Sonia Goyal

Fantasy Others

4.0  

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शाम की चाय फिर से रेडियो के संग

शाम की चाय फिर से रेडियो के संग

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अक्सर कहा जाता है कि जमाने बीत जाते हैं, बस यादें ही शेष रह जाती हैं।

संचार के साधनों में दिन-प्रतिदिन हो रहे बदलाव ने किसी जमाने में प्रतिष्ठा की पहचान हुआ करते रेडियो को जैसे ख़त्म सा कर दिया है। जब संचार और मनोरंजन के साधन सीमित हुआ करते थे, उस समय रेडियो का अपना ही एक अलग महत्व हुआ करता था।

उस समय के कार्यक्रमों जैसे पत्र से पसंद का गाना सुनना, फौजी भाइयों के लिए कार्यक्रम, प्रादेशिक भाषा के कार्यक्रम, सदाबहार गीत आदि के आगे आजकल के कार्यक्रम तो जैसे फीके ही लगते हैं।

चकाचौंध जीवनशैली में सब कुछ छूटता सा गया और सुख-शांति की खोज में व्यक्ति अशांति और अतृप्ति के रास्ते में भटकता सा रह गया। परंतु उस जमाने के कुछ लोग आज भी उसी लय में अपना शांति भरा जीवन जी रहे हैं।

आज हम ऐसे ही एक रेडियो प्रेमी के जीवन की कहानी जानेंगे, जिनका नाम है "राजीव"

बात तब की है जब घरों में ब्लैक-एंड-व्हाइट टी.वी. भी किसी-किसी के ही घर पर हुआ करता था और उनमें से एक घर था, राजीव जी का। राजीव जी के घर पर टीवी होने के बावजूद भी उन्हें टी.वी. देखना पसंद नहीं था। उन्हें तो बस रेडियो सुनने का ही शौक था। पर कहते हैं ना कि जो चीज़ हमें सबसे ज्यादा पसंद होती है, उसे हमेशा के लिए अपने पास रखने के लिए बहुत सी रूकावटें पार करनी पड़ती हैं और यही राजीव जी के साथ हुआ।

ऐसी कौन-सी रूकावटें आईं उनके इस रेडियो प्रेम में इसे जानने के लिए तो हमें उनके अतीत में जाना होगा, तो चलिए चलते हैं उनके अतीत में और जानते हैं कि वो रूकावटें कौन-सी थीं।

राजीव जी एक छोटे से गांव से संबंध रखते थे और वहीं से उन्होंने अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी की थी और वहीं पर शादी करने अपना ग्रहस्थ जीवन बसर कर रहे थे। दो साल बाद उनके यहां उनके बेटे का जन्म हुआ। राजीव जी अपने बेटे को एक अच्छा जीवन देना चाहते थे और गांव में रहते यह संभव नहीं था, इसलिए राजीव जी अपने घर-परिवार और रेडियो का प्रेम वहीं पर छोड़कर दिल्ली आ पहुंचे।

दिल्ली आने के बाद उन्होंने कुछ मशक्कत की और उन्हें एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई। उन्होंने नौकरी तो शुरू कर दी, पर उस समय किराए पर मकान लेने के लिए काफ़ी जद्दोजहद करनी पड़ी और आखिरकार वो दिन भी आ गया जब उन्हीं की कंपनी का एक मकान खाली हुआ और उन्हें वह किराए पर मिल गया। ऐसे ही उनकी नौकरी का एक महीना बीत गया और उनकी पहले महीने की तनख्वाह आ गई।

सारे खर्चों का हिसाब-किताब करने के बाद उन्होंने उसमें से कुछ रूपए बचाएं और अपने लिए एक पुराना मर्फी रेडियो ले आए। अपने घर-परिवार से दूर उनके लिए सिर्फ़ यही रेडियो उनका सच्चा साथी था। जब राजीव जी शाम को थके-हारे काम से लौटते तो अपने लिए चाय बनाने के बाद रेडियो सुनते-सुनते चाय की चुस्कियां लेते। एक यही रेडियो था, जिसे सुनते-सुनते उनकी दिन भर की थकान दूर हो जाती थी और वह अपने अंदर फिर से एक नई ताज़गी को महसूस करते थे।

ऐसे ही कुछ वर्ष बीतते गए और एक दिन राजीव जी के बड़े भाई मनोहर जी उन्हें दिल्ली मिलने आए। अब चूंकि मनोहर जी का अपना कोई घर-परिवार तो था नहीं और उन्हें दिल्ली की आबोहवा इतनी पसंद आई कि वे हमेशा के लिए दिल्ली के ही होकर रह गए और राजीव जी के साथ ही रहने लगे। कुछ समय बाद राजीव जी ने अपनी पत्नी और बेटे को भी दिल्ली रहने के लिए ही बुला लिया, क्योंकि राजीव जी का बेटा स्कूल जाने के लायक हो गया था, तो उन्होंने उसका दाखिला दिल्ली के ही स्कूल में करवा दिया।

सब कुछ अच्छे से चल रहा था कि एक दिन अचानक मनोहर जी की तबीयत काफ़ी खराब हो गई और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। अब मनोहर जी का अधिकांश समय घर पर ही बीतने लगा। मनोहर जी का घर पर दिल लगा रहे, इसलिए राजीव जी ने अपना प्रिय रेडियो मनोहर जी को दे दिया। मनोहर जी को पहले-पहल तो रेडियो उनके एकांत का उल्लंघन लगा, क्योंकि उन्हें रेडियो से कुछ ख़ास लगाव नहीं था, पर जब उन्होंने रेडियो सुना तो धीरे-धीरे उन्हें भी रेडियो से लगाव हो गया और उसे अपने पास ही रख लिया।

रेडियो मिलने से मनोहर जी का समय तो अच्छे से बीतने लगा, पर इसके विपरीत राजीव जी का दिन मुश्किल से गुजरने लगा, अब तो उन्हें शाम की चाय भी कुछ खास अच्छी नहीं लगती थी। मनोहर जी की तबीयत में कोई सुधार नहीं आ रहा था, पर इस कारण से उन्होंने किसी को परेशान नहीं किया। वह हर समय एकांत में रहते और किसी से भी ज्यादा बातचीत नहीं करते थे। बस एक दिन उन्होंने राजीव जी से एक अलग कमरे की मांग की तो राजीव जी ने उन्हें ऊपर वाला कमरा दे दिया।

अपना अलग कमरा मिलने के बाद मनोहर जी अपना सारा समय अपने कमरे में ही बिताने लगे। खाना भी वह अपने कमरे में ही खाते थे। हर समय वह अपनी ही धुन में ही मस्त रहते थे। पहले-पहल तो वे अपना ज्यादातर समय किताबें पढ़ने में ही बिताया करते थे, पर धीरे-धीरे उनका लगाव रेडियो की तरफ इतना बढ़ गया कि किताबों की जगह रेडियो ने ले ली। ऐसे ही रेडियो सुनते-सुनते एक दिन मनोहर जी की जिंदगी का सूर्यास्त हो गया।

उनके दुनिया के अलविदा कहने से सबको बहुत दुख हुआ। राजीव जी ने उनका अंतिम क्रियाकर्म पूरे विधि-विधान से पूर्ण करवाया। आज मनोहर जी की मृत्यु को एक महीना बीत गया था। जब राजीव जी अपने कार्यालय से वापिस आए, तो अचानक उनकी नज़र वहां पड़े रेडियो पर पड़ी। जब उन्होंने इस बारे में अपनी पत्नी से पूछा तो उन्होंने बताया कि आज मैं मनोहर भाई साहब के कमरे की सफाई कर रही थी, तब मेरी नज़र इस रेडियो पर पड़ी, इसलिए मैं इसे यहां ले आई। आपको रेडियो सुनते-सुनते चाय पीना पसंद है ना, तो रुकिए मैं आपके लिए चाय बनाकर लाती हूं।

राजीव जी की पत्नी ने उनके लिए चाय बनाई और राजीव जी ने रेडियो सुनते-सुनते चाय की चुस्कियां ली और फिर अपनी पत्नी से कहा, "चाय का असली स्वाद तो रेडियो सुनते-सुनते ही आता है। आखिरकार आज कितने समय बाद फिर से शाम की चाय रेडियो के संग पी है।" इतना कहकर राजीव जी चुप हो गए और रेडियो सुनते-सुनते अपनी चाय की चुस्कियां लेते रहें।

समाप्त



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