संडे
संडे
आज संडे का इतना महत्व नहीं रहा और कोरोना ने तो संडे भूला दिया। रोज़ संडे ही लगता है। पहले तो संंडे जाता नहींं था और संडे का इंंतज़ार शुरू हो जाता था। ये तब की बात है जब छोटे-छोटे शहरों मेें टीवी नहीं था। हर संडेे लोग हॉल पर पिक्चर देेेखने जाते थे।
हम भी रिक्शा में बैैठ हॉल तक जाते थे। हम यानि मम्मी-पापा, भैैैया और मैं। अक्सर भैया रिक्शे में पीछे डंडे पर खडे होते थे। उस दिन वो पैंंट पहने हुए थे और बडे आराम से डंडे पर खड़े थे। बीच-बीच मेंं बातें कर रहे थे। अचानक चीखने की आवाज़ आई और पीछेे से साईकिल पर सवार लोग चिल्ला रहे थे बच्चे का पैर गया, पैर गया, रिक्शा रोको ,रोको।
जैसेे ही रिक्शा रुकी, हम पीछे पलटे और पापा कूूूद कर पिछे गए। देखा भैया की पतलून एक पैर की तरफ से रिक्शा के उस पाईप मेंं लिपटी जा रही थी लिपटतेे-लिपटते वो जांघ तक पहुँच चुकी थी इसलिए भैैया चिल्लाये थेे। पापा चिख कर बोले बताया क्योंं नहीं। ? भैया बोला कि उसेे ही पता नहीं चला।
मम्मी घबरा कर रिक्शे से निचे उतरी और भैया को गले लगा लिया। मैं तो रोने लगी। पापा ने मुझे चुप करवाया। फिर उसी रिक्शा से वापस घर आ गए। इस बार पापा ने भैैया को अपनी गोद मेंं बिठा लिया था।
घर पर सन्नाटा छाया था। फिर थोड़ी देर मेेंं मम्मी बोली आज के बाद हम सिनेमा देेखने नहीं जायेेेंंगे। पापा नेे भी हाँ मेेंं हाँ मिला दी।
फिर संंडे आया। दोपहर तक सब शान्त था,फिर चार बजे माँ ने पूूूछा कि आज शाम के खाने मेंं क्या खाना है। झट से पापा बोले "बाहर चलते हैं ।"
माँ,चौक गयी, बोली "बाहर"। पापा बोले हाँ, "बाहर,"
हर बार की तरह पहले पिक्चर देखेेंंगे छह से बारह का शो फिर "महक" मेेंं खाना खाएँगे। मैं और मेरा भाई खुशी से चिल्ला उठे। पापा बोले हर समय थोड़़े ही हादसे ह़ोते हैं । ये तो समय, समय की बात है। हमें अच्छा ही सोचना चाहिए। संडे तो मनोरंजन के लिए होता है, चल़ो चलते हैं।