श्रद्धा नहीं तो फिर श्राद्ध कैसा
श्रद्धा नहीं तो फिर श्राद्ध कैसा
रविवार का दिन था. रमेश और रीना सुबह बाल्कनी में बैठे चाय पी रहे थे... इधर उधर की बातें चल रही थीं कि, अचानक रमेश को याद आया कि कल बाबू जी का पहला श्राद्ध है.
रमेश ने पत्नी रीना से कहा- 'सुनो कल बाबू जी का श्राद्ध है, क्या क्या सामान लाना है बाज़ार से लिस्ट बनाकर देदो. पंडित जी को भी बोल आऊँगा, कल आने लिए.’
रमेश की बात सुनकर रीना तुनक्कर बोली- 'हाँ सारी जिम्मेदारियां निभाने का ठेका हमने ही तो ले रखा है, बड़े भैया भाभी तो विदेश जाकर बैठ गए. जायदाद में से अपना अपना हिस्सा सबने ले लिया और श्राद्ध हम करें, परिवार में शादी ब्याह हो तो भी हम ही ख़र्चा करें. तुम्हारी छोटी बहन रितु ने भी जब अपना हिस्सा ले लिया था, फिर क्यों आए दिन तुमसे मदद माँगती रहती है. आख़िर हमारे भी बच्चें हैं, इनकी पढ़ाई लिखाई पर भी ख़र्चा होगा कहाँ से लाएँगे इतना पैसा.?’
रमेश को रीना की बातें सुनकर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था, किंतु वो झगड़ा करना नहीं चाहता था इसलिए रीना को समझाते हुए बोला- 'देखो अभी ये सब बातें करने का समय नहीं है... क्या साल में एक दिन हम अपने माता पिता के लिए इतना भी नहीं कर सकते..?
रीना कब चुप रहने वाली थी..फिर बोली- 'बड़े भैया के भी तो वो पिता हैं..फिर वो क्यों नहीं करते.? माँ का श्राद्ध भी तो हम ही करते हैं.’ रीना बोलती जा रही थी...!!
अब रमेश को भी ग़ुस्सा आ गया..उसने बोला- 'ठीक है तुमसे नहीं होता तो मैं सब कर लूँगा, मैं मर जाऊँ तो मेरा श्राद्ध मत करना.’ इस तरह अच्छे भला माहौल क्लेश में बदल गया.
दूसरे दिन रीना ने सब खाना तो बना दिया, पंडित जी को भी समय से खिला दिया और दक्षिणा देकर विदा कर दिया था. पर सारा दिन रमेश से बात नहीं करी, नाहीं रमेश ने रीना से. रात को विदेश से बड़े भैया का फ़ोन आया, रीना ने फ़ोन उठाया..'नमस्ते भैया, कैसे हैं आप.?.'
उधर से भैया बोले- 'हम सब ठीक हैं.आज बाबू जी का श्राद्ध था,सो मंदिर जा रहे थे सोचा तुम लोगों से भी बात करलें.’
रीना-' हाँ भैया हमने भी सुबह पंडित जी को बुलाया था और अच्छे से खाना खिलाकर दक्षिणा दे दी थी'.
रमेश सब बातें सुन रहा था और सोच रहा था कि, कल तो इतनी बातें सुना रही थी आज भैया से ऐसे बातें कर रही है जैसे इससे अच्छी बहू कोई है ही नहीं.
रमेश ने भी भैया से बात की और बाऊजी जी को याद किया.
भैया से बात करने के बाद रमेश से रहा ना गया और चुप्पी तोड़ते हुए रीना से कहा- 'अब तो तुम्हें समझ आ गया होगा कि, भैया चाहे विदेश में क्यों ना हों, फिर भी उनसे जैसा बन पड़ा उन्होंने बाऊजी का श्राद्ध किया. भैया कभी भी अपनी ज़िम्मेवारी से पीछे नहीं रहे. मेरी और रितु की शादी का सारा ख़र्च भैया ने ही उठाया था. बाऊजी की जायदाद में से भैया ने एक पैसा भी नहीं लिया था, कहा था, कि मैं तो बाहर रहता हूँ, किसी के दुख सुख में पहुँच नहीं पाता हूँ. सब तुम्हें ही निभाना पड़ता है, इसलिए इस पर तुम्हारा ही हक़ बनता है. बाऊजी ने रितु के नाम कुछ नहीं किया था, नाही रितु ने कभी अपना हक़ माँगा था. वो तो भैया और मेरा ही निर्णय था कि रितु के नाम जायदाद का एक हिस्सा कर दिया जाय क्योंकि उसके पति की माली हालत ठीक नहीं थी, फिर दो बेटियाँ कैसे करेगी उनकी शादी.? आख़िर रितु हमारी छोटी बहन है, कोई ग़ैर नहीं. उसको दुखी देखकर हम कैसे सुख से रह सकते हैं.? फिर हम भाइयों के पास किस चीज़ की कमी है,ईश्वर का दिया सब कुछ है.’
सोचती हूँ... रीना ने ससुर का श्राद्ध तो किया, पर घर में क्लेश करके पति को दस बातें सुनाकर, अहसान जताकर. वो चाहती तो चुप रहकर सब कर सकती थी. ना जाने क्यों हम फ़्रेंड्शिप डे, वैलेंटाइन डे ओर ना जाने कौन कौन से डे सब ज़ोर शोर से मनाते हैं. पैसा भी लुटाते हैं, पर अपने पितरों (बुज़ुर्गों) के लिए वर्ष में एक बार कुछ करना पड़ जाए तो वो हमें बोझ लगता है. आख़िर जिनकी वजह से हमें ये तन मिला है और हम आज जो है, वो सब उनकी मेहनत और त्याग का ही तो फल है. तो क्या हमारा कर्तव्य नहीं बनता कि हम उनका आभार प्रकट करें.
वैसे तो हमें अपने बड़े बुज़ुर्गों का सदा आभारी रहना चाहिए और उन्हें याद करते रहना चाहिए पर पितृपक्ष में तो अवश्य ही उनको श्रद्धापूर्वक याद करके उनके निमित अपनी सामर्थ्यनुसार कुछ अच्छे कार्य जैसे-ग़रीबों को खाना खिलाना और दानपुण्य आदि करना चाहिए. जरुरी नहीं आप बहुत दिखावा करें. यदि आप के पास धन की कमी है, तो गाय को श्रद्धापूर्वक हरा चारा खिलाकर भी आप पितरों के प्रति अपना आभार प्रकट कर सकते हैं.
आख़िर श्राद्ध पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का ही तो प्रतीक है. अतः जब भी पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित कोई कार्य करें अर्थात श्राद्ध करें तो दिखावे से परे, बिना किसी दबाव के सहज में जो बन पड़े पूरी श्रद्धा के साथ करें. क्योंकि....
मेरा यह मानना है कि- "श्रद्धा" नहीं तो, फिर श्राद्ध कैसा..?