संथाली कटार
संथाली कटार
बिहुनी को लोग सांथाली कटार ही कहते। थे कस कर बाँधी साडी यौवन को छुपता हुआ और यौवन भी बागी हो गया था जो छलक छलक पडता था ऊपर से काला रंग जैसे और कहर ढाता था। दिन भर बिहुनी लकडी बिनती और शाम को अपने बिहुना के महुआ पीकर अपने जब रास रचाते हुये अपनी भाषा में गाती तो लगता कि सारा जंगल रास रचा रहा हो।
मजाल है कोई उसको छूकर देख लें तुंरत गाली देती। पता नहीं बिहुना को कौन सा भूत लग गया कि वह बीमार रहने लगा,ओझा गुनी सब ने झाड फूंक सब कर डाला हालत जो बिगडी तो सांस के साथ छूटी, माटी में दफना दिया गया बिहुनी तो जैसे पागल हो गयी।
लोग समझाते रहे पर ना समझना था। ना समझी। रोज का नियम वही रहा दिन भर काम करती और शाम को जहाँ बिहुना को दफनाया गया। वहीं बैठ कर महुआ पीती और गीत गाती लोगों ने बहुत कोशिश की पर नहीं सुधरी।
एक दिन उसकी लाश वहीं पायी गयी या अपने बिहुना के पास चली गयी। शायद इसी को चाहत कहते हैं।