सन्नाटा
सन्नाटा
बाहर कार रूकी, घर में हलचल मच गई...आ गये...आ गये..की गूँज मच गई। आज मीनू को देखकर रिश्ता तय होना था, मीनू के पिता निश्चिंत थे, यह रिश्ता तो होकर रहेगा। मीनू मल्टीनेशनल कंपनी में बहुत बढ़िया वेतन पर नौकरी कर रही है। कौन मूर्ख होगा कि ऐसा रिश्ता छोड़ेगा।
स्वागत- सत्कार हुआ, मीनू आई, नमस्ते किया, संग बैठाया विवेक की माँ ने। बातचीत शुरू किया मीनू से...
हाँ तो बेटी...घर के उत्तर दायित्व के बारे में तुम्हारे क्या ख्याल है....मीनू कुछ बोलती, पहले ही मीनू के पिताजी बोल पड़े।
अरे बहनजी...आप भी, नौ से सात की नौकरी है, समय कहाँ निकाल पाती है फिर आपके रहते घर की क्या चिंता...
अच्छा बेटा, खाना वगैरह बनाने में कोई रुचि है...मीनू के बोलने से पहले ही मीनू की मम्मी बोल पड़ी...
हमने मीनू की परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ी है, बेटा-बेटी में कोई भेद नहीं किया है, अभी तक इसने एक गिलास पानी तक लेकर नहीं पिया है। आप भी तो बहू-बेटी में कोई फर्क नहीं करेंगी, इतना तो विश्वास है हमें। घर के कामों का क्या, वे तो नौकर-चाकर कर देते हैं। फिर आप तो हैं ही, हमें पूरा यकीन है कि आप भी मीनू को वैसे ही रखेंगी। बहुत गहरी नजरों से देखा विवेक की माँ ने, एक गहरी साँस भर उन्होंने....एकाएक उठते हुए बोलीं...चलो विवेक...
क्यों क्या हुआ... कूछ कहा नहीं आपने....मीनू के पापा ने हड़बड़ाकर पूछा।
कुछ नहीं भाई साहब ....मैं तो यहाँ आई थी बहू ले जाने के लिए...आप तो मुझे मालकिन देने लगे...
वे विवेक को लेकर चली....पीछे रह गया एक सन्नाटा...।।