प्रेमचन्द का कम्बल
प्रेमचन्द का कम्बल


मैं खाली समय में ज्यादातर कागज के पैम्पलेट के लिफाफे बनाती रहती हूं।उस दिन भी बना रही थी और साथ में रजो यानि मेरी कामवाली बाई का इंतजार भी कर रही थी।उस दिन उसे आने में थोड़ी देर हो गई थी।
तभी उसने बैल बजाई मैंने उठ कर कुण्डी खोल दी।जैसे ही मैंने दरवाजा खोला वो बोली - सोरी-सोरी मैडम जी आज देर हो गई।
मैंने पूछा - क्यों ! क्या हो गया? रजो बोली - मैडम जी नूनू (उसका बेटा) के पापा को तेज़ बुखार आ गया है।
मैंने पूछा - कैसे?वो बोली - रात को उनकी डयूटी गेट पर थी।ठंड ज्यादा थी तो शायद ठंड लग गई ,वैसे भी इन्हें ठंड ज्यादा ही लगती है ।। मैंने पूछा - क्यों जैक्ट या स्वैटर नहीं पहना था ? वो बोली - सब पहना था, पर रात को उन्हें कम्बल ही चाहिए।अभी एकही बड़ा कम्बल है जो आप ने दिया था।
सोचा था इस बार एक छोटा कम्बल ले लेगें। पर अब तो पता नहीं क्या होगा। कितनी बार बोलता है- मुझ से नहीं होती ये चौकीदार की नौकरी । मैडम जी पढ़ा-लिखा तो है नहीं ,अब और क्या करेगा।
मैंने पूछा - दवाई दी या नहीं?
वो बोली - पैरासिटामोल दे दी।काम करने के बाद दवाखाना ले जाऊँगी। अभी पता नहीं कितने दिन की दीहाडी गई।रात के तो चारसो रुपये मिलते हैं। एक कम्बल की वजह से इतना नुकसान हो जाएगा।
मैंने कहा - चिंता मत कर सब ठीक होगा।तभी मुझे प्रेमचंद जी द्वारा लिखी "पूस की रात' कहानी याद आ गई।उस कहानी में भी एक कम्बल की वजह से सारी फसल खराब हो जाती है। आज इतने साल बाद भी समस्यायें वो ही हैं केवल षृष्ट-भूमि बदली है।