सोच की क्षमता
सोच की क्षमता
मैं जब जबलपुर जा रही थी तो रेलगाड़ी के एक डिब्बे में एक शख्स मिला। मैं अपने में खोई हुई थी, किसी ख्यालों में, कुछ सवालो में उलझी हुई थी। शायद उसने भांप लिया था।
वो कहने लगा मेरी तंद्रा को तोड़ते हुए, आप इतना क्यूँ सोच रही हो, इतना सोचोगे तो पागल हो जाओगे। ताले लगा ले अपनी सोच पर ताकि सकुन से समय गुजरे।
मुझे उनकी बातें ना गवार लगी, और मैं टूट पड़ी उस पर अपने शब्दो की तलवार लिए, कहा- क्यूँ लगाऊँ ताले,
क्या छुपाना है मुझे जो ताले लगाऊँ। ताले तो वहाँ पर लगाए जाते हैं जहाँ पर चोरी का डर हो। जहाँ पर अनमोल चीजें रखी हो, वहाँ होते हैं ताले, अपनी सोच अपना प्यार ये सब अनमोल है, फिर भी इन पर ताले नहीं लगाए जाते। ये सब तो बाँटने की चीज है।
जितना बाँटोगे उतना बढ़ेगा। अपनी सोच को बाँटने से उसमें विस्तार आता है। फैलाव आता है खुद में, मेरी बातें सुनकर वो हँस पड़ा।
उसकी हँसी व्यंग्यात्मक सी थी, पर मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। मैं अविराम सोचती रही जब हम कही जाते है तो रास्ते में बहुत से पड़ाव आते हैं, पर ज़रुरी नहीं कि हम वहाँ रुके।
हमारी सोच तो सागर की तरह है जिसका कोई ओर नहीं कोई छोर नहीं, अनगिनत लहरें उठती रहती है।
जिसकी गहराई का पता नहीं, अथाह सागर सी है हमारी सोच की क्षमता।
