संत राम
संत राम
हुज़ूर !! तीन हज़ार की ज़रूरत है, अगर मिल जाये तो मेहरबानी होगी। हाथ जोड़ कर संत राम ने एस॰डी॰ओ॰ साहब की तरफ़ देखा।
आज नहीं है, परसों आ कर ले जाना। और हाँ वापिस कब करोगे ?
जी, दो महीने बाद वापिस कर दूँगा। संत राम के हाथ अभी भी जुड़े थे।
ठीक, परसों आओ।
जी हुज़ूर , ग्यारह बजे वाली बस से आऊँगा।
संत राम एस॰ डी॰ ओ॰ साहब के गाँव का मोची। मीठी सी आवाज़ , प्रेम टपकाता चेहरा। सर्दी भर चार खाने की काली / सफ़ेद खेस लपेटे रहता। गाँव भर के मरे जानवरों को घसीट कर ले जाना, उसकी चमड़ी उतारना संत राम का ही ज़िम्मा था।
हम बच्चों के लिए संत राम एक डरावना आदमी था। क्योंकि वो हमारी प्यारी गायों की खाल उतार लेता। कभी रास्ते में खेस ओड़े दिख जाता, तो हम उस से दूर भाग जाते।
जब भी घर आता, आँगन के कोने पर आ कर बैठ जाता। बिजली के मीटर के पास ही बरामदे की छत में उसकी एक प्लेट और गिलास रखा रहता। वो अपने बर्तन में चाय पीता, खाना खाता अपने बर्तन धो कर तय जगह रख देता। कुल मिला कर संत राम मेरी दृष्टि में एक दीन/ हीन बेकार आदमी था।
एक बार अम्मा के समझाने के बाद मैंने संत राम को नमस्ते करना शुरू कर दिया। नमस्ते के जवाब में संत राम बड़े प्रेम से पूरे घर का हाल चाल पूछता।मुझे अब वो अच्छा लगने लगा। फिर भी मेरी दृष्टि में वो एक माँगने वाला था, जो किसी को कुछ भी वापिस नहीं करता।
एस॰ डी॰ ओ॰ साहब यानी दादा जी से रुपये उधार लेने के ठीक दो महीने बाद पूरे तीन हज़ार रुपये ले कर हाज़िर था। सौ / सौ के तीस नोट। मैंने ही गिने थे। इस के बाद कई बार संत राम उधार ले गया, एकदम तय समय पर वापिस करने।
मेरी नज़र में उसकी इज़्ज़त बहुत बड़ गयी। गरीब होना शायद भाग्य की बात हो, पर अपनी बात का पक्का होना यह संत राम ने मुझे सिखाया।