सच्चे मित्र का फर्ज

सच्चे मित्र का फर्ज

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रोहन कक्षा 8 का विद्यार्थी था। पढ़ने में बहुत होशियार था। उसका मित्र संजय भी पढ़ाई में बहुत अच्छा था। दोनो अच्छे नम्बर से पास तो हो जाते थे लेकिन कक्षा में प्रथम आने का उनका भरसक प्रयास हमेशा असफल हो जाता था। अजित और पंकज उन्हीं की कक्षा के विद्यार्थी थे। सारा वर्ष जम कर पढ़ाई करने के बाद भी उन्हें जो जितने नम्बर मिलते थे। उनसे थोड़े कम ही अजित और पंकज को मिलते थे। जबकि अजित और पंकज सब समय घूमते खेलते थे। 

एक दिन रोहन ने अजित और पंकज से पूछा "तुम दोनो सारा साल पढ़ाई नहीं करते हो, फिर भी इतने अच्छे नम्बर कैसे आ जाते है?"

अजित ने कहा "हमारा जुगाड़ है" 

रोहन बोला "कैसा जुगाड़"

"किसी से कहोगे नहीं तो बताउंगा" अजित बोला

अजित बोला "कल स्कूल के बाद मिलना बताता हूँ।"

दूसरे दिन रोहन अजित से मिला। अजित रोहन को लेकर एक प्रिंटिंग प्रेस के पास गया। रोहन को प्रेस के बाहर खड़ा रहने का कह कर अजित अंदर चला गया। थोड़ी देर बाद अजित एक लड़के के साथ बाहर आया। रोहन, ये मेरा चचेरा भाई सुशांत है। हमारी स्कूल के पर्चे यही छपते है। मुझे उसकी कॉपी मिल जाती है। रोहन की आँखों में एक बार चमक आ गयी। उसने कहा कि "क्या इस बार मुझे भी पर्चे दिलवा दोगे"?

अजित ने कहा मिल तो जाएगा मगर ....मगर क्या ? रोहन ने पूछा

सुशांत बोला "हमारे पॉकेट खर्चे इसी से निकलते है।" तुम्हें चाहिए तो कुछ खर्च करना पड़ेगा। रोहन ने कहा "ठीक है मैं दे दूँगा"। बोल कर वहां से रोहन अपने घर चला गया। दूसरे दिन स्कूल में जब रोहन संजय से मिला तो उसने कहा कि इस बार हम दोनो को प्रथम होने से कोई नहीं रोक सकता है।

संजय ने पूछा "क्यों भाई ? ऐसा कौन सा अलादीन का चिराग़ मिल गया। रोहन ने सब बातें बताई 

संजय सुन को नाराज हुआ उसने कहा कि बिन कारण मुसीबत सर मोल रहे हो। हम जैसे परीक्षा देते थे वैसे ही देंगे। रोहन को यह सुन कर गुस्सा आया। उसने कहा इसमें गलत ही क्या है। हम इतनी मेहनत से पढ़ते है। फिर भी अजित और पंकज जितने ही नम्बर आते है। हमें हमारी मेहनत का फल पूरा नहीं मिलता है। संजय बोला... "ईमानदारी नाम की भी कोई चीज़ होती है" 

तुम्हें अगर मेहनत कर के पास नहीं होना तो चोरी कर के पास हो जाओ लेकिन फिर मेरे से कभी बात नहीं करना। रोहन को गुस्सा आ गया। उसने कहा ठीक है एक तो मैं तुम्हारे भले की सोच रहा था। तुम मुझे उल्टा ही पट्टी पढ़ा रहे हो। जाओ मुझे भी नहीं जरूरत तुम्हारी।


इसके बाद रोहन का पढ़ाई से ध्यान निकल गया। वो सब समय अजित पंकज के साथ घूमने लगा था। कुछ दिनों के पश्चात परीक्षा आई। रोहन, अजित और पंकज को तो चिंता थी नहीं क्योंकि उन्होंने पर्चे से तैयारी कर रखी थी। परीक्षा के दिन जैसे ही रोहन ने हाथ में पर्चा थामा..... "उसके नीचे से ज़मीन खिसक गई।" उसे जो पर्चा अजित ने दिया था वो पर्चा ये नहीं था। उसने घूम कर अजित को देखा। अजित की हालत भी पस्त थी। जैसे तैसे तीन घण्टे बीते और रोहन रुंआसा होता जा रहा था। काश! उसने संजय की बात मान ली होती। काश! उसने स्वयं के भी पढ़ाई की होती। उसे अपनी ग़लती पर पछतावा हो रहा था। लेकिन अब तो जो होना था वो हो गया। तभी दरबान आया और उसने रोहन,अजित और पंकज को प्राचार्य के पास जाने के लिए कहा। तीनों के मन में डर समा गया था। डरते डरते तीनो प्राचार्य के कमरे में गये। वहां संजय भी मौजूद था। प्राचार्य ने अजित और पंकज से कहा "तुम दोनों कल अपने पिताजी को लेकर आना" अब जा सकते हो तुम दोनों। दोनो के जाने के बाद...कुछ देर कमरे में शांति बनी हुई थी। रोहन गुस्से में संजय को देख रहा था।

प्राचार्य बोले.... "रोहन...गुस्सा आ रहा है। संजय को मारने का मन कर रहा है"? रोहन कुछ नहीं बोला।

प्राचार्य फिर बोले...

"तुम्हें संजय का शक्रिया अदा करना चाहिए। उसने तुम्हारी ज़िंदगी बचा ली। नहीं तो जैसे अजित और पंकज को कल स्कूल से निकाल दिया जाएगा। वैसे शायद तुम को भी निकाला जा सकता था। लेकिन संजय ने सच्चे मित्र का फर्ज़ निभाया है। तुम्हें माफ़ी भी तभी मिलेगी जब तुम आगे से ऐसी हरकत न करने का वादा करो और संजय की बताई राह पर चलो।"

रोहन रोने लगा.... रोते रोते बोला "मुझे मेरी ग़लती का अहसास हो गया है सर" मैं आइंदा ऐसी कोई ग़लती नहीं करूंगा।



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