अपनी समझ
अपनी समझ
मैं जब अपने कैम्पस के विद्यालय में पढ़ाती थी तब मुझे प्राइमरी कक्षाओं में पढ़ाने को कहा गया। चौथी कक्षा में मैं पर्यावरण ज्ञान पढ़ाती थी । कक्षा में एक लड़की थी जो सब से अलग थी। उसे कुछ अगर याद करने को कहा जाता तो उसे याद नहीं होता था। इसी वजह से उस के अंक हर विषय में कम आते थे।
उसकी माँ बहुत परेशान रहती थी। वो भी मेरी तरह ही स्कूल में पढ़ाती थीं और मेरी अच्छी सहेली भी थीं।
वो सदा बोलती थीं कि उसे अपनी बेटी की चिंता लगी रहती है। उसका क्या होगा, कैसे होगा।
मैं हमेशा बोलती थी कि वह बस रटू तोता नहीं। वो इतनी उम्र में पाठ पूरे -पूरे पढ़ती है, जो समझ आता है वह अपनी समझ से लिख देती है। उसमें परेशान होने वाली क्या बात है।
असल में वो हर पाठ को अपनी समझ से समझती थी। भाषा अच्छी नहीं थी तो लिखने में और ज्यादा गलतियाँ हो जाती थी। कितनी बार अर्थ ही बदल जाता था। ज्यादातर बच्चे प्रश्न-उत्तर ही याद करते थे और अच्छे अंक प्राप्त करते थे। अध्यापक के पास इतनी बड़ी कक्षा में एक ही बच्चे पर पूरा ध्यान देना मुश्किल था। इसलिए सब कह देते थे कि पास तो हो ही जायेगी। पर मेरे लिए वो ही पूरे चैप्टर को अच्छे से समझती थी क्योंकि पाठ के बीच में से कुछ भी पूछ लो तो वह एक शाब्दिक सब उत्तर देती थी।
मैं हमेशा अपनी सहेली से बोलती थी कि इसकी जैसे ही भाषा सुधर जायेगी फिर वो हाथ नहीं आयेगी।
ऐसे बच्चों को जब ज्यादा प्रोत्साहन नहीं मिलता तो वो वैसे भी पढ़ाई से हटने लगते हैं। पर उसे सब प्रोत्साहित करते रहते थे। जैसे-जैसे उसकी कक्षा बढ़ती गई उसकी भाषा में अपने आप सुधार आता रहा और उसने बारहवीं कक्षा बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। आज वो बच्चों की मनोवैज्ञानिक है। वो भी अपनी समझ से।