एक थी परी।

एक थी परी।

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आज सड़क के किनारे टूटी हुई गाड़ी से खेलती एक बच्ची को देखकर अनायास ही परी की याद आ गयी.हाँ ...! बिलकुल ऐसी ही तो दिखती थी परी... गेहुंआ रंग, भूरे बाल, मटमैले कपड़े मगर चमकती हुई आँखें। परी की आंखें हमेशा चमकती थीं, मन अचानक ही वर्षों पहले गर्मी की दुपहर में चला जाता है.

अप्रैल की चिलचिलाती दोपहर दिन का तापमान दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। बालकनी में चंद सेकंड खड़ा होना मुश्किल था। बच्चों की स्कूल बसें एक एक करके स्टॉप पर रुक रही थी, जहाँ मम्मियां पहले से छाता कैप के साथ उन्हें उतारती और हाथ पकड़ घर तक ले जा रही थीं। सच इस वक्त धूप भी तो इतनी तीव्र होती है कि बच्चों की तबियत ख़राब होने का डर रहता पर परी को धूप नहीं लगती थी क्या? शायद नहीं ...तभी तो हर मौसम से खेलती थी परी। अभी साल दो साल पहले सामने वाली खाली ज़मीन पर डुप्लेक्स का काम शुरू हुआ था। तभी परी अपने माता पिता और भाई के साथ वहाँ रहने के लिए आई थी। रातों रात उनकी झोपड़ी बनकर तैयार हो गई थी।

परी के माता पिता श्रमिक थे। वे उसी डुप्लेक्स के निर्माण में काम करते थे। 5 साल की परी अपने भाई के साथ अधिकतर समय बाहर ही खेलते दिख जाती। चाहें दिसम्बर की सर्द शाम हो या अप्रैल की चिलचिलाती धूप या जुलाई की बारिश वो तो बस बाहर ही उछल कूद करती रहती।

अपने टूटे हुए खिलौने में रस्सी बाँधकर परी जब सड़क पर दौड़ाती पार्क में खेल रहे बच्चे अपना खेलना भूल उधर ही देखने लगते। साईकिल की बेकार टायर ट्यूब से खेलना हो या टूटी कुर्सी की ट्रेन बनाकर खेलना सब कुछ पूरी तन्मयता से करते थे दोनों भाई बहन।

गोरारंग, चमकती आँखे, भूरे बाल, गोल मटोल परी थी भी बहुत प्यारी। उसकी हर गतिविधि में एक बाल सुलभ उमंग था। परिस्थितियों का उन पर कोई प्रभाव नहीं था। शाम को पिता के साथ दूकान जाना हो या देर रात बोरिंग के पानी से छपाछप खेलना सबमें वह ख़ूब ख़ुश रहती। कभी कभी उसे पुराना बैग लेकर पास के स्कूल में जाते देखा मगर बाद में वो नहीं गई।

कभी कभी स्कूल से आते और पार्क में खेल रहे बच्चों को वो बड़े ध्यान से देखती उस समय उसका चेहरा बहुत गम्भीर दिखता। मैं भी बालकनी से इस विशुद्ध बाल्यकाल का आनंद लेती।

दो दिन पहले डुप्लेक्स बनकर तैयार हो चुका था। एक दिन अचानक परी की झोंपड़ी टूटी हुई दिखी। मज़दूर माँ बाप बच्चों को लेकर कहीं और चले गए थे जहाँ वे दूसरा मकान बना सकें।आज भी परी कहीं ऐसे ही खेल रही होगी...नहीं शायद थोड़ी बड़ी हो गई होगी। अपने माँ बाप के कामों में मदद करती होगी। स्कूल भी जाती होगी मगर उसकी आँखों की चमक धुंधली न पड़ गयी हो...क्या पता?



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