Bhawna Kukreti

Tragedy Others

4.8  

Bhawna Kukreti

Tragedy Others

"सिबौ सिब सरु"

"सिबौ सिब सरु"

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दादी जी मुझे लेकर बहुत चौकन्नी रहती थी। उनके लिए सिर्फ पढ़ाई में सब भाई बहनों में अच्छे नम्बर ले आना काफी नहीं था। उनकी दृष्टि में सभी बच्चों में , मैं जरा भी दुनिया को नहीं समझती थी, एक दम कोरी बुद्धि। इसलिये पूरी छुट्टियाँ वो मुझे साये की तरह अपने साथ रखती।


वे ध्यान रखती की मैं कहीं अकेले बागीचे या दूर खेतों में खेलने ना चली जाऊँ। मगर मुझे बगीचों मे "लप्पा साय"(गेंद से गिट्टीयों के ढेर को गिरा, पेड़ पे चढ़ने का खेल) और खेतों में "गुल्ली-डण्डा" खेलते डोटयालों के बच्चे अपनी ओर खींचते। खास तौर पर मुझसे साल भर छोटी, 10 साल की "सरु " । बेहद चंचल, दोस्ताना और बात बात पर भिड़ जाने वाली। लड़कों पर क्या रोब रहता उसका। वो मुझे देख कर मुस्काती और पास आने के लिये इशारा करती। जब दादी जी आस पास नहीं होती तो वो मेरे कमरे की खिड़की पर धीमे से फुसफुसाती आवाज़ लगाती " दीऽऽऽ ओ दी " और मैं भाग कर अपने कमरे के जालीदार दरवाज़े पर। और पल में वो भी वहीं पहुंच जाती। वहीं खड़े खड़े वो मुझे देखती और मुस्काती। मैं इशारे से पूछती "क्या है?" वो भी इशारा करती" बगीचे चलोगी?" पैर के नीचे से हाथ फेंकते इशारे में कहती "लप्पा साय।" मेरी हिम्मत नहीं होती थी, मैं ना में सर हिला देती तब वो इशारे में ही "धत्त तेरे की " कह कर बगीचे भाग जाती।


एक दोपहरी हल्ला होने लगा। सरु की माँ जोर जोर से सुयाल ताऊ जी (हमारे साथ के फार्महऊस वाले) के बेटे को गालियाँ निकाल रही थी। मैं शोर सुन कर बाहर आई तो देखा सरु का चेहरे-हाथ मे खरोंचे थी और कपड़े धूल धूसरित थे। आँसू से उसके धूल से सने चेहरे पर धारियाँ बनी थी और वो माँ के पीछे दुबकी हुई थी। दादी जी , माँ और बाकी काश्तकार डोटयालों के परिवार सब आंगन में पहुंचे थे, कुछ के हाथ मे खुखरि थी। दादी जी ने मुझे तेज़ नज़रों से देखा और अन्दर जाने को कहा। मैं भाग कर वापस अपने कमरे में। खिड़की से झांका तो देखा दादी जी उन सब को लेकर सुयाल ताऊ जी के घर की ओर निकल पड़ी थी। उसके बाद "सरु" अपनी माँ के साथ ही दिखती।


हमारी छुट्टियाँ ख़तम होने पर शहर वापस लौटते समय वो सुबह सुबह अपने परिवार सहित आ गई। मेरी माँ ने उसकी माँ को हम सबके पुराने कपड़े दिये थे। सरु पर मेरी गुलाबी मैक्सी बहुत फ़ब रही थी। उसके माँ-पापा, भाई-दीदी सब हमारे समान को रिक्शा मे रख रहे थे। वो मुझे देखे जा रही थी। जैसे ही दादी जी पूजा घर मे उचैणा रखने अन्दर गयी और हम दोनो एक साथ एक दूसरे की ओर दौड पड़े। "दी अब कब आओगी ? ","तुम अगले साल मिलोगी ना ?" हम दोनो ने लगभग एक साथ बोला और दोनो हँसने लगे। उसने मुझे गले लगा लिया। मुझे घबराहट सी हो गयी, उसे धीरे से दूर किया। उसकी माँ ने उसे उनकी भाषा में जोर से कुछ कहा। उसका मुँह बन गया। पर फिर बोली " आमा ने कहा है चार रबी का " , "मतलब?" काश्तकारों की भाषा का मुझे कुछ पता नहीं था। " रहेंगे बैबी जी " उसकी माँ ने पास आते कहा। "दी? !" सरु ने कुछ कहना चाहा। मगर दादी जी लौट आई थीं। उसने मेरी चोटियों की ओर इशारा किया। उसका मतलब ",रिब्बन " से था। फुसफुसाते ही बोली " बहुत सुन्दर हैं" ,मैने भी इशारों में कहा "अगली बार लाऊँगी तुम्हारे लिए " उसके चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान आ गयी।


पूरा साल बहुत धीरे धीरे गुजरा। पापा ने दादी जी की सलाह पर मेरा नये जाने माने गर्ल स्कूल में एडमीशन करा दिया था। मुझे वहाँ बहुत सी सहेलियाँ मिली मगर कहीं भी कोई सरु सी नहीं दिखती थी। जैसे ही गर्मियों की छुट्टियाँ हुई मैने ढेर सारे रंग बिरंगे रिब्बन खरीदे। "सरु के हाथों मे पीले लाख के कड़े भी अच्छे लगेंगे और मेरी मोरपंखी रंग की फ्रॉक भी अच्छी लगेगी, हाँ! ये मरून वैली भी " ये सोचकर अपना एक अलग डफ्फल बैग रेडी करने का सोचा जिसमे मेरी माँ ने मेरी मदद की।

हम सुबह सुबह पहुंचे थे। गिलास में छांछ और प्लेट में नून घी लगी रोटी लिए मैं बरामदे में आई। देखा "सरु" रोते-रोते खेतों की ओर भाग रही है और एक ओर से उसकी माँ छड़ी लिए, उसे गाली देते उसके पीछे और दूसरी तरफ से उसका दादा (बड़ा भाई) उसे पकड़ने को आ रहा था। सरु ऐसी लग रही थी मानो कोई हिरणी अपनी जान बचाने को दो शिकारियों के बीच फँस गयी हो। मेरे देखते-देखते , दोनो माँ बेटे उसे हाथ पैर से पकड़े झोपड़ी के अन्दर ले गये। मेरी माँ भी मेरे पीछे पीछे मेरा दुपट्टा लिए आ गयी थीं। उन्होने भी ये सब देखा। "दुपट्टा ओढ़ना नहीं भूलते बच्चे, गांव में हो आप ,चलो अन्दर दादी जी बुला रहीं।"


अन्दर आकर माँ ने दादी से वाकया बताया तो दादी जी ने बताया की चैत में सरु का ब्याह कैन्जा दादी ( दादी जी की झाड फूंक वाली सहेली ) और सुयाल ताऊ जी ने अच्छे घर में कराया था। सारा ख़र्चा उन्होने उठाया। उस परिवार में माँ - पापा, एक ननद ,पक्का मकान, दो गाय,एक रिक्शा है। मगर ये वहाँ ज्यादा नहीं टिकी, चौथे दिन ही भाग कर आ गयी। उसे अपने आदमी का रोज का बीड़ी पीना नहीं पसंद। आज ससुराल से लोग आ रहे इसे लेने मगर ये उसी बात से फिर नहीं जाना चाह रही। माँ बोली "विदाई से पहले उसकी माँ को उसे सब समझाना चाहिये था", " उसकी अपनी बिरादरी मे शादी हो गयी, ये ही बहुत बड़ी बात है, नहीं तो बगीचे की " दादी जी अचानक चुप हो गयीं, मैं हैरान थी।


"दादी जी शादी ? सरु की ? शादी तो बड़ों की होती है न !!? " मेरे मुहँ से निकला। " कभी अगर 90% नहीं आये ना !! तो तुम्हारी भी करा देंगे ।" दादी जी ने बड़ा सा मक्खन का गोला मेरी रोटियों पर रखते हुए कहा। तब मुझे जैसे सांप सूंघ गया था। जैसी मेरी उम्र और बुद्धि थी वो वैसा ही सोचे जा रही थी। " इसका मतलब शादी अच्छी बात नहीं होती। नहीं तो सरु जैसी लड़की इतना क्यूँ डर रही, और किसी के बीड़ी पीने से क्या दिक्कत है उसे, उसके घर में तो उसके पापा क्या, माँ भी तो पीती है, कितने बार देखा है।" खैर शादी का हव्वा हावी हो गया सो फटाफट रोटियाँ निगली और हॉलिडे होमवर्क पूरा करने बैठ गयी।


दोपहर में कुछ लोग आये और रोती बिलखती सरु को ले गये। मुझे बहुत बुरा लगा। सरु से मिल भी नहीं पायी और उसके तोहफ़े भी तो रह गये देने। माँ ने कहा हम जब परसों बाजार चलेंगे तो उसकी माँ को लेकर उसके ससुराल से होते जायेंगे, तब मैं उस से मिल लूंगी और तोहफ़े भी दे सकूंगी। माँ का दिलासा बहुत था मेरे लिए ।

रात में लाईट चली गयी थी। मैं, दादी जी के साथ खिड़की के पास लेटे-लेटे रेडीयो पर बजते पुराने जमाने के गाने सुन रही थी। दादी जी ने मुझ पर अन्गाल डाला हुआ था और वो मुझे थप्काये जा रहीं थी। खूब लाड मिल रहा था। मैं सोने ही वाली थी की देहरी पर सरु की माँ का भयानक रुदन गूँजने लगा। दादी जी हड़बड़ा कर उठीं। सिरहाने से खुखरि निकाली और टॉर्च ले कर बरामदे में आई। हम सब भी पीछे पीछे आये।


"सरु ने छत से कूद कर जान दे दी।"

ये सुन कर मेरे मन पर जैसे किसी ने जोर से प्रहार किया। मैं वहीं गिर गयी फिर मुझे ध्यान नहीं कहां क्या हुआ। होश आया तो देखा शाम हो रही थी। दादी ,माँ और कैन्जा दादी मेरे बिस्तर से थोड़े दूर रखे सोफे पर बैठे थे और सरु की दीदी सर पर हाथ धरे उन्ही के पैरों के पास बैठी थी।

कैन्जा दादी जी, जब भी मैं गांव आती चली आती थी। वो मेरी माँ से हमेशा ही कहती " तेरी चेली को बुरी नजर बहुत लगेगी, ठुल्ली पद्मिनी "। फिर वो मुझे गर्मियों की छुट्टियों में हर हफ्ते ,बीच आंगन बैठा कर, अमरूद की डालियाँ तोड़, बहुत झपाटे मारती और लगातार उबासियाँ लेती थी। आते वक्त माँ को दो-दो ,तीन-तीन तबीज मेरे लिए सुपर्द करती। और सरु की माँ को भी एक मेरे सर से वार कर दे देतीं और वो निहाल हो जाती। मगर उस वक्त तो उनकी मार के डर से मैने आँखें बन्द कर लीं ।


वे सब सरु की ही बात कर रही थीं। उनकी बातों से पता चला की 10 साल की सरु का पति 23 साल का था। छत पर ही सोता था। उस दिन उसने अपनी इज़ा से बीड़ी सुलगा कर सरु के हाथ छत पर भेजने को कहा था। सरु ने मना कर दिया तो वो उसे घसीट कर छत पर ले गया। बहुत देर तक झपटा-झपटी हुई इसी बीच सरु चीखते हुए भागी और छत से गिर पड़ी। दादी जी ने गहरी साँस भरी और माँ के हाथ पर हाथ रखा। माँ ने अपने आंचल से अपनी भीगी आँखें पोछी और उठ कर मेरे पास आईं। मेरे सर को मलासा फिर रसोई की ओर चली गयी।


दादी जी और कैन्जा दादी भी उठ खड़ी हुई। कैन्जा दादी ने मेरी ओर देखा। बोली "सिबौ सिब सरु" और उठ कर सीधे मेरे पलंग की ओर आने लगी। मैने डर के मारे और भी जोर से आँखें मींच ली।



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