सोलमेट
सोलमेट
"रमा क्या हुआ उदास क्यूँ बैठी हो!"
राकेश कुमार जी ने टीवी से नज़रें हटा कर पूछा तो सर्द आवाज़ में उत्तर मिला-
"नहीं तो !" "अरे जैसे मैं तुम्हारा चेहरा पढ़ना नहीं जानता! देखो तो आँखों में कैसे मोती झिलमिला रहे हैं!"
"अरे वो तो अभी प्याज काटे न! तभी !"
"प्याज ! दो घंटे पहले सब्जी बनायी थी तुमने! अब मुझसे भी झूठ बोलने लगी। बोलो क्या बात है!"
"बस माँ की याद ....!"
"अरे इतनी सी बात! चलो इसी रविवार मिल आते हैं उनसे!"
"नहीं! रहने दीजिए !"
"पर क्यूँ!"
"वापिस आकर माँ की याद और सताती है, मन और अधिक उचाट हो उठता हैं, उथल-पुथल और गहरी हो जाती है!"
दीर्घ श्वास के साथ भर्राई आवाज़ ने वातावरण को और उदासी से भर दिया। राकेश कुमार जी रमा के करीब जाकर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले-
"रमा! बाबूजी के जाने के बाद वे बहुत अकेली हो गयी है तो तुम बीच बीच में जाकर मिल आया करो।" "इतना आसान कहाँ है सब! आपको, बच्चों और मांजी को किसके सहारे छोड़कर जाऊँ!"
"....तो उन्हें ही यहाँ लिवा लाओ!"
" यहाँ.....लेकिन !
"रमा! बहुत दिन से तुम्हारा उतरा चेहरा देख रहा हूँ। बाबूजी के जाने के बाद से तुम्हारा शरीर तो यहाँ है पर मन ....माँ की ओर!"
".....वो अकेली न होती तो शायद.... इतनी चिंता न होती मुझे !"
"तभी तो कह रहा हूँ कि उन्हें यही ले आओ! यूँ आधी अधूरी बेटी होने की दुविधा से निकल कर पूरी पत्नी, बहू, बेटी और माँ का दायित्व तो निभा पाओगी और यूँ पल पल खुद को कोसोगी तो नहीं!"
"पर क्या ये कह भर देने जितना आसान होगा!"
"ठान लो तो सब आसान होगा ! और फिर मैं हूँ न तुम्हारे साथ! तुम्हारा सोलमेट!"