाजिक कार्यों व साहित्यिक, धार्मिक लेखन में और अधिक सक्रिय हो गए थे।

नानाजी ईश नारायण जोशी जी नवाबी रियासत के धर्मशास्त्री भी रह चुके थे फिर भारत विभाजन के बाद डिस्पोसेबल अफसर बनाया गया था जो नायाब तहसीलदार जैसा पद था।बैरागढ़ में शरणार्थियों को बसाने का व उन्हें जमीन आवंटित करने का जिम्मा उन्हीं का था। भारत की तमाम विरासतों के भारत मे विलय के बाद भी 1949 तक भोपाल एक अलग रियासत बनी रही थी तब भोपाल की जनता द्वारा ही विलीनीकरण आंदोलन खड़ा करके विलय करवाया था। इस संबंध में भी एक रोचक किस्सा है जिसका उल्लेख राजेश जोशी जी ने 'किस्सा कोताह' में किया है। मैं भी जिक्र करना चाहता हूँ। हुआ यूँ की जब विलीनीकरण आंदोलन के सभी पुरुष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया तो आंदोलन की बागडोर महिलाओं ने संभाल ली।उस ज़माने में महिला पुलिस तो होती नहीं थी तो शहर एवं शहर से बाहर की तमाम वेश्याओं को वर्दी पहनाकर नवाब की पुलिस में शामिल किया गया था और महिला नेताओं को संभालने का जिम्मा दिया गया।रसिकों व अन्य लोगों ने उन्हें पहचान लिया और नवाब की किरकिरी होने के बाद उन्हें भी हटाना पड़ा।खैर राजेश मामाजी ने तो इस किस्से में कोई संवाद नहीं डालें हैं मगर ज़रा सोचिए क्या संवाद रहे होंगे-"अरे जोहरा बाई!तुम कबसे पुलिस में आ गईं,अब हमारा क्या होगा जानेमन।" "अरे गुलफाम कली भी पुलिसवाली बन गयी।" किसी ने कलाई पकड़कर कहा होगा "आजा रानी गली में आजा।"

तब तक सरदार वल्लभ भाई पटेल भी गुजर चुके थे।1949 में विलीनीकरण के बाद पिताजी ट्रेज़री डिपार्टमेंट में आ गए थे।नीचे दुकानें थी और एक जीना चढ़कर दरवाज़ा उनकी बैठक में ही खुलता था जो ड्राइंग रूम था जिसमे एक कालीन बिछा हुआ था एवं किताबों की अलमारी थी।दीवारें भी आले वाली थीं जिनमे कोई चीज़ जैसे मोमबत्ती,पानदान वगेरह रख सकते थे।बाई के पास एक पानदान हुआ करता था जिसमे कत्था,चूना,सरोता, सुपारी,पान रहा करते थे।भोजन के बाद बाई का ये पिटारा खुल जाता था।

        जूते-चप्पलों का किस्सा

पिताजी से मिलने तमाम आलिम-फ़ाज़िल लोग चप्पल जूते देहरी पर उतारकर आते थे।जब वे लोग चर्चा में मशगूल हो जाते तो मैं चुपके से उनके जूते-चप्पल उठाकर गैलरी से बाहर सड़क पर फेंक देता था।कुछ दुकानदारों के बोर्ड के पीछे टिन पर भी गिर जाते थे।

जाते समय जब बुद्धिजीवियों को अपने जूते चप्पल नदारद मिलते तो नानाजी से शिकायती लहजे में बोलते "जोशी जी,यहीं उतारे थे,अब नहीं मिल रहे हैं।"नानाजी नाक पर शल डालते हुए हुए फरमाते की "अरे वो बेबी के लड़के ने फेंक दिए होंगे।"मम्मी के घर का नाम बेबी ही था।सफेद झक्क स्त्री की हुई शेरवानी और चूड़ीदार पायजामा पहने कुछ मुस्लिम विद्वान भी अपनी छड़ी लहराते हुए कहते "ओहो,लाहौल-विला-कुवत,ये कमबख्त मेरी जूतियाँ कहाँ गयी।"नानाजी जहाँ धर्मनिरपेक्ष कांग्रेसी थे तो इन चप्पल-जूतों के मामले में मैं भी बचपन से ही बिल्कुल धर्मनिरपेक्ष था।किसी की भी हों अपन कोई भेदभाव नहीं रखते थे।

हालाँकि बाद में नीचे के दुकानदार बता देते थे कि "भाई जान,इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए,एक यहाँ गिरा,एक वहाँ गिरा।"इस शैतानी पर बाद में नानीजी द्वारा मेरे कान खींचे जाते थे।'गोपी' फ़िल्म देख लेने के बाद गुड्डू मामाजी ने मुझे दिलीप कुमार का एक संवाद याद करवा दिया था कि "अरे हनुमान जी के कान खीँचती हो!" मैं भी बाई को वही संवाद चेप दिया करता था और इसे बाल-लीला समझकर माफ कर दिया जाता था।

वो जूते-चप्पल मैं क्यों फेंक देता था इसका आज भी मेरे पास कोई जवाब नहीं है।हम तो दुनिया मे नए-नए आये थे तो देखा कि दुनिया तो बड़ों की ही है।हमारी उम्र और आकार देखकर हमे एक तुच्छ प्राणी समझकर तमाम बहस-मुहाबिसे से दरकिनार कर दिया जाना मुझे बड़ा नागवार गुजरता था।ऐसा लगता था कि हम बच्चे बहुत उपेक्षित हैं।हमें भी बराबरी का अधिकार दिया जाना चाहिए।शायद कोई मनोवैज्ञानिक ग्रंथी बन गयी थी।जूते चप्पलों की तो वापसी हो जाती थी परंतु बाई के घर के बिचारे बर्तन सब दुचा गए थे।अपनी एक हमउम्र लड़की को गाल पर काट भी लिया था और अहंकारी न होते हुए भी बिचारी को देवदास की पारो की तरह ताउम्र के लिए एक निशान दे दिया था।

ड्राइंग रूम यानी बैठक से अंदर जाने पर एक बड़ा सा कमरा और था जिसे लिविंग रूम कह सकते हैं क्योंकि पारिवारिक सदस्यों व बाहर से आनेवाले तमाम नाते-रिश्तेदारों की धमाचौकड़ी इसी कमरे में होती थी जिसमे तख्त कुर्सी लगे हुए थे।लकड़ी का एक स्टैंड था जिस पर रेडियो रखा हुआ था।वहाँ तक मेरा हाथ नहीं पहुँचता था।उस पर गुड्डू मामाजी बिनाका गीतमाला और विविध भारती सुनते थे और पिताजी के आदेश पर समाचार लगा देते थे।इसी कमरे में एक दोपहर जब मम्मी तख्त पर सो रहीं थी तो नर्सिंगढ़ से बिचले मामाजी आये उन्होंने पेपर का एक टुकड़ा फाड़कर उसकी पुंगी बनाई और सोती हुई मम्मी के नाक में घुसेड़ कर तख्त के नीचे छुप गए।"कौन है"कहकर मम्मी हड़बड़ाकर उठ बैठीं। सामने मैं खड़ा हुआ था।फिर वह हँसते हुए निकले और मम्मी को गले लगा लिया।

       भाई-भाई

लखेरापुरा में श्रीजी के मंदिर के पास दो भाई रवि और सुरेश एक ही घर के दो अलग-अलग हिस्सों में रहते थे।उनके घर के बाहर एक गली थी जो बाजार में लखेरापुरा रोड पर निकलती थी जिसमे एक दुकान पर बड़ा सा घूमने वाला चक्का लगा हुआ था जिस पर चक्कू-छुरियाँ,कैंचियाँ तेज करवाई जाती थीं।

वह दोनो भाई अक्सर घर आते थे पर कभी साथ मे नहीं आते थे।अगर एक बार रवि जी मिलने आते थे तो कुछ दिनों में सुरेश जी के भी दर्शन हो जाते थे।इस तरह उनका आना क्रमशः क्रमशः होता था।मिलने-जुलने के अलावा उनके आने का मुख्य उद्देश्य यह जानना भी होता था कि मेरा सगा भाई मेरे बारे में क्या-क्या उल्टी-सीधी पढ़ाकर गया है।दोनो में ऐसा छत्तीस का आंकड़ा था कि दोनों बाई के सामने अपना-अपना पक्ष रखते थे और भाई की कही गयी बात को मनगढ़ंत गलत ठहराते थे इस तरह बाई को उनके परिवार की सब अंदरूनी बातें पता पड़ जाती थीं।बाई-पिताजी मम्मी को सुनिश्चित हो जाता था कि अगर आज रवि आया है तो दो-तीन दिन में सुरेश भी आता ही होगा।मेरी छोटी बहन का नाम सीपी था तो अक्सर सुरेश जी उसे चिढ़ाते हुए बोलते थे कि "सीपी को शिप बनाकर पानी मे तैरा देंगे।"व्यक्ति की आर्थिक स्थिति से ज्यादा महत्वपूर्ण उसकी सामाजिक छवि होती थी।दोनो ही भाइयों को यह लगता था कि मेरा सगा भाई ही मेरी सामाजिक छवि मटियामेट करने की कोशिश कर रहा है।

रवि जी पुलिस में थे और अक्सर ससपेंड भी रहते थे जबकि सुरेश भेल कारखाने में काम करते थे इसलिए बाई-पिताजी,मम्मी ने मोटा-मोटा अनुमान लगा लिया था कि बड़ा रवि जो अत्यंत व्यवहारकुशल,हँसमुख है वह भ्रष्ट,कामचोर और झूटा है जबकि छोटा गंभीर सुरेश कर्मठ,ईमानदार व सच्चा है।कुछ भी हो मगर मिलनसारिता के मामले में कोई पीछे नहीं था और घर मे एक जीवंत माहौल बना रहता था।

            कोक सिंह

चाहे कोई सी भी ऋतु हो पिताजी (नानाजी)के ट्रेज़री डिपार्टमेंट के एक अर्दली जो पिताजी के पिताजी के भी अर्दली रह चुके थे कोक सिंह अक्सर पुराना मोटा सा कोट पहनकर आते थे।वह हमेशा धूजते रहते थे और धूजते-धूजते ही ज़मीन पर उकड़ू बैठकर पिताजी को "हुज़ूर"कहकर संबोधित किया करते थे।कोक सिंह की पत्नी जिनकी शक्ल कुछ कुछ बंदरिया जैसी थी बाई के साथ बैठकर गेहूँ बिनवा दिया करती थीं।उनके साथ कभी-कभी उनका बेटा हरिसिंह भी आता था जो मेरी बड़ी बहन गुड्डी जीजी के हमउम्र था।तो गुड्डी जीजी की ओर से भी एक किस्सा यूँ है कि उन्हें कोक सिंह की पत्नी ने जब बताया था कि "हमारे हरि सिंह को तो बीस तक पहाड़े आते हैं।"तो बिचारी गुड्डी जीजी काम्प्लेक्स में आ गईं थी कि "भई, हमे तो बारह तक ही आते हैं।" जब हरिसिंह आया तो उन्होंने सुनाने के लिए कहा।हरिसिंह ने सुनाया और दोई धाम बीस पर जब अंत किया तो उनकी माँ हरिसिंह की बलैयां लेती हुई गर्व के साथ बोल पड़ी "देखो मैंने कई नई थी कि हमारे हरिसिंह को तो बीस तक आते हैं।"हरिसिंह शरमाकर माँ से लिपट गया और गुड्डी जीजी ने "एं" करके टेढ़ा मुँह बनाया।

चौक के ही पास पीरगेट स्थित सक्सेना परिवार से भी पारिवारिक संबंध थे।उस परिवार से गुड्डू मामाजी के ही हमउम्र मुकेश सक्सेना एक बार शुद्ध घी लेकर आये थे उसके बाद दोनों अपने फिल्मी शौक के चलते जिगरी दोस्त बन गए थे।गुड्डू मामाजी जहाँ राजेश खन्ना के दीवाने थे तो वह धर्मेंद्र के फैन थे।दुबले पतले गुड्डू मामाजी के विपरीत वह धर्मेंद्र की ही तरह हट्टे-कट्टे थे।आज भी वो बोलते हैं कि हमारी दोस्ती शुद्ध घी से शुरू हुई थी इसलिए आज तक महक रही है।मुकेश जी के बड़े भाई तो पढ़े लिखे थे और बैंक में कार्यरत थे परंतु वह आठवीं से आगे नहीं पढ़ पाए फिर भी शिक्षा को लेकर इस दोस्ती में बाल बराबर भी फर्क नहीं आया।

मेरी बड़ी बहन गुड्डी जीजी न सिर्फ मुझसे बारह वर्ष बड़ी थी बल्कि सबसे छोटे गुड्डू मामाजी से भी एक वर्ष बड़ी थीं।इस मामले में भी एक किस्सा है जो बाद में मम्मी के श्रीमुख से ही निकला था कि "यह बात गुप्त रखी गयी थी,मैं बम्बई में थी तो मुझे नहीं बताया गया कि गुड्डू पैदा होने वाला है और बाई को होनेवाला है।यानी मेरा भाई पैदा होनेवाला है और मुझे ही नहीं पता था।"

गुड्डू मामाजी के अन्य चार बड़े भाइयों के अलग अलग जगह नौकरी से लग जाने के परिणामस्वरूप व उम्र के फासले ने उस वक्त तक उन्हें ही घर मे माता पिता के साथ रहने वाले एकमात्र पुत्र के रूप में छोड़ा था।उनसे बड़े राजेश जोशी स्टेट बैंक में क्लर्क हो गए थे,उनसे भी बड़े बब्बू मामाजी उर्फ योगेश जोशी सब इंजीनिअर थे,उनसे बड़े शिशु मामाजी उर्फ देवेश जोशी सिविल जज बन गए थे और उनसे भी बड़े यानी सबसे बड़े राजा मामाजी उर्फ उमेश जोशी भी इंजीनिअर बनके कहीं पदस्त थे।पिताजी की तरह ही तीन मामाजी तो ऊँचे कद के रहे,बब्बू मामाजी मध्यम कद के रहे सिर्फ शिशु मामाजी नाटे कद के रह गए थे जो बाई पर गए थे।सर बड़ा सरदार का बोलते हैं मगर यहाँ पाँचो मामाजी ओं में उनका सर बहुत बड़ा था।विवाह पूर्व जब बापाजी मम्मी को देखने आए थे तो सबसे पहले शिशु मामाजी ही उनके सामने पड़े थे जिसकी हँसी उड़ाते हुए बापाजी मम्मी को बोलते थे "वो तुम्हारा बड़ा सर वाला भाई ही सबसे पहले दिखा था।"पांचों मामाजी और मम्मी की आँखे ऑय बॉल में से थोड़ी बाहर निकली हुई थीं जिसे इंग्लिश में प्रोट्यूडिंग आय कहा जाता है जैसे गाय, बछड़ों की होती हैं।अगर इनपर चश्मा लग जाये तो और बड़ी दिखती हैं।स्वभाव अगर शांत हो तो बड़ी-बड़ी आँखें भी भयभीत नहीं करती जबकि दूसरी और बापाजी के उग्र,क्रोधी स्वभाव के कारण वह आँख दिखाकर ही डरा दिया करते थे और वह चाहते भी थे कि हमारी आँखों से ही डरकर हमारी आज्ञा का पालन किया जाए।पिताजी के तीखे नैन नक्श थे और नाक लंबी थी जबकि बाई के गोल चेहरे में नाक मोटी पहिया फिरी हुई थी और वैसी ही नाक अनुवांशिक रूप में मम्मी की भी आ गयी थी।बापाजी इसे पहिया फिरी हुई नाक कहते थे।मम्मी नई या स्त्री की हुई साड़ी पहनकर चलते समय दोनो हाथ कोहनियों से मोड़कर ऊपर कर लेती थी।ऐसा करने पर बापाजी को बहुत क्रोध आता था और वो उन्हें मोड़कर वापस नीचे करके चिढ़ते हुए कहते थे "कहाँ उठाकर ले जा रहीं हो हाथों को यहीं रहने दो,यहीं रहेंगे।"

मम्मी का विवाह चौदह वर्ष की आयु में ही हो गया था।एक वर्ष बाद गुड्डी जीजी हो गयी थी परंतु उसके बारह वर्षों तक कोई संतान नहीं हुई तब मुझे इक्कावन हज़ार या सवा लाख बिलपत्री चढ़ाकर बाकायदा शंकर भगवान को प्रसन्न करके मुझे इस धरती लोक पर ससम्मान आमंत्रित किया गया था।मम्मी भी यह किस्सा कुछ ऐसे सुनाती थी जैसे इसमे शत-प्रतिशत सब कुछ शंकर भगवान का ही किया धरा है,बापाजी की तो कोई भूमिका ही न हो।इस तरह मेरे जन्म को एक पौराणिक महत्व भी मिल गया था।मम्मी को लेडीज हॉस्पिटल ले गए थे पर उन्हें वापस घर भेज दिया गया था और फिर हुआ मैं चोक वाले घर की एक कोठरी में ही ।गुड्डू मामाजी ने थाली बजायी थी।बतौर गुड्डू मामाजी अब जाकर यह भी पता पड़ा है कि उस कोठरी का प्रयोग/दुरुपयोग पिताजी द्वारा किवाड़ लगाकर अन्य बड़े भाइयों की नाफार्मनियों पर उनकी पूजा-अर्चना (धुनाई)के लिए भी किया जाता था।इसमे वरिष्ठ कवि,साहित्यकार,रंगकर्मी राजेश जोशी जी का नाम भी शुमार है।शिशु मामाजी और बब्बू मामाजी ने भी स्वीकार किया है कि हमारी भी पिटाई हो चुकी है।बस राजा मामाजी ही राजा बेटे थे लेकिन एक बार उन्हें भी बिना बताए विलीनीकरण आंदोलन में चले जाने पर डाँट पड़ी थी।तो मेरा जन्म जब ऐसे यातना कक्ष में हुआ हो तो आगे जाकर मेरा पिटना पहले ही लिखा गया था।

हालाँकि आवारगी जवानी का सबसे प्रिय शगल होता है किंतु संस्कारी परिवारों के पिताओं के लिए अपने पुत्रों को लेकर यह सबसे बड़ी परेशानी का सबब होता था।आवारगी को ही बिगड़ना या असामाजिक गतिविधियों में शुमार कर लिया जाता है जबकि आवारगी सृजनात्मक,कलात्मक,आध्यात्मिक हो सकती है।राजेश जोशी जी द्वारा लिखित किस्सों की किताब 'किस्सा कोताह' में इस बात का खुलकर जिक्र किया गया है।अगर आप चाँद के रूबरू हो सड़कों पर नहीं निकले तो क्या किया!

          संतोष भाईसाहब

गुड्डू मामाजी,गुड्डी जीजी फिल्मों के जबरदस्त दीवाने थे।उन्हीं के साथ अब एक नाम और जुड़ गया था संतोष भाईसाहब जो मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे और अक्सर घर आ जाया करते थे।उनका व्यवहार हम बच्चों के साथ भी बहुत स्नेहपूर्ण था।मेडिकल स्टूडेंट की छवि मध्यमवर्गीय परिवार में कुछ सम्मानजनक होती थी जिन्हें अध्ययनशील समझा जाता था इसलिए उनके साथ फ़िल्म देखने जाने पर कुछ रियायत मिल जाती थी जबकि हकीकत यह थी कि वह तो इनसे भी बड़े फिल्मो के दीवाने थे और बहुत चटोरे भी थे।सिटी का कोई चाट का ठेला नहीं छोड़ा होगा और उनकी माँ उनसे भी बड़ी।जो फिल्में पिताजी द्वारा स्वीकृति से देखी जातीं थी और जिसमे पूरा परिवार जाता था उसके लिए कभी पहले पर्दे लगे हुए तांगे आते थे फिर बिना पर्दे लगे हुए तांगे आने लगे और महिलाएं शाल ओढ़कर पर्दा करके बैठने लगी फिर विलीनीकरण के बाद बाई ने भी धीरे-धीरे पर्दा करने का विरोध करके करना छोड़ दिया।मैं मम्मी की गोद मे बैठ जाता था।

          गुड्डू मामाजी की धुनाई

एक बार मैंने एक ऐसा दृश्य देखा जिस पर मेरे नेत्रों को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ।अभी तक मेरी नज़रों में नानाजी की छवि एक धीर-गंभीर तपस्वी की ही थी जो अपने पठन-पाठन,लेखन में लगे रहते थे।मैंने देखा कि वह बाहर गैलरी में गुड्डू मामाजी की चप्पल से धुनाई कर रहे हैं,एक कोने से दूसरे कोने तक और फिर दूसरे कोने से पहले कोने तक।इस दिलकश नज़ारे का लुत्फ गैलरी से बाहर की दुनिया यानी सारे दुकानदारों के साथ-साथ सड़क पर चलते राहगीरों ने भी मुफ्त में उठाया था।बाद में सुने किस्सों से यह बात साफ हुई कि वह मम्मी को बता कर गए थे कि पिताजी को बता देना कि मैं संतोष भाईसाहब के साथ फ़िल्म देखने जा रहा हूँ।जब पिताजी ने क्रोधभरी नज़रों से मम्मी से पूछा कि गुड्डू कहाँ गया है,तुम्हे मालूम है?,तो मम्मी ने डरकर और दो की चार लगा दी कि "मैंने तो मना किया था मगर चला गया,मेरी तो कोई सुनता ही नहीं है,लगातार तीन-चार दिन से कहीं-कहीं गायब हो जाता है।"मम्मी के इस व्यक्तव्य ने पिताजी की क्रोधाग्नि को और भड़का दिया था।घटनापूर्व का ब्यौरा कुछ इस प्रकार था कि गुड्डू मामाजी पहले घर आ गए और संतोष भाईसाहब नीचे दुकानदारों से बातचीत में व्यस्त थे।जब उन्होंने देखा कि गुड्डू की रुई की तरह धुनाई हो रही है तो अपने पुराने भोपाल में तो बहुत सी पतली गालियाँ हैं,निकल लिए पतली गली से।

          राजेश मामाजी के किस्से

इससे पहले पिताजी राजेश मामाजी की आवारगी व उनके आदेशों की अवहेलना से त्रस्त होकर उन्हें घर से निकाल चुके थे इसलिए उन्हें डर रहा होगा कि कहीं गुड्डू भी राजेश की राह पर ही न निकल जाए,हालाँकि राजेश मामाजी को फिल्मों का कोई शौक नहीं था वह तो अपनी सृजनात्मक आज़ादी चाहते थे।इसी दौर में एक सनातनी ब्राह्मण परिवार के पुत्र का झुकाव वामपंथी विचारधारा की तरफ हो रहा था।हमेशा विजयी होने वाले उम्मीदवार शाकिर अली खान के कारण भी पुराने भोपाल में वामपंथी माहौल था।हालांकि वह भी हिन्दू-मुसलमान का ध्रुवीकरण ही था।

किस्सों में ही सुनते हैं कि हिन्दू नेता उद्धवदास जी मेहता के ग्यारह मकान थे।हर चुनाव में एक मकान बिक जाता था।इस तरह उनके दस मकान बिक गए मगर कभी विधायक का चुनाव नहीं जीत पाए।

राजेश मामाजी भी मारवाड़ी रोड पर फेमस स्टूडियो के ऊपर टपरे वाले घर मे किराए से रहते थे पर कभी भी मिलने जुलने घर नहीं आते थे।उन्हीं के साथ,उन्हीं के जितने लंबे हमारे एक रिश्तेदार रहते थे जिन्हें सब लोग भैया बोलते थे।इतने वर्षों बाद जब मैंने उन्हें फेसबुक पर देखा तो पता पड़ा कि उनका नाम कृष्णकुमार दुबे है नहीं तो सबके लिए वह भैया ही रह जाते।हाँ,भैया इस दौरान मिलने आते थे मगर वह भी जावरा वाली मासीजी की तरह महा घुन्नए थे।घुन्नो की उपस्थिति भी दर्ज तो होती थी क्योंकि मिलनसारिता और प्रेमभाव तो था।उनको देखकर लग जाता था इनके साथ रहने के कारण राजेश मामाजी की सृजनात्मकता में कोई खलल नहीं पड़ता होगा।

पुत्र भले ही पिट जाएँ पर झूठ नहीं बोलते थे।यह घटना इस बात का जीवंत उदाहरण है।पिता भी ऐसे पूछते थे कि बस पूछ ही रहे हैं ,तो क्यों न सच-सच ही बता दिया जाय आगे अंज़ाम खुदा जाने।घटना से पूर्व पिताजी (नानाजी) और गुड्डू मामाजी के बीच हुए संवाद कुछ इस प्रकार थे:

पिताजी-"परीक्षाएं कब से शुरू हो रहीं है?"

गुड्डू मामाजी-"जी,परसों से"

पिताजी-"हूँ,कल कहाँ गए थे ?"

गुड्डू मामाजी-"फ़िल्म देखने"

पिताजी-"परसों कहाँ गए थे?"

गुड्डू मामाजी-"परसों सर्कस देखने गया था।"

पिताजी-"हूँ,उससे एक दिन पहले कहाँ गए थे ?"

गुड्डू मामाजी-"जी,जादू देखने चला गया था।"

उसके बाद धूम-धड़ाम,धड़ाम,धड़ाम।

जहाँ मेरी इतनी शैतानियाँ छोटा समझकर माफ कर दी जाती थीं वहीं युवा गुड्डू मामाजी की इतनी जमकर धुनाई की जा रही है।तब समझ मे गया था कि छोटे होने के कितने फायदे हैं।

          जावरा वाले मासाजी और मासीजी

बाई का नाम कमला था और वह जितनी हँसमुख,वाकपटु व बड़े परिवार को बाँधकर रखने वाली थी उनकी बहन किशोर यानी जावरा वाली मासीजी उतनी ही घुन्नी थीं।सुनते थे उनके पति यानी जावरा वाले मासाजी और उनके बीच की अहम की लड़ाई के फलस्वरूप वो अहिल्या बाई जैसी बन गईं थी।आज़ादी के बाद मध्यप्रदेश बनने से भी पहले जब मध्यभारत की सरकार बनी थी तब मासाजी उसमे विधायक थे।आज़ादी के बाद पहले चुनाव तो 1952 में हुए थे पर आज़ादी के बाद बिना चुनाव के ही कांग्रेस द्वारा विधायक नॉमिनेट कर दिए गए थे।मासाजी भी ऐसे ही नॉमिनेटेड विधायक थे।बाद में उन्होंने राजनीति छोड़ दी और वह भी शांत-शांत से हो गए।हर शादी-ब्याह में उन्हें लगता था कि जमाई का पर्याप्त सम्मान नहीं दिया गया और इस बात को मुद्दा बनाकर पर वो बीच कार्यक्रम से नाराज़ होकर निकल लेने का बहाना ढूँढ़ लेते थे।मिन्नतों के बाद वो रुक भी जाते थे। दरअसल हमारे बापाजी और मासाजी जैसे कुछ ऐसे अतिसंवेदनशील लोगों की भी प्रजाति होती थी और है जो स्वयं किसी का भी अपमान कर दें पर स्वयं के लिए वो ये चाहते हैं कि उनके अंतर्मन या आहत मन मे हिलोरे भर रही भावनाओ से उनखे मुख पर आते-जाते भावों से ही लोग समझ जाएं कि वो कितने आहत हैं परंतु दुनिया का तो दस्तूर है कि 'तुम जो हँसोगे तो हँसेगी ये दुनिया'या 'बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से पाए।'शादी-ब्याह एक ऐसा रंगमंच भी होता था जहाँ आप सर्वाधिक लोगों को अपने हाव-भाव दिखा भी सकते थे अन्यथा घर मे घरवाली और बच्चे तो हैं ही।संयोग से उनके भी बाई-पिताजी की तरह पाँच पुत्र थे और दो पुत्रियां थीं,इधर मम्मी अकेली पुत्री थीं बस यही फर्क था।उधर बड़े भरत, फिर मोहित फिर राजेन्द्र फिर दिनेश और उधर भी सबसे छोटे गुड्डू ही थे।चौथे नंबर के दिनेश मामाजी इधर नाटे थे मगर अत्यंत ऊर्जा से भरपूर,गायक,कलाकार,सबको हँसाने वाले,सबकी नकल करनेवाले (मिमिक्री)और खुद भी हँसने वाले ।वह अपनी ऊँचाई ज्यादा दिखाने के लिए हाई हील के जूते पहनते थे और दुबले पतले होने के बावजूद हट्टा-कट्टा दिखने के लिए कपड़ों के ऊपर कपड़े फिर कोट पहन लेते थे।जबकि गुड्डू मामाजी की विचारधारा यह थी कि 'ईश्वर ने आपको जैसा बनाया है स्वयं को वैसा ही स्वीकार करो।'पत्र-पत्रिकाओं में उस समय ज्यादा विज्ञापन तो नहीं आते थे पर बुलवर्कर का विज्ञापन नियमित रूप से धर्मयुग में आता था।उसमें एक हट्टा-कट्टा और एक दुबला पतला व्यक्ति दिखाया जाता था और कैप्शन था 'आप कैसे बनना चाहते है?-ऐसे या ऐसे!' दुबले-पतले आदमी को दिखा कर दोनो बोलते "पहले तो ऐसे बनना चाहते हैं।"जावरा वाली मासीजी की तबियत ठीक नहीं रहती थी इसलिए उन्हें भाभी-नानाजी ने जावरा से बुलाकर अपने पास रख लिया था इसलिए वो नर्सिंगढ़ वाले मामाजी हो गए थे।गुड्डा गुड्डू छोटे ही होते थे जो अब 60-65 के हो चके हैं लेकिन हैं गुड्डू ही इसी तरह शिशु मामाजी 75 पार हो के भी शिशु ही बरकरार हैं।इन सब नाते रिश्तेदारों का आना भी होता था और खूब धमाचैकड़ी मचती थी।समस्त पारिवारिक गतिविधियां पहले माले पर ही होती थी दूसरे माले पर भी एक रूम था पर वह खाली ही था,उससे लगा हुआ छोटा सा कोठरीनुमा रूम भी था जिसमे रंगीन कांच लगे हुए।एक बार मैं बहुत ज्यादा मस्ती कर रहा था तो राजेन्द्र मामाजी ने मुझे पकड़कर उस रूम में बंद कर दिया था जिसमे अगर किसी को बंद कर दो तो किसी को पता भी नहीं पड़ता था।मैं बहुत देर तक रोता रहा था फिर उन्होंने खोल भी दिया था।

बाई-पिताजी का घर और जावरा वाले मासाजी-मासीजी जी का घर अगर पेशवाईयाँ थी तो नर्सिंगढ़ में भाभी (परनानी)-नानाजी छत्रपति थे।

          नर्सिंगढ़ का भाभी-नानाजी वाला घर

कुनबे की सबसे पुरानी निशानी,"भाभी का नाम क्या था?"आज भी जब मैंने गुड्डू मामाजी से पूछा तो एक मिनट सोच में पड़ गए फिर जवाब दिया "आनंद कुँवर बाई।"तो यहाँ शेक्सपियर साहब का वह संवाद याद आया कि 'नाम मे क्या रक्खा है!' नाम तो वही चलता हैं जिससे सब पुकारते हैं।

कुछ नज़दीकी रिश्तों को मैंने फ्रेम में जड़ी तस्वीरों में दीवार पर ही देखा है।इसमें भाभी के पति राधेलाल जी भी थे जो विवाह के कुछ वर्ष पश्चात ही गुजर गए थे।नानाजी उर्फ डॉ. बापूलाल शर्मा उस जमाने के डॉक्टर थे जब एम.बी.बी.एस. भी शुरू नहीं हुआ था,कुछ बी.एल.एम.,जैसी डिग्री हुआ करती थी।नानाजी की पत्नी पवित्रा देवी को भी तस्वीरों में ही देखा है जो नानाजी की दूसरी पत्नी थी।कुछ वृद्धावस्थाएँ कितनी स्वस्थ और लंबी थी जबकि कुछ यौवनावस्था से अधेड़ावस्था में भी नहीं पहुँच पायीं।

नर्सिंगढ़ राजगढ़ जिले की पहाड़ों से घिरी हुई प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण,पर्यटन के लिहाज से सुन्दर,दर्शनीय तहसील थी।बरसात के दिनों में हरे-भरे पहाड़ों के सीनों से झरने फूट पड़ते थे तब यह पचमढ़ी की तरह ही पहाड़ो की रानी कहलाती थी।अब तो बहुत जंगल कट चुके हैं इसलिए वह जलवायु व प्राकृतिक नज़ारे नहीं रहे।पहाड़ों पर ही बड़े महादेव और छोटे महादेव के मंदिर प्रकृति की गोद मे सुन्दर,स्वच्छ,शांत धार्मिक स्थल हैं।एक पहाड़ी पर राजा का किला भी था जो खंडहर हो चुका था।पहली रंगीन फ़िल्म 'आन' की शूटिंग नर्सिंगढ़ में ही हुई थी।

नर्सिंगढ़ के बारे में बब्बू मामाजी से एक और महत्वपूर्ण जानकारी हासिल हुई है।जब भोपाल जैसे शहर में भी बिजली नहीं आयी थी तब नर्सिंगढ़ में बिजली थी,भला कैसे?तो ऐसा हुआ था कि वहाँ के महाराजा विक्रम सिंह जी ने जनरेटर के डायरेक्ट कर्रेंट से नर्सिंगढ़ की तकरीबन बीस हज़ार की पूरी आबादी के घरों को रोशन कर दिया था और स्ट्रीट लाइट भी लगवाई गयीं थी।हुआ है कोई ऐसा प्रगतिशील विचारधारा का राजा जो प्रजा के सुख सुविधा का इतना ध्यान रखता हो!उन्होंने जनता के लिए एक टॉकीज़ भी बनवाया था।एलक्ट्रिसिटी आ गयी तो रेडियो भी नर्सिंगढ़ में भोपाल से पहले आ गया।किस्सों में ही मम्मी एक किस्सा सुनाती थी कि नानाजी के पिताजी वृद्धावस्था में पागल हो गए थे।जब उन्होंने रेडियों पर पहली बार स्त्री स्वर को गाते हुए सुना (जो इससे पहले तवायफों के कोठे पर ही सुना जाता था) तो चिल्लाते थे कि "अरे घर मे कौन-कौन रंडियाँ घुस आईं हैं,इन्हें भगाओ।"भोपाल में जब बिजली नई-नई आयी थी बहुत से घरों में यह सोचकर नहीं लगवाई गयी थी लकड़ी के गर्डर वाले घरों में आग लग जायेगी।

महाराजा विक्रम सिंह जी स्वयं गोद ली हुई संतान थे और उनकी भी कोई संतान नहीं थी तो उनके सचिव के बेटे भानु प्रताप सिंह जी को राजकुमार बनाया गया था जो बाद में नर्सिंगढ़ के राजा बने।नर्सिंगढ़ में उस समय मिट्टी का रावण बनाया जाता था और राजा उसे तीर मारता था।जब भानु प्रताप सिंह जी दशहरे में आये तो उनके लिए डालडा (घी)के खाली डब्बों से स्वागत द्वार बनाया गया था और लिखा गया था-डालडा सरकार।

अगर परिवार में तीन पुत्र हों तो वह संबोधनों की दुनिया मे स्वतः ही बड़े,छोटे और बिचले हो जाते हैं।हालाँकि बड़े को कोई बड़े नहीं बोलता या कहीं कहीं बोलते भी होंगे पर छोटे को छोटे और बीच वाले को बिचले या मझले कहते हुए अक्सर सुना हैं।यहाँ भी ऐसा ही था।नानाजी के तीन पुत्रों में बड़े सुरेश,छोटे नरेश और बिचले महेश थे।इधर जब भोपाल में कुशाग्र बुद्धि के बाई-पिताजी के बड़े सुपुत्र राजा मामाजी अव्वल नंबरों से उत्तीर्ण होते और उधर जब हर वर्ष ही नरेश मामाजी सप्लीमेंट्री में बैठते और गर्मी की छुट्टियों में भी पढ़ते रहते थे तो भाभी ताना मारते हुए कहतीं "गद्दी खेड़ी का मास्टर बनेगा।" आज वह कैनेडा के टोरंटो में अतिसम्पन्न डेंटिस्ट हैं।बचपन मे फिसड्डी रहे नरेश मामाजी ने जब इंदौर के डेंटल कॉलेज में एडमिशन लिया तो उसके बाद ज़िन्दगी ने ऐसी रफ्तार पकड़ी कि वर्ष 65 में वो एक सरदारनी कमलजीत सिंह जी से विवाह करके कैनेडा जा बसे।बीच-बीच मे जब वो आते थे तो नर्सिंगढ़ में कैनेडाई वस्त्रों व उपहारों की बारिश सी हो जाती थी।जब हम भोपाल में मॉडल स्कूल की खाकी पेंट और साधारण वस्त्र पहनते थे तो नर्सिंगढ़ में बिचले मामाजी के बच्चे और दिनेश मामाजी विदेशी वस्त्रों से सुशोभित होकर, सूटेड-बूटेड होकर,बड़े से दिल्लान में चक्कर काटते रहते थे।

कायदें से बाई और मासीजी के पिता को बच्चो का नाना होना था परंतु वो तो गुजर चुके थे इसलिए दोनो के ग्यारह बच्चों के लिए वो ही नानाजी थे और यही संबोधन भाभी के साथ जुड़ गया-भाभी-नानाजी।बाई और मासीजी के संबोधन में काका साब आता था।

नानाजी के बड़े बेटे सुरेश (बड़े मामाजी) इंदौर मेडिकल कॉलेज से पढ़कर डॉक्टर बनकर बी.एच., ई.एल.के कस्तूरबा अस्पताल में पदस्त हो चुके थे।भरे-पूरे नाते-रिश्तेदारों के बीच सिर्फ उन्हीं के पास फ़िएट कार थी जिसमे उनका पूरा परिवार भरकर आता था।

         बिचले मामाजी

बिचले मामाजी बहुत ही ज़िंदादिल,शरारती,मज़ाकिया चरित्र थे।शरारत उनकी आँखों से ही टपकती थी।जब सीपी और मैं छोटे थे तो वह अपनी लाल-लाल आँखे दिखा कर डराते थे और हम मम्मी के पल्लू में घुस जाते थे इसलिये बचपन मे उनसे बहुत डर लगता था।वो हरफनमौला किस्म के आदमी थे।नानाजी की डॉक्टरी की गद्दी तो थी ही इसलिए प्रैक्टिस के लिए कोई आयुर्वेदिक की डिग्री की जुगाड़ कर ली थी इस तरह वो भी डॉ. महेश शर्मा हो गए थे।कुरावर में खेती-बॉडी भी थी और कांग्रेस के नेता भी थे।नानाजी के पास आसपास के गाँवो के मरीज़ बैलगाड़ी में भरकर आते थे।पाइल्स (बवासीर)का सफल इलाज करने के लिए वो बहुत मशहूर थे।उनके पास एक करंट लगाने वाली मशीन भी थी जिससे वह गठिया के मरीज़ों का दर्द भगा देते थे।"ओ बासाब"मरीज़ों की एक चीख सुनाई देती थी।एक दिन मैं ऐसे ही उसके एलक्ट्रोड्स देख रहा था कि यकायक पीछे से बिचले मामाजी आये और उसका लीवर घुमा दिया।ऐसा झटका लगा कि दोनों एलक्ट्रोड्स हाथ से छूटकर जमीन पर आ गिरे और बिचले मामाजी खिलखिलाकर शरारत से हँस रहे थे।आँखों के मरीजों के लिए पढ़ने के लिये हिंदी में लिखे अक्षर थे वो देखते-देखते सीपी और मुझे याद हो गए थे- 'अ प ग प त ग स व ध त ग व र म ट स ज न म य र' इनके अक्षरों के बीच मे डी 5 डी 10 जैसे कुछ नंबर भी थे,दिनेश मामाजी को वो नंबर भी मुंहजबानी याद थे।टिंक्चर आयोडीन की बोतलें थी जिनकी गंध बहुत अच्छी लगती थी,उसकी काडी बनाई जाती थी।हालाँकि नानाजी वृद्धावस्था तक प्रैक्टिस करते रहे पर फिर बिचले मामाजी ने उनका काम संभाल लिया था।बिचले मामाजी की ख्याति नानाजी से भी ज्यादा बढ़ गयी थी ये खबर भाभी के मार्फत भोपाल तक पहुँचने में कुछ ज्यादा समय नहीं लगा।भाभी चटखारे लेकर बताती थी कि "नानाजी तो सिर्फ छाती में ही स्टेथेस्कोप लगाते थे जबकि बिचले मामाजी ने माथे से लेकर पैरों तक घुमाना शुरू कर दिया था।"गाँव वाले बोलते थे कि "बड़े डाकसाब तो आले से सिर्फ छाती की ही जाँच करें,ये छोटो डाकसाब अच्छओं है,निरे बदन की जाँच करी ले।"

सुनते थे उन्होंने साठ के दशक के आरम्भ में बिचली मामीजी से लव मैरिज की थी जो एम.एल.बी.गर्ल्स हॉस्टल में रहकर अध्ययनरत थी।ये भी सुना था कि विवाह को लेकर उनके सामने दो कन्याओं को लेकर दुविधा थी मगर जब होने वाले हरियाणवी ससुर ने उनके सर पर बंदूक लगा दी तो ये दुविधा बड़ी जल्दी समाप्त हो गयी।दिनेश मामाजी ने यह भी बताया था कि बिचले मामाजी अपनी बारात में पैसे देकर किराए के बाराती ले गए थे।परिवार के लोगों के लिए ये इसलिए भी अचरज भरा था क्योंकि बिचली मामाजी बिचली बनने से पहले बिचले मामाजी को समस्त पारिवारिक सदस्यों के सामने राखी भी बांध चुकी थीं।बाद में जब वो ये बोलती थीं कि "पता नहीं लोग झूट कैसे बोल लेते हैं,अपना तो ऐसा करने में जी मिचलाने लगता है।"तो बब्बू मामाजी को हँसी आ जाती थी।खैर एवरीथिंग इज़ फेयर इन लव एंड वार।सामाजिक,धार्मिक नियमों को ही ढाल बनाकर प्रेमलीलाएँ रचाई जाती थीं।

नर्सिंगढ़ के घर मे बाहर एक ओटला था जिससे लगे हुए दो स्ट्रीट लाइट के खंभे थे।शाम के वक्त लोग इस पर बैठकर गपशप किया करते थे।दरवाज़े से प्रवेश करते साथ ही नानाजी का क्लिनिक था जिसमे बेंचेस लगी हुईं थी।बाईं तरफ के रूम को उनका आपरेशन थिएटर कह सकते हैं जिसमे मरीज़ को टेबल पर लिटाकर टांके व इंजेक्शन लगाए जाते थे।क्लिनिक के बाद एक बड़ा सा कमरा था जिसमे बाईं तरफ की अलमारियों में नानाजी की दवाइयां रहती थीं।दाईं तरफ इस कमरे से लगा हुआ एक कोठरीनुमा कमरा था जिसमे सिर्फ एक खिड़की थी जो दिल्लान में खुलती थी।इसी कोठरीनुमा कमरे के दाएं तरफ एक और कोठरीनुमा ही कमरा था जिसमे एक खिड़की थी जो नानाजी के क्लिनिक में खुलती थी इसलिए वो हमेशा बंद ही रहती थी।शादी-ब्याह के मौकों पर इन कोठरियों का इस्तेमाल महिलाओं द्वारा चेंजिंग रूम की तरह होता था।अब चलते हैं दिल्लान में जिसमे गुलाबी फर्श था।दिल्लान में ही जमीन पर बैठकर भोजन किया जाता था जिसमे कितने भी रिश्तेदार हो दरी बिछाकर पंगत लग जाती थी।गर्मियों में चुसमी आम खाने का मज़ा तो नर्सिंगढ़ में ही था।बैलगाड़ी भरकर आये आमों में से एक ढेर नानाजी उतरवा लेते थे।भेंचो गाली उनकी और फिर बिचले मामाजी की भी तकियाकलाम थी।एक आध आम भी खट्टा निकल जाए तो ये गाली भी निकल जाती थी।ऐसे ही एक दिन खाते वक्त जब मैं पंद्रह साल का हो चुका था नानाजी ने बताया कि "तुम्हारे दादाजी ने तो आत्महत्या कर ली थी।"मैंने चोंक कर उनकी बात को नकारते हुए मम्मी द्वारा सुनाए किस्से पर जोर दिया कि "अरे,नहीं नहीं वो तो स्टोव से जल गए थे न।"मम्मी और बिचले मामाजी भी थे मगर उनके सामने दोनो की सिट्टी-पिटटी गुम थी।उन्होंने आगे बताया कि मेरे दादाजी के एक गुजराती औरत से अवैध संबंध हो गए थे और औरत गर्भवती हो गयी थी तो दोनो ने आत्महत्या कर ली थी।"मम्मी और बिचले मामाजी,मामीजी ने ऐसे भाव दिए कि सठिया गए हैं,बेबी के लड़के से क्या ऐसी बात करनी चाहिए।यह रहस्योद्घाटन मेरे लिए बहुत चौकाने वाला था कि मम्मी ने मुझे झूटा किस्सा सुनाया।बापाजी का जन्म 1926 का था तो उनके सौलह साल के होने तक वर्ष 42 रहा होगा,ये हिसाब आज मैंने लगा लिया है यानी ये 1942 ए लव स्टोरी थी।ग़ज़ब।अब उस ज़माने में कोई कॉन्ट्रासेप्टिव भी नहीं होते थे।कितनी बदनामी की बात होती थी।इसलिए भी बापाजी चिढ़ चिढ़े थे क्योंकि बापाजी के लिए तो उनके बापाजी बदनामी ही छोड़कर गए थे।बाद में मम्मी ने बापाजी के पक्ष में एक और दलील दी थी।

दिल्लान बाएं कोने पर एक खुली अलमारी में गैस रखी रहती थी जिस पर सिर्फ चाय बनती थी।खाना तो बड़ी सी रसोई में बनता था।मतलब गैस को अलग से एक सम्मानित स्थान दिया गया था।दिल्लान और आँगन को भूरे रंग की लकड़ी के फेब्रिकेशन से अलग किया गया था।जब सूरज आँगन में आ जाता था तो फेब्रिकेशन की डिज़ाइन का अक्स दिल्लान में बन जाता था।वैसे दिल्लान थोड़ा ऊपर था और एक दो सीढियां उतरकर आँगन आता था जिसमे सैंडस्टोन की फरशियाँ लगी हुईं थीं।आँगन के बाएं तरफ रसोई थी जिसमे मिट्टी के चूल्हे पर रोटियाँ उतरती थीं।दाल घंटो उबलती रहती थी मगर जब खाते तो वो स्वाद आता था कि आजतक नहीं भूले।दिल्लान के बाएं तरफ एक और कमरा था जिसमे एक मंदिर इतना बड़ा था कि भाभी-नानाजी उसके अंदर बैठकर घंटो भगवान का शृंगार व पूजा करते-करते बतियाते रहते थे।उसी कमरे में एक ड्रेसिंग टेबल भी थी जिसका बड़ा सा शीशा था।आँगन के एक छोर पर एक कुआं और हैंडपम्प था जिस पर एक दो बार चलाने पर पानी निकल आता था।

पूरा आँगन पार करके गुसलखाना और पाखाना आता था। गर्मियों के दिनों में आँगन जबरदस्त तप जाता था।एक दोपहर मैंने देखा कि सीपी बाथरूम से निकलकर नंगे पैर ही जल्दी से आँगन पार करना चाह रहीं है।मेरे खुराफाती दिमाग मे फौरन दुष्ट योजना तैयार हो गयी। मैंने उसे बीच आँगन में ही पकड़ लिया, वो जमकर चीखी।दिल्लान में बिस्तर पर लेटी भाभी ने चीख सुन ली।उन्होंने वहीं से लेटे-लेटे मुझे लताड़ लगाई कि "क्यों रे,बिचारी छोरी को पकड़ लियो,बिचारी तिलमिला गयी।"भाभी के डर से मैंने फौरन छोड़ दिया।

भले ही नर्सिंगढ़ में भोपाल से पहले बिजली आ गयी थी पर सीवेज सिस्टम सुअरों के ही हवाले था।जब भी पाखाना जाते थे तो इस इन्सटेन्ट फ़ूड के लिए तीन-चार सुअरों में जबरदस्त प्रतियोगिता मच जाती थी।मानसिक रूप से आपको इसकी तैयारी रखनी पड़ती थी।सीपी को बहुत डर लगता था इसलिए कई बार मुझे वो बाहर खड़ा कर देती थी।

आँगन से ही लगी हुई गौशाला भी थी।भाभी और बिचले मामाजी के बेटे बंटी को दूध दुहना आता था।आँगन के दाहिने तरफ की सीढ़ियां ऊपरी मंजिल पर जाती थीं जहाँ ऊपर बिचले मामाजी-मामीजी के कमरे थे जिनका इस्तेमाल रात को ही होता था।सुनते थे रात में उन कमरों में बिचले मामाजी तीन-चार पेग लगा लिया करते थे और भाभी-नानाजी को भनक भी नहीं लगती थी।इन्हीं कमरों के आगे छत थी जिन पर गर्मियों में पधारे रिश्तेदारों के लिए गद्दे बिछ जाते थे।


1971 में अरेरा कॉलोनी के E 3 सेक्टर में बापाजी ने मात्र पच्चीस हजार रुपये में एक बना बनाया घर खरीद लिया था।हमसे पहले से बसे लोगों ने मात्र पंद्रह हजार ही लगाए थे।आज इन घरों की कीमत डेढ़-दो करोड़ होगी।आज मात्र कह सकते है परंतु उस ज़माने में मात्र नहीं था।नानीजी के घर की नींव भी बनना शुरू हो गयी थी।मैं खुश था कि अब बाई पिताजी के साथ गुड्डू मामाजी भी इधर ही आ जाएँगे।मैं बेसब्री से घर के जल्दी से बनने का इंतज़ार कर रहा था कि एक दिन पता पड़ा कि जो बाई अपने गधे से नींव में पत्थर डालने आती थी वह अपने पत्थर वापस उठाकर ले गयी है।मुझे बहुत बुरा लगा और मुझे जहाँ कहीं भी बोल्डर जैसे पत्थर दिखते उन्हें मैं अपनी साईकल के कैरियर में लगाता और नींव में फेंक आता।इस बात से बाई पिताजी व गुड्डू मामाजी भी अनभिज्ञ थे।

कुछ वर्षों बाद नानीजी का घर भी E 4 सेक्टर में आ गया।सिटी की तंग गलियों के विपरीत कॉलोनी खुली-खुली थी,खेलने के लिए मैदान थे।हमारे घर के सामने वाले मैदान में एक बावड़ी भी थी जो पानी से भरी रहती थी। सुनते थे रानी कमलापति द्वारा बनवाई गई थी और कभी वो इस पर स्नान करने भी आती थीं।जब कभी क्रिकेट खेलते समय बॉल बावड़ी के पानी मे चली जाती थी तो एक दोस्त दूसरे दोस्त की टांग पकड़कर उसे बावड़ी में लटकाता था और बॉल निकाल लेते थे।क्या विश्वास हुआ करता था दोस्त पर!

माँ-बेटी पास पास ही हो गईं।दोनो के घर काम करने वाली सया बाई संचार का सबसे बड़ा माध्यम थी।आज बेबी के घर कौनसी सब्जी बनी है इसकी खबर भी बाई को रहती थी।बाई के द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर देने के लिए पहले से ही तैयारी कर लेती थी।गुड्डू मामाजी और गुलशन नंदा की फैन हमारी गुड्डी जीजी की बहुत छनती थी मैं और सीपी छोटे पड़ जाते थे इसलिए उनके लिए कबाब में हड्डी ही थे।'जवानी दीवानी'फ़िल्म के गीतों की धूम थी।राजेश खन्ना के एक आँख झपकाने से लाखों लड़कियों की दिलों की धड़कन क्यों बढ़ जाती थी उस समय अपनी समझ से परे था।

बिल्ली जैसी शक्ल वाली प्लास्टिक की गुल्लक में मैं 10,20,25,50 पैसे जमा किया करता था।एक साल में वो गुल्लक भारी हो जाती थी।बापजी मम्मी वैसे तो राजकपूर की हर फिल्म देखते थे क्योंकि बापाजी उनको व्यक्तिगत तौर पर भी जानते थे और उनकी कई फिल्मों के मुहूर्त पर पूजा भी करवा चुके थे परंतु 'बॉबी' के नाम पर सब चुप थे।सुना था कोई नए हीरो-हीरोइन हैं।मुझे अंदेशा तो था कि गुड्डू मामाजी और गुड्डी जीजी चुपके से सुल्टा आएँगे मगर इतनी बड़ी चोट हो जाएगी मालूम न था।एक शाम जब मैं गुल्लक में पैसे डालने गया तो वो हल्की-हल्की भी नहीं बल्कि खाली ही मिली।कंफर्मेशन टेस्ट लग चुका था कि......मैं ज़ोर-ज़ोर से अलड़ाया जिससे उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि हाँ भई देख आये और हम तेरी भरपाई भी कर देंगे पर अपने को शिकायत यह थी कि 'मुझे साथ मे क्यों नहीं ले गए।'उसके बाद बचत में मेरी आस्था ही खत्म हो गयी थी।

1975 में गुड्डी जीजी की शादी होने वाली थी इसलिए उत्तरप्रदेश के गाँव सोरों से बापाजी की बुआजी एक महीने पहले से ही आ गईं थी।वो बेहद दुबली-पतली और कमजोर थीं।तब शादियों का मतलब अपने लिए खाना-पीना और मस्ती ही था गुड्डी जीजी चली जाएंगी ऐसा तो दिमाग मे ही नहीं था।बापाजी की तरफ के रिश्तेदारों में उनकी बहन पुष्पा का परिवार था जिन्हें बुआजी ही कहते थे पर इधर भी उनके बच्चे उन्हें भाभी बोलते थे।गुड्डी जीजी की शादी में ही मेरे साथ बुआजी के बेटे हेमंत उर्फ गुड्डू और बड़े बेटे बालकृष्ण उर्फ मुन्ना भाईसाहब का यग्योपवित (जनेऊ) कर दिया गया था।गुड्डू और मैंने तो सर मुंडवा लिया था पर मुन्ना भाईसाहब नाई के आने पर भाग लिए थे।

गुड्डी जीजी विदा हो गईं बापाजी पीछे से रोते भी रहे पर न गले लगाया न बात की।विवाह के कुछ दिनों बाद ही जब मैं स्कूल से घर आया तो देखा बहुत भीड़-भाड़ लगी हुई थी।बताया गया कि सोरों वाली बापाजी की बुआजी की मृत्यु हो गयी है।वो पहली मृत्यु थी जो मैंने अपने जीवन मे देखी थी।लोग कह रहे थे "जीवनभर सोरों में रहीं मगर प्राण छूटे तो विनोद के पास।"बाद में तेरहिं के लिए बापाजी ने बहुत रो रो कर गुड्डू मामाजी से सब नाते रिश्तेदारों को पत्र लिखवाए थे।

बाई के घर की डोर बेल की आवाज़ इतनी कर्कश थी कि आखरी रूम में बैठा व्यक्ति भी दहल जाए।एक बार बाई नर्सिंगढ़ गयी हुईं थी और पिताजी अकेले थे गुड्डू मामाजी के साथ।इधर नर्सिंगढ़ से दिनेश मामाजी भोपाल आ गए थे और गुड्डू मामाजी को अपने साथ फ़िल्म का रात वाला शो दिखाने ले गए।देर रात जब दोनो ने वापस आये तो पहले डोर बेल नहीं बजायी बल्कि धीरे-धीरे आवाज़ लगाई-"पिताजी" "पिताजी" प्रत्यत्तर में कोई जवाब नहीं मिलने पर पिताजी-पिताजी का स्वर बढ़ता गया था।फिर डरते-डरते धीरे से डोर बेल दबाई जिसकी आवाज़ कुछ क्षणों की ही थी।अगली बार कुछ समय सीमा बढ़ाई गई फिर और बढ़ाई गई लेकिन पिताजी की तरफ से कोई प्रत्युतरार न मिलने पर आशंकाएं,कुशंकाओं ने आ घेरा था।जोर जोर से पिताजी-पिताजी की पुकार से पड़ोस में रहने वाले मोहन का परिवार भी जाग चुका था।वो परिवार भी सहायतावश अब इन पुकारो में शामिल हो चुका था इसलिए पुकारो में अब दो स्वर गूँज रहे थे 'पिताजी-पिताजी' और 'बाबूजी-बाबूजी' लेकिन दोनों ही स्वर बेअसर हो रहे थे।पिताजी वाला स्वर धीरे-धीरे रुआँसा होता जा रहा था और बाबूजी वाला स्वर उसे ढाँढस बंधा रहा था।इतनी मशक्कत के बाद जब थक-हार के हिम्मत टूटने को हो चली तो पिताजी ने दरवाज़ा खोला और क्रोधित होते हुए बोले "ये कोई समय है घर आने का!जाओ।"और वापस दरवाज़ा लगा दिया।बेदर्दी से निकाल दिए जाने के बावजूद दोनो फिल्मी दीवानों ने राहत की साँस ली कि पिताजी जीवित तो हैं।देर रात जब हमारे घर की डोर बेल बजी तो रोचक वृतांत सुनने के लिए फिर महफ़िल जम गयीं।दिनेश मामाजी ने पूरी अदाकारी के साथ पूरा वृतांत सुनाया।

          सया बाई

उस समय कॉलोनी के खाली पड़े मैदानों में खानदेश (भुसावल)से आये हुए मेहनतकश लोगों ने झुग्गियाँ बनानी शुरू कर दी थी।धीरे-धीरे हर मैदान झुग्गी बस्ती में तब्दील होता जा रहा था।पुरुष रंगाई-पुताई,ठेला लगाना,प्लम्बर,मिस्त्री का काम करते थे और स्त्रियाँ घरों में काम करती थीं।झुग्गी बस्तियों में कुछ छुटभैये नेता भी आते थे जो उनको पानी का कनेक्शन मुहैय्या करवा कर पट्टे दिलवाने का वादा करते थे।

सया बाई विधवा थी और दो बच्चे शंकर और शोभा को पालकर बड़ा करने की जिम्मेदारी उन अकेले कंधों पर ही थी।एक अधेड़ पुरुष अक्सर उसके बारे में पूछने आता था।उसके आने की खबर लगते ही वो कामधाम छोड़कर बाहर भागती थी।उससे मिलकर बात करने के बाद उसमे कुछ और शक्ति का संचार हो जाता था और बर्तन रगड़-रगड़कर चमका देती थी।बर्तनों और उसके साँवले गालों की चमक दोनो ही बढ़ जाते थे। फिर एक दिन उसके द्वारा ही एलान किया गया कि "वो मोतीराम जी हैं और अब वो आएँ तो उन्हें आदर से बिठाकर चाय पिलाई जाय।"उसका ये सुझाव नहीं था बल्कि बाई और हमारे घर पर लागू होने वाला आदेश ही था जिसको उसकी कर्तव्यनिष्ठा को देखते हुए बाई और मम्मी द्वारा मान कर पालन किया जाने लगा था।अब मोतीराम बाहर गेट पर नहीं बाकायदा डोर बेल बजाकर साधिकार काम करती हुई सया बाई से मिलने आने लगे थे।अब सया बाई के अलावा मोतीराम जी के लिए भी चाय बनने लगी थी।वो स्वयं कभी सोफे पर नहीं बैठी पर मोतीराम को बाकायदा सोफे पर बिठा कर चाय पिलवाती थी।

कालांतर में संतोष भाईसाहब ही संतोष जीजाजी में कैसे परिवर्तित हो गए थे यह भी मेरे लिए एक प्रश्न था।इससे पहले फिल्मी दीवानी व गुलशन नंदा की फैन हमारी गुड्डी जीजी मुझे चलाती रहीं की वह संजीव कुमार से शादी करने वाली हैं।मुझे भी कल्पना में दोनो मोटों की जोड़ी अच्छी लगी थी।गुड्डी जीजी का नाम कल्पना ही था जो अब कल्पना शर्मा होने जा रहीं थी।विवाह के एक वर्ष पश्चात मोटी सी गुड्डी जीजी फूला हुआ पेट लेकर आई थी।उस वक्त बापाजी की चाची जिन्हें हम चाची अम्मा कहते थे भी गाँव सोरों (उत्तरप्रदेश) से आई हुईं थी।एक रोज़ सुबह-सुबह ही उन्होंने सीपी और मुझे जगा दिया था और चिल्ला चिल्ला कर सूचित किया कि "अरे उठो उठो गुड्डी को बच्चो होने वालो है,सुबह पाँच बजे ही अस्पताल लेकर गए हैं।"मैं दस साल का और सीपी मात्र सात साल की थी।हम दोनों के ऊपर से उनकी कही गयी बात बाउंसर गयी थी।हमारे उदासीन भावों को देखकर वह चिढ़कर बोली थीं "अरे तुम लोग तो कुछ समझो नहीं।"अब हमें तब तक यह थोड़ी समझाया गया था कि शादी के बाद बच्चा भी होता है और दो के ही तीन हो जाते हैं।

कालांतर में जब नानीजी के घर टेलीफोन लगा तो सबसे ज्यादा उत्साहित नानाजी ही थे।फ़ोन की घंटी बजते ही वृद्धावस्था में भी ऐसे भागते थे कि अगर वृद्धों की मैराथन रेस करवा दी जाती तो वो अव्वल आते।वो रॉंग नंबर पर भी कुछ देर तो बात कर ही लेते थे।मैंने अपनी कंपनी के मैनेजर्स को उनका पी.पी.नंबर दिया था ताकि कोई महत्वपूर्ण सूचना हो तो मुझे मिल जाये।जब हमारे घर टेलीफोन लग गया तब भी अपना नंबर मैनेजर्स को जानबूझकर नहीं दिया था।एक रोज़ मैनेजर का फ़ोन हमारे घर के नंबर पर ही आ गया तो मैं आश्चर्यचकित था कि "आपको यह नंबर कैसे मिला!" मैनेजर ने अपनी हेकड़ी झाड़ी की "अपन सब पता कर लेते हैं।" बाद में पता चला कि पिताजी ने उनसे लंबी बातचीत की और कहा कि "अरे,अब तो उनके यहाँ भी टेलीफोन लग गया है,आप वहीं क्यों नहीं लगा लेते!"मैनेजर ने अनभिज्ञता व्यक्त की तो हमारे नानाजी ने कहा कि "अरे,ज़रा रुकिए मैं डायरी में से अभी आपको उनका नंबर बताता हूँ।"और उन्होंने बता कर मेरे लिए और आफत खड़ी कर दी।

खैर हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह हमारे नाना-नानीजी के भी बहुत से किस्से हैं जिन्हें लोग शिव पार्वती की जोड़ी बोलते थे।नानाजी शंकर भगवान की तरह धीर गंभीर और बाई मोटी मगर चपल व स्वस्थ समस्त परिवार को एक सूत्र में बांधकर रखने वाली थी।


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