कुम्हार
कुम्हार
"नालायक कहीं का..! सालभर हो गया पढ़ाते हुए,पर तेरे दिमाग में कुछ घुसता ही नहीं।क्या करूँ मैं।"कहकर रीना ने बेटे को जोर से थप्पड़ मारा और फिर रोने लगी।
बहू को परेशान देख,रमा उसके पास आई और प्यार से सर पर हाथ रखकर बोली-"बेटा धैर्य से काम लो सब ठीक हो जाएगा।"
"माँ,अब मेरे से और सब्र नहीं होता।थक गई हूँ, इस डफर के साथ माथापच्ची करते करते।"
"चलो छोड़ो ये बताओ,कि सामने शोकेस में तुमने जो मूर्ति रखी है,वो बाजार से क्यों लेकर आई थीं।"
"क्योंकि मुझे वो बहुत सुंदर लगी थी।"
"बहू कभी तुमने सोचा है,कि इस मूर्ति को सुंदर बनाने में कुम्हार का कितना बड़ा योगदान है?पहले उसने मिट्टी को सख्ती से रौंदा होगा,फिर साँचे में डालकर आकार दिया होगा।इस कच्ची मूरत को आग में डालकर तपाया होगा और इसके बाद बड़े धैर्य से इसे रंगों से सजाया होगा।"
"पर मांजी मेरा कुम्हार से क्या लेना देना?"
"बिल्कुल लेना देना है बहु,क्योंकि बच्चों के जीवन में माँ की भूमिका एक कुम्हार के भाँति ही होती है।बच्चे गीली मिट्टी के समान होते हैं और माँ कभी सख्ती तो कभी नरमी बरतकर इन्हें एक साँचे में ढालती है।उसके बाद अपने प्यार व धैर्य से उनकी जिंदगी में रंग भरती है,तब कहीं जाकर एक सुंदर मूरत बनती है।"
"जी माँ समझ गई।चूक कहीं न कही मेरी ही परवरिश में हुई है,जिसका मुझे सुधार करना पड़ेगा।"
रीना ने बेटे को प्यार से गले लगाया और बोली-"चल जा,अभी थोड़ा सा खेल ले बाद में पढ़ाई करना।"
रमा बहू को देखकर मुस्कुरा रही थी