सोच में अमीरी
सोच में अमीरी
"माँ, बगल वाली आंटी के दूकान में देख़ो कितनी भीड़ है। चलो, उसी में से मछली खरीदते हैं । जरूर वहाँ ताजी मछली होंगी, तभी इतनी भीड़ है !"
" सुनो, मैं उसके दूकान से कभी मछली नहीं खरीदती । सामने वाले दूकान से ही लेती हूँ । " माँ ने कड़क आवाज़ में जवाब दिया ।
" आज मैं तुम्हारे साथ बहुत दिनों बाद आई हूँ, मेरी बात मान लो..प्लीज ।" बेटी ने मधुरता से कहा ।
" अरे बेटी ! उसे देखो, अपने पेटिकोट और साड़ी को घुटनों से ऊपर समेटे वो निर्लज्ज की भांति कैसे बैठी है ! इसलिए वहाँ मर्दों की अधिक भीड़ लगी रहती है । लो- मेन्टेलिटी की बेहाया औरत है !" उसने कीमती पर्स को कंधे पर लटकाये हुए ऐसा कहा ।
बेटी की खामोश नजरें ...अब माँ के डीप गले वाली ब्लाउज से झांक रहे उभार पर चिपक गई ! वो तुरंत, माँ के स्तन को उसी के आँचल से ढँकने का प्रयत्न करते हुए बोली , " बेचारी गरीब है ! मछली के छींटे पड़ने से कपड़े खराब न हो जाय ! शायद, इसलिए इस तरह से बैठी होगी!" बेटी के मुँह से अप्रत्याशित जवाब सुनते ही माँ का मेकअप पसीने के साथ बह निकला और उसका तना गर्दन हारे खिलाड़ी की तरह जमीन को देखने लगा ।
" माँ! सोच में अमीरी झलकनी चाहिए, पहनावे में नहीं । " कहने के साथ बेटी के कदम मछली वाली औरत की ओर चल पड़े ।
