सच्ची श्रद्धांजलि
सच्ची श्रद्धांजलि


मैनें आज गेहूँ के दाने में लहु देखा ! सूर्ख़ लाल रंग का मजबूर और मरा हुआ लहु। जिसके मरने से किसी की मांग का सिन्दूर उजड़ गया, किसी के बुढापे का सहारा छीन गया और कुछ नन्ही फरमाइशों का ईरादा वक़्त से पहले ही खत्म हो गया। उस लहू के मरने का असर हर तीज त्यौहार के खुशनुमा माहौल पर बड़ा ही भयावह तरीक़े से पड़ा। होली के सभी रंगों को जहाँ बेरंग उल्टे पांव लौटना पड़ा वहीं दूसरी ओर दिवाली पर जगमगाहट की जगह अँधियारे नें ली।
शायद उसने आत्महत्या की होगी या फिर क़र्ज़ के बोझ से ख़ुद-बा-ख़ुद दब कर मर गया होगा बेचारा या हो सकता है, वो जबरन मार दिया गया हो या फिर ये भी हो सकता है कि वो गंद्दी राजनीति का शिकार हो गया हो। क्यों
कि हम इंसानी मूरत काटने में ज़्यादा हुनर आज़माते हैं। भले वो किसी का गला हो या हक़।
उसका मरा हुआ लहु जब मेरी रूह और जिस्म से मुख़ातिब हुआ, तब ऐसा लगा मानो मैं भी इसकी कुसूरवार होती अगर मैं ये सब देख कर भी कुछ नहीं कर पाती। मुझे पता है मेरे अकेले हमला करने से कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। अगर मैं बोलूँ इसके ख़िलाफ़ तब भी कोई सुनवाई तो होने से रही। लेकिन अगर मैं ख़ुद अपने दिल में इस वाक़यात को ग़लत मानकर अपनी तरफ़ से इसे कभी सही ना ठहराये जानें का ठान लूँ तो दुनिया की कोई ताक़त नहीं जो मुझे अच्छा सोचने से रोक सकेगी। शायद ये कर पाना ही मेरी सच्ची श्रद्धांजलि होगी उस गेहूँ के दाने के लिये और यक़िनन बोने वाले के लिये भी।