शिद्द्त
शिद्द्त
संजय की बात अक्सर बशीर को नागवार ही गुजरती थी, कोई ही ऐसा मौका होगा जब दोनों की बातें एक दूसरे पर खरी और पुख्ता टिकती हो। बावजूद इसके दोनों की दोस्ती और हौसले की लोग मिसाल दिया करते थे। संजय जिस लड़की को पसंद करता था बशीर भी उसे बहुत मानता था, कई बार तो ऐसा होता था बशीर की बातें उसे संजय की पैरवी लगती थी, और संजय की जद्दोजहद उसको बशीर के लिए उसका याराना झलका देती थी। जल्द ही वो समझ गई दोनों के साथ उसका निर्वाह होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है लेकिन वो कुछ भी कहकर उनको आहत नहीं करना चाहती थी।
शायद यही वजह रही हो उसने उनका साथ छोड़ना ही ठीक समझा, लेकिन यह करना कोई आसान नहीं था, मैं भी कहीं न कहीं इस रिश्ते की एक गांठ अपने हिस्से लिए बैठा था, हुआ कुछ यूँ था संजय और बशीर दोनों ही मुझे बहुत मानते थे, और अपनी राज़ की हर बात मुझे बताकर मुझसे मशवरा किया करते थे, यूँ तो अमूमन मैं उनकी इस साफगोई और शिद्द्त का कायल था, लेकिन यह बात भी साफ थी कि लड़की का मेटर कोई किसी का सगा नहीं रहता। वो उसकी (कविता)इतनी तारीफ किया करते थे कि न चाहते हुए भी मेरे दिल मे कविता के लिए भावनाओं का निर्वाह यूँ होने लगा मानो उनकी शिद्द्त मेरी शिद्द्त से पनाह माँग माँग कर कह रही हो इनकी दोस्ती को ज़िंदा रखने के लिए मुझे ही बलि का बकरा बन इस आशिकी और इश्क़ की अनचाही आग में अपने जज्ब सम्वेदना का समावेश कर उन दोनों को इस कविता नाम की बला से बचाना होगा। वहीं मैंने किया।
लेकिन् वो न हो सका,जो होना था, कविता भी शायद किसी और की शिद्द्त की पनाह में हिचकोले ले रही थी, और वो उसकी शिद्द्त में हम सबको ले डूबी।

