संघर्ष
संघर्ष
वह सिर झुकाए बैठा था। पड़ोसी बता रहे थे कि, कैसे उसके पिता बँटवारे के बाद, नुक्कड़ में एक छोटी सी बेकरी चलाया करते व घर-घर जाकर "बन-बिस्कुट" पहुँचाते थे।
लोग उन्हें "रिफ्यूजी" कहकर तिरस्कृत करते थे पर वे शाँत मन से, हँसते हुए सब सहन कर लेते थे क्योंकि उन्हें अपने परिवार का पालन-पोषण तो करना ही था। हाँ उनके हाथ में हुनर था, उनके बनाए सामान में कोई किंचित मात्र भी नुक्स नहीं निकाल सकता था।
समय बीतता रहा। एकमात्र पुत्र को शिक्षा के लिए, जैसे-तैसे जुगाड़ करके लंदन भेजा। यहाँ पति-पत्नी "जिंदगी एक संघर्ष" की तर्ज पर जी तोड़ मेहनत करते रहे। समय बदला। शहर में "खाँ साहब" की बेकरी के चर्चे होने लगे। एक, दो, तीन... ना जाने कितनी "फ्रेंचाइजी" खुलती गईं। आसपास के शहरों में भी नाम होने लगा था।
बेटा लंदन में पढ़ाई, नौकरी व विवाह कर, वहीं का हो गया। खाँ साहब की पत्नी का इंतकाल हो चुका था और उन्हें बस यही दुख था कि मेरे बाद कारोबार का क्या होगा।
खैर!! समय आखिर आ ही गया था। खाँ साहब के संघर्षों में "विराम" लग चुका था। आज चौथे पर उनका "लंदन रिटर्न" बेटा.. उनके संघर्षों की यशोगाथा सुन रहा था।