Meeta Joshi

Inspirational

4.9  

Meeta Joshi

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श्राद्ध

श्राद्ध

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घर में सुबह से ही चहल-पहल मची थी।सब जल्दी उठ नहा-धो लिए।अनामिका जी भरे-पूरे परिवार में रहने वालीं जो रोज फुर्ती में दिखाई देती हैं आज शांत थी।बालों की सफेदी उनके तजुर्बे को बयाँ कर रही थी।नहाकर निकलीं तो बड़ी बहू स्नेहा चाय बना लाई।ये रोज सुबह का रूटीन है ,जब सास-बहू साथ में चाय पी, सारे दिन की दिनचर्या तय कर लेती हैं।क्या बनाना है? कहाँ जाना है?सब कुछ।


"माँ क्या बात है तबियत ठीक है ना आपकी?"


"हाँ बेटा, बस थोड़ी बेचैनी सी है।"


"माँ हम हैं ना आप चिंता क्यों कर रही हैं सब ठीक होगा।"बहू ने सास को दिलासा देते हुए कहा।

जैसे-जैसे समय बीतने लगा,सब बच्चे,पोता-पोती नहा- धोकर तैयार हो गए।बुआ के साथ उनके बच्चों के आने का इंतजार है।हलवाई बड़े-बड़े बर्तन धो-पौंछकर खाने की तैयारी करने लगे।कुल मिलाकर जायजा लिया जाए तो किसी जश्न की तैयारी जैसा माहौल है।


अनामिका जी,दो बेटों व एक बेटी की मांँ हैं।सबका घर बसा अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुकी हैं।छोटी-बहू स्वभाव से थोड़ी तेज है पर बड़ी...उसने घर का वो समय भी देखा जब ससुर जी मौजूद थे।उनकी बीमारी,वो दिन तकलीफें और फिर उनके एकाएक चले जाने पर सास का दर्द,वो सबको करीब से महसूस करती है इसलिए सास से प्रेम व सहानुभूति भी है और सबसे बड़ी बात खुदके पिताजी को भी लम्बी बीमारी के चलते खो चुकी है तो इस रिश्ते की तकलीफ को करीब से समझती है। कुल मिलाकर एक सुशील बहू के सारे गुण उसमें हैं।छोटी अपने घर में भी छोटी व लाड़ली थी वो थोड़ी तुनक-मिजाज हैं।गुस्सा आने पर किसी का लिहाज़ नहीं।बड़ी पूरे घर को बड़प्पन व करीने से संभाले हुए है।


"बुआ आ गई। बुआ आ गई।बच्चे बुआ को लेने बाहर दौड़ पड़े।"

बुआ भी माँ से पहले भाभियों से मिली।

"भाभी,माँ कहाँ है?कहीं नजर नहीं आ रही।"


छोटी ने फटाक से जवाब दिया ,"दीदी माँ आज सुबह से शांत है।शायद कोई तकलीफ हो?मुँह से कुछ कहती नहीं तो समझ नहीं आता।"


इतने में एक दूर की बुआ सास जो बुजुर्ग हैं उन्हें बेटा ऑफिस जाते हुए दिन में वापिस आने की कह छोड़ गया। बुआ-सास घर की सबसे बुजुर्ग महिला है इसलिए पूजा होने से पहले उन्हें आने को कहा गया।


पंडित जी पधार चुके हैं।पूजा पाठ की तैयारी शुरू होने लगी।"देखिए पितृपक्ष के श्राद्ध का अपना ही महत्त्व है।कहते हैं इस दिन ब्राह्मण के रूप में हमारे पूर्वज भोजन ग्रहण करते हैं।प्रसन्न रह रक्षा कवच की तरह हमारा साथ देते रहें इसलिए उन्हें उचित तिथि के दिन पूजा जाता है।उनकी पसंद के व्यंजन बनाए जाते हैं।पितृ- ऋण सबसे बड़ा ऋण माना जाता है।साफ खुश मन से अपने पिता को याद कर उनके प्रति श्रद्धा-भाव रख उनका स्मरण कीजिए।आनामिका जी कहीं दिखाई नहीं दे रहीं,उन्हें बुला लें तो आगे का कार्य सम्पन्न हो।"

बेटी माँ को बुलाने चल दी।


"माँ अकेली क्यों बैठी हो ?सबसे कहती हो कमरे में रोशनी करो और खुद,अंधेरा कर बैठी हो क्या बात है?आओ पंडित जी आ गए है।"


"देखा तो माँ की आंँखों में आँसू भरे थे।जल्दी करो मम्मा पंडित जी बुला रहे हैं।क्यों इतना परेशान हो रही हो?हर साल श्राद्ध करती आई हो इस बार इतनी तकलीफ क्यों ?चलो ना माँ तुम्हें ऐसा देख सारा माहौल खराब हो जाएगा।"

मन ही मन सोचने लगी ये वही बच्ची है जिसके चेहरे के भाव से मैं दिल का हाल जान जाती थी।इतने में छोटी बहू आ गई ,"मम्मा आओ ना,हर साल तो खुद तैयारी करवाती हो इस साल क्या हुआ।"


अनामिका जी मौन थीं।आंँसू अंदर ही दबा,पल्ला ठीक कर धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए बाहर आ गईं।आज चेहरे पर रोज सी रौनक न थी।

सभी पूर्वजों को याद कर तर्पण किया गया।बच्चों ने सभी आमंत्रित रिश्तेरदारों व मित्रों को भोजन करवाया।

जब घर वाले भोजन करने बैठे तो बड़े बेटे ने कहा,"पापा आए दिन मूली की सब्जी बनवाते और जितनी स्वाद से बनवाते उतना ही स्वाद लेकर खाते।"आज के हर खाने की चीजों के साथ पापा की यादें जुड़ी थीं।


अनामिका जी फीकी सी हँसी हँसते हुए बोलीं,"भगवान का खेल भी गजब है।जीते जी भागादौड़ी में लगे रहे।कभी तसल्ली से नहीं खाया और आज देखो ना!सब चीजें उनके पसंद की हैं पर खाकर तारीफ करने वाले वो खुद नहीं।इंसान क्या सोचता है और क्या हो जाता है।"


खाने के बाद पूरा परिवार एक जगह बैठा हँसी- मजाक में लगा था क्योंकि आज पापा का दिन था,उन्हें बराबर याद किया जा रहा था।सालों बीत गए।आज ऐसा कुछ नहीं था जो नया हुआ हो ।सबकी बातों के बीच चुप बैठी अनामिका जी थोड़ी देर में उठ अपने कमरे में जाकर लेट गईं।किसी ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया।सोचा थक गई होंगी इसलिए सोने चली गई ।सब अपनी गप्पों में मशगूल थे।


सोचते-सोचते अनामिका जी को झपकी आ गई।उठीं तो बाहर अंँधेरा दिखाई दिया।छोटी बहू ने आकर कहा,"मम्मा सुबह का सारा खाना रखा है।क्या आपके लिए भी लगा लाऊंँ?"

"नहीं कह गर्दन हिला दी।"रसोई मैं जाकर बोली,"ताजा खाने की आदत है।अभी ताजी रोटी बनाकर दोगे तो खा लेंगी।अरे इतना तो समझना चाहिए कि सारे दिन लगे-लगे हम भी थक गए हैं । ये सब आपके कारण है दीदी जबरदस्ती में आपने आगे से आगे करके देने की आदत डाल रखी है।"


"बस करो छोटी ।जो मन में आता है कहती चली जाती हो, थोड़ा तो लिहाज़ करो और कुछ नहीं तो आज के दिन की महत्ता को समझा होता।"कह बड़ी बहू सास के पास चल दी।


"माँ खाना परोस दूंँ।"


"नहीं बेटा,तुम लोग अपना खाकर फ्री हो लो।मुझे बिल्कुल भूख नहीं।"


"समझ सकती हूँ माँ आपकी तकलीफ।जो तकलीफ आपको है उसे कोई महसूस नहीं कर सकता।इतना समय बीत गया है इन लोगों के लिए,श्राद्ध हर साल का फर्ज है।बच्चों ने दादाजी देखे ही नहीं उनके लिए आज का दिन इकट्ठाहो बढ़िया खाना-खाने का मौका।पर आप पर जो बीत रही है उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती।माँ आप तो इतने सालों से खुद सब तैयारी कर श्राद्ध करती आई हैं अबकी बार इतनी बोरियत क्यों?"


"नहीं जानती बेटा,शायद अब बच्चे बड़े और समझदार हो गए हैं इसलिए।इस बार उन्होंने अपना फर्ज समझ सब तैयारी कर ली,तो लगा,मेरा फ़र्ज़ पूरा हो गया।आज पहली बार इतनी फुर्सत में थी कि उन्हें याद कर पाई।खीर मुँह में डालते ही एकाएक उनके चटकारे याद आने लगे।शायद हम अपनों को न भूलें,अपने बच्चों को पीढ़ी दर पीढ़ी अपनों से परिचित करवाते रहें,उन्हें अपने-अपनों से मिलवाते रहें और इस रूप में संस्कार सिखाते रहें इसलिए श्राद्ध बने।"ठंडी आह भरते हुए बोलीं,"आज सालों बाद उनको याद करने का भरपूर समय मिला।छोटी बहू!यकीनन मुझे गर्म रोटी अच्छी लगती है पर ये कतई मत सोचना कि आज मुझे गर्म रोटी चाहिए थी।अरे आज कैसे हलख से निवाला निकलता! वो दिन क्या कभी मैं भुला सकती हूँ कितनी तकलीफ से आज के दिन उनकी सांस छूटी थी।बेटा,चाहे तुम सबका उन से समीपता का रिश्ता था पर मेरे लिए तो जीवन के आधार थे।मैं भुलाकर कर भी उन्हें भुला नहीं सकती। जीवन में सब छोड़ आगे बढ़ना पड़ता है कभी अपने लिए,कभी अपनों के लिए।कैसे भूल जाऊंँ जिस कश्ती पर सवार होकर चली थी वो कश्ती वो खुद थे।बहुत खुशी होती है जब अपना-अपना फर्ज निभा तुम तीनों का परिवार साथ बैठता है, पापा को याद करता है पर बेटा इन सब में-मैं अब मैं कहीं खो गई हूँ।मेरी किसी बात का बुरा मत मानना।" कह वो दूसरे कमरे में चली गई।सब चुप थे बड़ी बहू की आंँखों से आँसू निरंतर बह रहे थे,"सही कह रही हैं माँ,हम सब जिस कश्ती के सवार हैं उस कश्ती को याद कर सारे फ़र्ज़ चुकाना चाहते हैं। वो भी अपने स्वार्थवश, कि पितृश्राद्ध से खुश हो पूर्वज हमें आशीर्वाद देंगे।हमारी तकलीफें दूर होगी उन्नति का रास्ता मिलेगा। लेकिन वो पतवार जो इस कश्ती को चला रही थी वो किस दौर से गुजर रही है हम में से किसी ने उनका मन टटोलने की कोशिश भी नहीं की।ये भूल गए की माँ यदि खुश रहेंगी तो कोई हमसे कैसे नराज हो सकता है। आज हम सबके लिए विशेष दिन था लेकिन माँ वो कैसे सहज रह सकती हैं ये किसी ने नहीं सोचा।संवेदनाए रखते हुए भी हम इतने संवेदनहीन कैसे हो गए!सब अपनी गप्पों में इतने मशगूल हो गए कि उनकी तकलीफ को समझ ही न पाए।" सभी को अपनी गलती का एहसास था।


सामने मौजूद इंसान की भावनाएँ आहत न हों ये प्रयास करें।सबसे बड़ा संस्कार किसी की भावनाओं को समझ उनका साथ देने का है।किसी के मन को पढ़ पाने से बड़ा कोई संस्कार नहीं।



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