नया गैराज
नया गैराज
घर में घुसते ही रंजन ने अपनी माँ के पैर छुए। माँ बेटे को देख कर खुशी से चीख पड़ी।
रंजन शहर से पाँच साल बाद वापस आया था। गाँव में उसकी माँ, छोटा भाई और बहन रहते थे।
शहर में रंजन गैराज में काम करता था। उसने शहर से निकलने के पहले हो सोच लिया था कि गाँव में अपना खुद का गैराज खोलूँगा।
खाना खाने जब सब साथ बैठे थे तो माँ ने पूछा कि कब तक रहोगे?
रंजन बोला "अब हमेशा यही रहूँगा माँ!"
मैं यही अपना गैराज खोलूँगा शहर में हुई आमदनी से बचत नहीं होती है।
छोटा भाई बोल पड़ा "गैराज खोलने के लिए हमारे पास जगह कहाँ है?"
रंजन ने कहा " घर के बाहर की ज़मीन पर ही खोलेंगे। बस वो बरगद का पेड़ हटाना पड़ेगा।"
छोटा भाई बोला नहीं! "उस पेड़ को नहीं हटायेंगे। गैराज खोलने के लिए कहीं और व्यवस्था करनी होगी"
माँ! रंजन ने थोड़े ऊँचे स्वर में कहा।
"इसको समझाओ मैं घर के भले की सोच रहा हूँ उसमें मुझे कोई दखल अंदाजी नहीं चाहिए।"
माँ कुछ नहीं बोली। उठ कर अपने कमरे चली गयी।
रंजन भी बाहर अपने मित्रों से मिलने चला गया।
शाम को जब रंजन वापस घर आया तो उसने देखा उसका छोटा भाई बरगद के पेड़ के पास बैठा हुआ है।
वह अपने भाई के पास गया।
उसके सर पर प्यार से हाथ रख कर बोला "भाई ये पेड़ ऐसा पेड़ है जिसमें न फल आते है न फूल । हमें अपनी जीविका के लिए इसे हटाना पड़ेगा ही। मैं शहर में नौकरी छोड़ कर आ चुका हूँ, फिर से शहर में नौकरी मिलनी नामुमकिन है।" बोलते बोलते उसकी नजर भाई की आँखों पर गई जो रो रोकर लाल हो चुकी थी।
माँ! रंजन ने माँ को आवाज़ लगाई।
छोटा भाई भर्राई आवाज़ में बोल उठा। " ये आपके लिए सिर्फ एक साधारण पेड़ रह गया अब" लेकिन इसमें हमारा जीवन बसा हुआ है। पिताजी की यादें इसी बरगद की छांव के नीचे बसी हुई है। आपका मेरा और छोटी का बचपन इस में बसा हुआ है।
माँ आज भी अकेलेपन में इसी बरगद के नीचे बैठ कर पिताजी को याद करती है। इस बरगद में उन्हें पिताजी नजर आते है। उनके सुख दुःख का साथी है यह। छोटा भाई बोलता जा रहा था.......
रंजन की आँखों से आँसू बहते जा रहे थे।
उसके पीछे माँ शांत सी खड़ी थी।