बाल मन।
बाल मन।
माँ, गणेश भगवान की मूर्ति लेने कब चलेंगे ? सुबह से पाँचवी बार जब मयंक ने पूछा तो आरती ने थोड़ा झुझलाते हुए कहा रुक ज़रा पहले घर के काम तो समेट लूँ और शाम तक मूर्तियों के भाव भी कुछ कम हो जाते हैं।
बाल गणेश की छोटी सी मूर्ति लेकर आते हुए मयंक खुशी से उछल रहा था। देखते ही देखते साड़ियों का छोटा सा पांडाल सज गया और फूल-पत्तियों से बिछे हुए आसन पर 'बप्पा' को बिठा, केले और मिश्री का भोग लगा पूजा आरम्भ हो गयी।
मयंक अब सुबह सबसे पहले उठ जाता और पूजा कर के ही स्कूल जाता। आरती भी पूरे मन से प्रार्थना करती। उस वक़्त घर की कठिनाइयां आँखों से छलक पड़ती जो मयंक से छुपी न थी। वो देर रात तक पांडाल में बप्पा के पास ही रहता और न जाने कितनी मन्नतें मांग ली थी। आज विसर्जन का दिन था। दस वर्षीय बाल मन उदास था। जय जयकारो के साथ गणपति विसर्जित हो रहे थे। पिता के साथ देर रात मयंक वापस लौटा, उदास मन मासूम आस्था के साथ सपनों में डूबने लगी थी। मयंक ने देखा पापा फिर काम पे जाने लगे, दादा की तबियत ठीक हो गयी वे रोटी खाने लगे। दादी के पल्लू में हमेशा पैसे बंधे मिलते और माँ किराने की दुकान से महंगी वाली चॉकलेट भी हँसते हुए खरीद देती।