विदाई
विदाई
सुबह से अड़ोस पड़ोस के घरों में मेहमानों और रिश्तेदारों की आवाजाही लगी हुई थी।सब दशहरे का पर्व धूमधाम से मना रहे थे।रमा बहुत उदास थी,उसको तो सुबह से किसी का फोन तक नहीं आया था।वह अपने आपको कोसने लगी,क्योंकि अपने ही कटु स्वभाव से उसने जीवन से रिश्तों की विदाई कर दी थी।
माँ की तस्वीर के सामने रोते हुए कहने लगी-"माँ तुम शुरू से मुझे बुरा बोलने से रोकती रहीं, पर मैंने तुम्हारी एक बात नहीं मानी बल्कि दिन प्रतिदिन और ज्यादा गुस्सैल बनकर अपनी वाणी पर नियंत्रण खोने लगी.तुमने कहा भी था,कि शब्दों को पुष्प ना बना सको तो तीर भी न बनने दो।काश ! मैंने तुम्हारी बात मानी होती तो,आज रिश्तों के मेले में यूँ तन्हा न होती"
पश्चाताप की अग्नि में जल रही रमा ने आज ये निश्चय कर लिया,कि वह अपनी इस बुराई का सदा के लिए दहन कर देगी।उसने फ्रिज से मिठाई के डिब्बे निकाले और चलदी अपने जीवन में रिश्तों की मिठास घोलने।