शहीद।
शहीद।
सांझ गहराती जा रही थी, मगर दोपहर बाद आई एक खबर से रामभरोसे के आंगन में वक्त जैसे थम गया हो...।
माँ के मुँह से आवाज़ नही निकल पा रही थी, पत्नी के गोद का दुधमुंहा बच्चा रो-रोकर सो गया था, बहन के आँसू थक चुके थे और इधर पिता रामभरोसे अपनी बैसाखियों के सहारे भी आज खड़ा नही हो पा रहा था। सुबह की किरणें शहीद 'अवधेश कुमार यादव' के जयघोष के साथ रामभरोसे के आँगन में उतर आई थी, तिरंगा में लिपटा बेटा वतन के लिए शहीद हो चुका था।
'शहीद का पिता रोता नहीं अनपढ़ पिता को इसका ज्ञान था'।
"दो दिन बाद तो आना ही था इसे आज क्यों आगया??" माँ अचेत हो जाती। 'तीज पर आने को कहा था' पत्नी बस इतना बोलकर काठ हो चुकी थी। पिता के आंखों के सामने पूरी गृहस्ती घूम गई थी। बढ़ते हुजूम के साथ जयघोष के नारे तेज़ होते जा रहे थे।
बैसाखियों को संभाल कर पिता उठते हैं। कुछ ही देर में उनकी आवाज़ सबसे तेज़ निकल रही थी... शहीद अवधेश कुमार अमर रहें! बेटे ने तो अपना वादा नहीं निभाया पर पिता ने हमेशा की तरह अपना कहा पूरा कर दिया था।