Kapil Shastri

Drama Others

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Kapil Shastri

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नहीं! कभी नहीं

नहीं! कभी नहीं

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'ज़िन्दगी लेके आयी है बीते दिनों की किताब' साल 2019 जाते-जाते एक वैश्विक महामारी कोविड-19 देकर गया था। नए साल 2020 की शुरुआत ही चीन के वुहान प्रान्त से कोरोना वायरस के दुनियाभर में फैलने के साथ हुई थी लेकिन तब तक भारतीय बेफिक्र थे और जनवरी की ठंड का आनंद ले रहे थे।


इधर अपार्टमेंट के पोर्च में एक काली कुतिया ने पाँच पिल्लों को जन्म दिया था। वो सब माँ के थनों पर झूम जाते और आपस मे भी किसी संयुक्त परिवार के चचेरे-ममेरे भाई-बहनों की तरह एक दूसरे के ऊपर उलटते-पलटते खूब धींगामस्ती करते। जब भी माँ धूप सेंकने पोर्च में से निकलकर सड़क पार करके सामने वाले घर के आगे जाकर बैठती तो सब अपने नन्हे-नन्हे पैरों से चलकर माँ के पीछे-पीछे हो लेते। कई बार बीच सड़क के बीचों-बीच ही अपना डेरा जमा लेते थे। जब कभी माँ उन्हें छोड़कर कहीं चली जाती तो सड़क पर ही कोई यहाँ पड़ा रहता तो कोई वहाँ। जनवरी की ठंडी गुनगुनी धूप किसे अच्छी नहीं लगती! जब छोटा सा शरीर भी पैरों के मुकाबले बड़ा होता है तो तेजी से भागते-दौड़ते नन्हे पैरों की एक रिदम बन जाती है जो इतनी तीव्र होती है कि दृष्टि भ्रम पैदा कर देती है जैसे किसी फ्लिप ओवर बुक को तेजी से पलटने पर होता है। वह रिदम मन को बहुत सुहाती है।


पाँच से चार, चार से तीन फिर कुछ दिन तीन का आंकड़ा बना रहा फिर दो और अंत मे एक गोरा ही बचा बल्कि ध्यान से देखने पर मालूम हुआ कि सिर्फ गोरी ही बची। काली माँ की गब्दुल्ली सी गोरी हल्की भूरी बच्ची। मूक जानवर ही सही सभी सावधानियों के बावजूद एक माँ तेजी से अपने बच्चे खोती जा रही थी। जीवित रहने के लिए थोड़ा बड़े होना भी आवश्यक हो गया था और बड़े होने के लिए सुरक्षित रहना। कम से कम एक ज़िन्दगी तो बची रहे सभी की यही मंशा थी। तेज रफ्तार भागती बेरहम दुनिया से नन्हीं जिंदगियां अनजान थीं। एक के बाद एक चार पिल्ले गाड़ियों के नीचे आकर कुचले गए थे। एक टक्कर, मुँह से जरा सा खून निकलना और नन्ही सी जान खत्म।


सुदेश जी बाहर निकलने से पहले अपार्टमेंट का गेट लगाने लगे थे ताकि ये आखिरी वारिस बाहर न निकल जाए। लगने लगा था कि माँ बेटी भी सचेत हो गईं थीं। एक माँ पर अपनी बेटी को सुरक्षित बड़ा करने की जिम्मेदारी आ पड़ी थी। इतने चपल, चंचल जीव की चपलता का खो जाना व उन्हें गुमसुम पड़ा हुआ देखना जी कड़वा कर गया था। जहाँ पाँच-पाँच पिल्ले दूध पीते थे वहाँ अब एक ही बची थी। रोड पर निश्चिंत सोई हुई छोटी सी काली रंगत की ज़िन्दगी रात के वक्त तेज रफ्तार चालकों को एकाएक दिखाई नहीं देती। इसका गोरी होना भी उसके बचने का एक कारण हो सकता था।


अब सुदेश जी जब भी नीचे उतरते एक कटोरा दूध लेकर ही उतरते जिसे माँ-बेटी मिलकर चप-चप पी जातीं। नीचे के फ्लोर पर रहनेवाला एक शांत सा स्टूडेंट लड़का भी उन्हें नियमित रूप से दूध ब्रेड खिलाने-पिलाने लगा था और उनके लिए एक कटोरा रख दिया था। अब सुदेश जी जब भी नीचे उतरते तो चार आशा भरी चमकीली आँखे उन पर केंद्रित हो जातीं और दो पूँछें तेजी से हिलने लगतीं। जब कभी उनके लिए दूध लेकर नीचे उतरना भूल जाते तब भी वो दोनो पैरों के आसपास मंडराते हुए गेट तक पीछा करतीं। उनकी अपेक्षाओं व विश्वास ने सुदेश जी पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना शरू कर दिया था इसलिए मार्केट से ही दस रुपये का छोटा पैकेट खरीदना पड़ता था ताकि वापस लौटने पर फिर एक पालनहारे से उम्मीदें व्यर्थ न जाएँ।


इधर सुदेश जी का इतना लगाव देखकर उनकी पत्नी रीमा भी मार्केट से उनके लिए पार्लेजी बिसकिट्स का पैकेट लाने लगी थी।एक नए पालनहारे के मिलते ही बढ़ती बच्ची का उल्टा-सीधा लेटकर प्यार करवाने के लिए इठलाना, इतराना शुरू हो चुका था।सिर्फ पेट पूजा ही अब लक्ष्य नहीं रह गया था बल्कि पल भर के लिए कोई हमे बच्चोंवाला प्यार कर ले वाली फीलिंग भी आ गयी थी। जब कभी वो बच्ची दिखाई नहीं देती और सुदेश जी रीमा से बोलते कि "आज तो दिखाई नहीं दे रही है" तो यकायक पैरों के पास एक सरसराता स्पर्श महसूस होता और वो दोपहिया वाहनों के बीच से निकलती हुई एकाएक प्रगट हो जाती। नीचे देखने पर ऐसे देखती जैसे कह रही हो "देखो मैंने कैसा सरप्राइज दिया न! मैं कहीं नहीं जाऊँगी, यहीं रहूँगी।"अपार्टमेंट का प्यार भरा माहौल उन्हें अतिउत्साहित रखे हुए था। कुछ लोगों को शिकायत भी थी कि इसके कारण पोर्च में गंदगी हो रही है परंतु स्वीपर भी रोज़ साफ-सफाई करके पूर्ण सहयोग कर रहा था।


मार्च आते तक कुछ विवाह आयोजन शुरू हो चुके थे। सुदेश रीमा की महानगर में नौकरी कर रही बेटी निकिता उर्फ निक्की छुट्टी लेकर अपनी दो सखियों का विवाह अटेंड करने आई थी फिर लॉकडाउन लग गया और कंपनीद्वारा वर्क फ्रॉम होम दे दिया गया।कोरोना वायरस के संक्रमण का खतरा और मौतें बढ़ती जा रहीं थीं। सोशल डिस्टेंसिङ्ग लॉकडाउन से ही संभव था। लॉकडाउन की खबर लगते ही लोगों ने सबसे पहले एक-एक मीटर के फ़ासले पर बने गोलों में धैर्यपूर्वक खड़े होकर थोक में किराने की लिस्ट थमाई परंतु दुकानदारों ने ट्रांसपोर्ट की परेशानी और स्टॉक की पोजीशन को देखते हुए कम-कम समान ही दिया। पहले ग्राहक राजा हुआ करते थे अब दुकानदार राजा बन गए थे जो एक अहसान जताकर माल दे रहे थे कि इस संक्रमण का खतरा मोल लेकर हम आपको माल दे रहे हैं। बाद में जो माल आया उसके रेट्स बढ़ चुके थे।


सुदेश रीमा को संतोष था कि बेटी लॉकडाउन घोषित होने से पहले ही आ गयी नहीं तो वहाँ फँस जाती और वो दोनो चिंतित होते रहते।


इधर अब तक छोटी कुतिया का नामकरण ब्राउनी नाम से हो चुका था। अब वो अपनी माँ के साथ अपरिचितों पर तीखी आवाज़ में भौंकना भी सीख चुकी थी। जब निक्की आयी तो वो उस पर भी भौंकी। उसके लिए तो निक्की एक अपरिचित ही थी।

निक्की को तो बचपन से ही कुत्तों के पिल्लों से बड़ा प्रेम था। उनके लिए दवाइयों के कार्टन में घर भी बनाया करती थी। लाड़-दुलार और दूध, बिस्किट देकर वो भी जल्द ही ब्राउनी की एक नई दोस्त व पालनहार बन गयी।


सुदेश और रीमा खुश थे कि अब बेटी घर से ही काम भी कर रही है और उनके पास भी है। निक्की अपने सिर्फ दो-तीन सूट लेकर ही आयी थी लेकिन अप्रैल-मई में उसने मम्मी के सूट से ही काम चला लिया। सुदेश जी सोचने लगे थे कि "अच्छा हुआ कि लड़की हुई अगर लड़का होता और मुझसे ज्यादा हट्टा-कट्टा, लंबा-तगड़ा होता तो क्या होता!" जून में लॉकडाउन खुला तो रीमा ने कुछ नए कपड़े व सौंदर्य प्रसाधन के आइटम्स दिलवा दिए थे। लॉक डाउन खुलने के बाद भी 'महल उदास और गालियाँ सूनी, चुप-चुप हैं दीवारें'वाली ही स्थिति थी।बाजार की पहले वाली रौनक खो चुकी थी।कपड़े,दवाइयाँ, सैनिटाइजर तो लोग खरीद रहे थे पर खाने के स्टॉल्स सूने पड़े थे।


रीमा और निक्की मार्केट जाने के लिए मास्क लगाकर जब भी हँसती-खिलखिलाती नीचे उतरतीं और ब्राउनी को उसकी माँ के साथ मस्ती करते हुए देखतीं तो रीमा दिखाते हुए कहती, "ये देखो ये अपनी तरह की माँ-बेटी हैं।तू भी जब छोटी सी थी तो मुझसे खूब लड़ती थी।"


अभी भी जब कभी वर्क फ्रॉम होम से फ्री टाइम मिलता तो निक्की प्यार से मम्मी के ऊपर चढ़ जाती। मम्मी बोलती, "अरे बेटा, अब तू वो छोटी सी निक्की नहीं रही, बहुत भारी हो गयी है, मैं बुड्ढी हो गयी हूँ, मेरी नाभि सरक जाएगी।"


निक्की अट्टाहास लगाकर बोलती, "आप और बुड्ढी!" सुदेश जी चाहते थे कि उनकी बेटी उन्हें भी इसी तरह प्यार करे परंतु अफसोस बाप तो बाप ही रहता है लेकिन बेटी बहुत जल्दी बच्ची से जवान लड़की बन जाती है। एक बार सुदेश जी ने बेटी को पीछे से प्यार से अपनी बाहों में भींच लिया तो उसने ऐसा धक्का दिया कि वो दीवार पर फ्रेम में लगे एक लंबे से शीशे से टकराये और शीशे में दरारें आ गईं। उन्होंने सबसे पहले अपना चश्मा संभाला। अब वो बचपनेवाली कमजोर निक्की नहीं रह गयी थी जबकि सुदेश जी की उम्र ढलती जा रही थी और वो शक्ति, स्फूर्ति नहीं रही थी जो जवानी में थी। मज़ाक ही मज़ाक में एक अपशकुन और धार्मिक विचारोंवाली रीमा का बहुत बड़ा नुकसान हो चुका था क्योंकि इस लंबे शीशे में ही उसे अपना पूरा बदन दिखता था जिससे कितना इंच लॉस हुआ है वो ये देख सकती थी और देखकर सुदेश व अपनी बहनों को गर्व से बता सकती थी कि उसकी अथक मेहनत, लगन व डाइटिंग का त्याग आज क्या रंग लाया। एक दो इंच लॉस होना ही महान उपलब्धि में गिना जाता था। वेट लॉस देखने के लिए पलंग के नीचे वेइंग मशीन भी थी। इंच लॉस और वेट लॉस मिलकर तो जैसे सोने पर सुहागा हो जाता था। हालाँकि एक स्वीट डिश खाते ही इस लॉस पर पानी फिर जाता और एक मुट्ठी भींचने वाला अफसोस ही बचता कि "मैंने क्यों खा लिया।" उसके लिए तो ये बहुत बड़ा नुकसान था। "काँच टूटना कितना बड़ा अपशकुन होता है, तुम दोनों जानते हो!" बाप-बेटी पर उसका तीसरा नेत्र खुल चुका था। भयभीत सुदेश जी ने फौरन इसका दोष बेटी पर डाल दिया कि उसने ऐसा धक्का दिया कि मैं लड़खड़ा गया। निक्की ने भी चिढ़कर जवाब दिया कि, "समझा लो अपने पति को, मुझे परेशान किया तो अच्छा नहीं होगा।"


काँच टूट जाने का जिक्र रीमा ने नीचे के फ्लोर पर रहने वाले शर्मा जी और मिसेस शर्मा से भी किया तो शर्मा जी बोले कि, "भाभीजी ये अपशकुन नहीं है बल्कि ये समझिए कि कोई बहुत बड़ी बला टल गई। वैसे भी बहुत बुरा समय चल रहा है।" इस तरह शर्मा जी ने रीमा की भ्रांति को दूर करके इसे शुभ होना बताया। रीमा ने क्रोध शांत होने पर सुदेश जी को निश्चिंत किया कि, "ये बुरा नहीं ये तो अच्छा हुआ।" एक ही किवदंती के पीछे दो अलग-अलग मानसिकताएं हैं।


इधर ब्राउनी तो और जल्दी बड़ी हो गयी और माँ के आकार की ही हो गयी। अब सिर्फ अपार्टमेंट वाले ही बता सकते थे कि गोरी वाली बेटी है और काली वाली माँ है। आहार के लालच में आये अन्य कुत्तों को अब वह दोनो भौंक-भौंक कर भगा देतीं जैसे कह रहीं हों कि, "खबरदार जो इधर आये तो, इस अपार्टमेंट और इस इलाके पर हमारा एकछत्र राज्य है।" और इधर रीमा को भी जब ऐसे ही कुछ अनभिज्ञ लोग निक्की की बड़ी बहन बता देते तो बड़ी इठला कर सुदेश से बोलती कि, "वो तो मुझे निक्की की बड़ी बहन ही समझ रहा था वो तो निक्की ने जब बोला "मम्मी" तब समझा कि मैं उसकी मम्मी हूँ।"


वर्क फ्रॉम होम से वर्कलोड और बढ़ गया था। निक्की सारे दिन दरवाज़ा लगाकर अपने कमरे में लैपटॉप पर काम करती रहती थी जो रात में सात-आठ बजे तक चलता। एक दो बार तीनों के ही बाहर जाने के दौरान वो अपना लैपटॉप लेकर कार की पिछली सीट पर बैठ जाती थी और काम करती रहती थी। एक बार रैश ड्राइविंग देखकर रीमा के मुँह से चालक के लिए भद्दी सी गाली निकल गयी फिर एकदम से अपनी भूल का अहसास हुआ और मुँह पर हाथ रख लिया। निक्की ने घूर कर देखा और चिल्लाई, "मम्मी, मैं काम कर रही हूँ, अच्छा हुआ मैंने माइक ऑफ कर दिया था।"


"आई एम सॉरी, निक्की, अगर तेरे कलीग्स और बॉस मेरी गाली सुन लेते तो सोचते कितनी लड़ाकू और असभ्य माँ है इसकी।" रीमा ने झेंपते हुए अपनी बेटी से अपने इस व्यवहार के लिए माफी माँगी।


"बाहर निकलो तो ड्राइविंग के वक्त बहुत धैर्य रखना पड़ता है, क्रोध से काम नहीं चलता है।" सुदेश ने पत्नी को समझाते हुए कहा था।


इधर रीमा भी अपने स्टूडेंट्स की क्लास सुबह-सुबह ऑनलाइन ही ले रही थी। बाई आ नहीं रही थी इसलिए तीनो ने अपना-अपना काम बांट लिया था। सुदेश जी ने बर्तन का जिम्मा लिया था तो निक्की ने झाड़ू-पोछे का, वाशिंग मशीन लगाने का और खाना बनाने का जिम्मा यकीनन रीमा का था। इस दौरान रीमा ने अपनी बेटी की पसंद का खूब ख़याल रखा। उसकी मनपसंद डिशेस बनाकर ख़िलायीं।पापा सुदेश ने भी चाय बनाकर बिस्तर पर ही उसके सामने हाज़िर की।


'बिन पूछे मिले हमें कितने सारे जवाब, चाहा था क्या पाया है क्या हमने देखिये!' क्यों रिन की बट्टीयाँ इतनी जल्दी खत्म हो जाती थीं? क्यों मोटी रामबुहारी (झाड़ू) पतली हो जाती थी? क्यों तीखी किनोरवाले स्टील के गिलास में गूंजा घुसाकर मांजने में बाई की उंगलियों के पोर कट जाते थे? कैसे थालियों में अपने द्वारा छोड़ी गई जूठन सिंक की मोरी में फँस जाती थी? क्यों रोज़-रोज़ बर्तनों का ढेर देखकर बाई नाक-भौं सिकोड़ती थी? क्यों पाँच किलो आटे का पैकेट इतनी जल्दी खत्म हो जाता था? रोटी बनानेवाली बाई जब पूर्व में ही सूचित करती थी कि, "खत्म होने वाला है, आज ही ले आना" तो बड़ा गुस्सा आता था। सिंक में जमा पानी अंत मे निकलते-निकलते ऐसी आवाज़ करता जैसे कोई कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को जमकर चूम रहा हो।


लॉकडाउन तो हट गया था लेकिन कोरोना संक्रमण का खतरा अभी टला नहीं था। ऐसे में शनिवार-रविवार की छुट्टी का आनंद लेने के लिए निक्की की सहेलियों का किसी एक के घर पार्टी के लिए बुला लेना फिर किसी दूसरे का अपने घर बुला लेना और फिर तीसरी का... कहने को यह था कि आज श्रेया के घर है फिर किसी दिन एंड्रिया के यहाँ है तो फिर समीक्षा के यहाँ है परंतु हर जगह चेहरे वही होते थे पर माँ-बाप को बताने के लिए आयोजक का ही नाम बताया जाता था। माँ रीमा को यह बहुत अखरने लगा था। "इतना समय तो कंपनी खा जाती है और जो छुट्टी के दिन मिलते हैं तो उसमे इनकी दोस्त लोग बुला लेती हैं। ऐसा लगता है कि पास होकर भी पास नहीं है।" ऐसा बोलकर वो उसकी अनुपस्थिति में पति सुदेश से शिकायत करती।


"वो भी पक गयी है, कब तक घर मे ही रहेगी, थोड़ा दोस्तों के साथ उठ बैठ लेगी तो खुश और फ्रेश हो जाएगी।" सुदेश बेटी का पक्ष रखकर सात्वना देता था।


इधर निक्की को कंपनी में काम करते-करते दो वर्ष हो चुके थे व अट्ठारह लोगों की टीम को लीड कर रही थी फिर भी उसकी तनख्वाह अपने जूनियर्स से कुछ हजार रुपये ही ज्यादा थी। कंपनी के अच्छे मित्रवत वातावरण के बावजूद इस बात से वह असंतुष्ट थी। वर्क फ्रॉम होम के दौरान ही उसने कुछ कम्पनीज के ऑनलाइन इंटरव्यू दिए और एक कंपनी में हायर पैकेज पर सिलेक्शन हो गया। उसने मम्मी-पापा को गर्व से बताया कि अब वह नई कंपनी में ऊँचे ओहदे व हायर पैकेज पर काम करेगी व वर्तमान कंपनी को रिलीव करने के लिए पंद्रह दिन पहले का नोटिस दे दिया है। सुदेश और रीमा को अपनी बेटी की उपलब्धि पर खुशी तो हुई पर एक चिंता भी थी कि अब बेटी को कंपनी की प्रॉपर्टी (लैपटॉप) वापस करने के लिए फिर उसी राज्य में जाना पड़ेगा जहाँ कोरोना संक्रमण सबसे ज्यादा फैला हुआ है।


स्कूल टाइम में निक्की पढ़ने में इतनी होशियार नहीं थी। हर पेरेंट्स टीचर मीट में माँ रीमा को इतना शर्मिंदा होना पड़ता था कि एक दिन हारकर उसने सुदेश को ही ये जिम्मा दे दिया था कि, "अब तुम्हीं अपनी बेटी को संभालो। तुम्हारी भी तो बेटी है, तुम्हारा भी फ़र्ज़ बनता है।" स्वयं एक शिक्षिका की बेटी का निराशाजनक प्रदर्शन तो दियातले अंधेरा जैसी बात थी। फिर भी निक्की सदैव ऊर्जा से भरपूर रहती थी।फुल ऑफ एनर्जी क्योंकि हमेशा उसके पेपर्स बहुत अच्छे जाते थे और वो उत्साह से बताती भी थी कि, "पापा, आज तो क्या पेपर गया है!" बस बिचारी का रिजल्ट ही अच्छा नहीं आता था।


पापा के साथ भी जब वो स्कूल गयी थी तो सबसे पहले उसने प्रिसिपल ऑफिस के सामने सर झुकाए खड़े उन पालकों की कतार दिखाई थी जिनके बच्चे फैल हो गए थे। यानी वो बताना चाहती थी कि तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो, "पापा आप उन पिताओं से कितनी बेहतर स्थिति में हैं।" क्लास रूम में गए थे तो देखा था कि एक दक्षिण भारतीय लड़की और उसकी माँ क्लास टीचर के सामने आँसुओं से रो रहीं थीं। सुदेश जी ने निक्की से आश्चर्य से पूछा था कि, "क्या ये फैल हो गयी है?" निक्की ने बताया था कि नहीं, ये एक नंबर से मेरिट लिस्ट में आने से चूक गयी है इसलिए रो रही है। इसके जितने नंबर हैं उसमे तो हमारे जैसी दो-तीन लड़कियाँ पास हो जाएं। निराशाजनक प्रदर्शन में भी कितनी सकारात्मक सोच थी निक्की की। पेरेंट्स टीचर मीट एक ऐसा भव्य, भयभीत करनेवाला, गरिमामयी आयोजन होता था जिसके लिए गा सकते हैं कि 'लाला, मुंसि, पुजारी, सिपहिया, हल्का-भारी सभी तुल जाए, मंगल, मंगल, मंगल, मंगल, मंगल मंगल हो' यानी राजा और रंक सभी बराबर हो जाते थे। इसमे परिचित पेरेंट्स भी जमीन में नज़र गड़ाए चलते थे और एक दूसरे से पहचान छुपाने का भरसक प्रयास करते थे।


वैसे बचपन से ही निक्की के शैक्षिक इतिहास में उसके प्रदर्शन को लेकर लाड़-प्यार में कभी कमी नहीं की गयी थी। उसके अतिउत्साहित रवैय्ये को देखकर कभी-कभी मम्मी उसको प्यार से गोद मे लेकर बोलती थी, "मेरा ढें बच्चा।"


ये वाली पी.टी.एम.इसलिए भी यादगार थी क्योंकि जब भी रीमा साथ जाती थी तो उसके पास अपनी बच्ची की सुरक्षा में पहले से तैयार रेडीमेड बहानो और भविष्य में बेहतर करने के आश्वासनों का भंडार होता था जैसे "मेहनत तो बहुत कर रही थी पर इन दिनों बीमार भी बहुत रही।" जैसे चूहे का बच्चा हाथी के बच्चे से बोले कि उम्र तो मेरी भी आठ साल है लेकिन बीमार कुछ ज्यादा रहा। परंतु इस बार सुदेश जी का तरकश खाली था। क्लास टीचर ने उन्हें तबियत से ज़लील किया था। घर आकर निक्की पहली बार मम्मी से चिपक कर रोई थी और बोली थी कि, "मैडम ने पापा को बहुत सुनाया,बिचारे पापा कुछ नहीं बोल सके बस शांति से सुनते रहे।"


बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही बिचारी गा पायी थी कि 'दुख भरे दिन बीते रे भैया,अब सुख आयो रे,रंग जीवन मे नया लायो रे।'क्योंकि कॉलेज में आते साथ ही ब्यूटी क्वीन मिस कॉलेज का प्रतिष्ठित खिताब उसने जीत लिया था। एक नृत्य नाटिका में भी रेड कैंडी चूस कर लाल-लाल ज़ुबान बाहर निकालकर महिषासुर मर्दिनी का रोल बखूबी निभाया था। महिषासुर बने दोस्त की कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग कर उसे तैयार करने में भी रुचि दिखाई थी। हर प्रोजेक्ट वर्क को उत्साह से पूरा किया। मम्मी की स्कूटी तो वह आठवीं क्लास से ही चलाने लगी थी। हायर सेकेंडरी तक आते ही उसे मम्मी ने एक नई स्कूटी भी दिलवा दी थी। कॉलेज में आकर तो जैसे पंख लग गए थे। दोस्तों के साथ घूमने-फिरने में जब बहुत देर हो जाती और मम्मी फ़ोन करती कि, "कब तक आ रही है?" तो एक संवाद फिक्स था, "ऑन द वे हूँ मम्मी, अंडरब्रिज तक आ गयी हूँ।"


इधर वर्तमान कंपनी की रिलीविंग लेटर देने की कोई मंशा नज़र नहीं आ रही रही थी। हायर मैनेजमेंट से बातचीत चल रही है यही बहाना करके टाल रहे थे। निक्की ने सप्टेम्बर की शुरुआत में जाने का एयर टिकट बुक करवा लिया था। रीमा और सुदेश का दिल बैठा जा रहा था। छह महीने साथ मे रहने से फिर मोह उत्पन्न हो गया था। कोरोना वायरस का खतरा तो बना हुआ था लेकिन निक्की भी अपने इरादे पर दृढ़ थी कि काम तो करना ही पड़ेगा,कब तक डरते रहेंगे।रीमा और सुदेश ने उसे भारी मन से उसे विदा किया था।


वहाँ पहुँचने पर निक्की ने बताया कि उसकी कंपनी ने उसका सैलरी पैकेज जिसे उनकी भाषा मे सी.टी.सी.कहते हैं बढ़ा दिया है और जाने नहीं दिया। नए इलाके में नई कंपनी के लिए नया फ्लैट ढूंढना और उस कंपनी में जबरदस्त वर्कलोड के बीच नए वातावरण में स्वयं को ढालना, यहाँ तुम अट्ठारह लोगों को लीड कर रही हो, वहाँ तुम्हे अट्ठारह लोगों के नीचे काम करना पड़ेगा जैसी समझाइश का असर हुआ था।


बात निकली तो दूर तलक गई, जी हाँ जर्मनी तक। वहाँ टॉप मैनेजमेंट हँस रहा था कि ऐसे समय में जब हम खुद लोगों को नौकरी से निकाल रहे हैं एक ऐसी लड़की का इशू डिसकस कर रहे हैं जिसे कंपनी किसी हाल में छोड़ना नहीं चाहती। बात अगर सिर्फ पैसों की है तो इतनी योग्य लड़की का सी.टी.सी. बढ़ा दिया जाय।


जिस कंपनी में सेलेक्शन हो गया था जब उन्हें जॉइन करने से मना किया तो वो और बढ़ाने को तैयार थे लेकिन निक्की ने कई प्रोजेक्ट्स के प्रति अपना कमिटमेंट दर्शाकर आने में असमर्थता प्रगट कर दी थी।


इधर घर मे फिर तीन की जगह दो कप चाय बनना शुरू हो गईं थी। सुबह नींद से उठने पर ऐसा अहसास होता कि निक्की रूम में ही सो रही है।फिर खाली बिस्तर उसकी याद दिला देते।


ब्राउनी हट्टी कट्टी होती जा रही थी और उसकी माँ दुबली कमजोर नज़र आ रही थी। रीमा ने उसको दूध-ब्रेड देने की कोशिश की तो ब्राउनी ने अपनी माँ को भी भौंक-भौंक कर भगा दिया और सब खुद खा गई। रीमा इस घटना से काफी आहत हो गयी थी।क्योंकि जब ब्राउनी छोटी थी तो माँ पहले उसको खाने देती थी फिर खुद खाती थी।


रीमा के अवचेतन पर इस घटना ने ऐसा असर डाला था कि एक रात सुदेश जी रीमा के हिचकियों से रोने पर हड़बड़ाकर उठ बैठे फिर रीमा को हिलाकर उठाया, पानी पिलाया और पूछा, क्या हो गया? क्यों रो रही हो?


रीमा रोते-रोते बोली "नहीं! कभी नहीं, मेरी निक्की कभी ऐसा नहीं कर सकती। वो तो मुझसे बहुत प्यार करती है।"


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