Kamal Purohit

Others

4.7  

Kamal Purohit

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मेरी लिखी तेरी कहानी

मेरी लिखी तेरी कहानी

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सुनील पिछले कुछ सालों से लिखने का प्रयास कर रहा था।

लेकिन यह क्या ! उसकी लाख कोशिश के बाद भी उसकी लिखी कहानियां कविताएं किसी को जल्दी से पसंद नहीं आती थी। 

एक दिन अचानक सुनील को न जाने क्या सूझा उसके मन में एक ख़याल आया और वह उसके सहारे आगे बढ़ने की सोचने लगा । उसका एक रचनाकार मित्र है। जिसने बिलकुल नया नया लिखना शुरू किया था। उसकी एक कहानी को ज़रा सा हेर बदल कर के अपने नाम से एक संपादक को भेज दिया । कहानी बहुत ही बढ़िया थी। संपादक को पसंद आ गयी उन्होंने उसे आनन फानन उसे पुस्तक का स्वरूप दे दिया दिया। पुस्तक पाठकों के पास पहुँची और लोगो को बहुत पसंद आई । जल्द ही सुनील की पहचान साहित्य जगत में होने लगी । साहित्य जगत में उसकी सफलता पर शहर में उसके सम्मान के लिए एक कार्यक्रम आयोजित हुआ । 


कार्यक्रम के दिन सुनील तैयार होकर कार्यक्रम स्थल पर पहुँचा। वहाँ उसे उसका वही मित्र मिल गया, जिसकी कहानी सुनील ने अपने नाम से भेजी थी। सुनील उससे नजर नहीं मिला सका जबकि उसका मित्र सीना चौड़ा कर के मुस्कुराते हुए उसे देख रहा था। 


मित्र उसके पास आया "उसे बधाई दी" और "बोला आखिर तुम एक प्रसिद्ध लेखक बन ही गये"। 

सुनील के मुँह पर जैसे टाँके लगे हो, वह कुछ भी नहीं बोल पा रहा था। 

तब मित्र ने उसे कहा मैं नाराज नहीं हूँ तुमसे न ही गुस्सा हाँ! "थोड़ा तरस जरूर आ रहा है मुझे तुमपर क्योंकि तुम दुनिया को तो धोखा दे चुके हो लेकिन खुद को धोखा नहीं दे पाओगे" यह बोल कर वो सभागार में चला गया। 

सुनील वही जम सा गया उससे हिला भी नहीं जा रहा था। इतने में कार्यक्रम के संचालक उसके पास आये और उसे मंच की तरफ चलने को कहा, सुनील के पैर लड़खड़ा रहे थे। जैसे तैसे वह मंच पर गया। संचालक ने सुनील को अपना स्थान ग्रहण करने को कहा और स्वयं कार्यक्रम संचालन करने आगे बढ़ गये । 

कार्यक्रम आरम्भ हुआ। "संचालक ने पहले उसकी लिखी कहानी की तारीफ़ की फिर सुनील की तारीफ़ करनी शुरू कर दी। एक एक शब्द सुनील को शूल की तरह चुभ रहे थे। उसे अपने मित्र का मुस्कुराता हुआ चेहरा नजर आ रहा था। संचालक ने दो तीन बार उसका नाम पुकारा, लेकिन उसे सुनाई नहीं दिया "देगा कैसे"! वह उस सभागार में मौजूद था ही नहीं किसी और दुनिया में उसका दिमाग गोता लगा रहा था। जब चौथी बार संचालक ने ज़रा जोर से नाम पुकारा तो हड़बड़ा के सुनील उठा और माइक की तरफ जाने लगा। उसके मुह से कुछ शब्द नहीं निकल रहे थे। लेकिन उसे वहाँ बैठे जनसमूह को संबोधित करना था। उनसे अपन दिल की बात कहनी थी उसने बोलना शुरू किया। 

सबसे पहले सुनील ने जनसमूह से माफ़ी मांगी और कहा कि आप जिस कहानी को पढ़ के इतने उत्साहित हुए है और आज मेरा सम्मान करने आये है दरअसल "मैं इस सम्मान के काबिल ही नहीं हूँ"। 

पूरे सभागार में सन्नाटा सा छा गया था सुनील ने आगे कहा, "मैं आप सब का गुनाहगार हूँ", " सबसे बड़ा गुनाहगार मेरे मित्र का क्योंकि ये कहानी जो मेरे नाम से छपी है। ये कहानी मेरे मित्र की लिखी हुई है और इस सम्मान का हक़दार भी वही है" मैं तो कभी अच्छा लिख पाया ही नहीं।अब सभागार में कानाफूसी चालु हो गयी थी। "कुछ लोग उसे गलत ठहरा रहे थे, कुछ लोग संपादक को"।  

सुनील ने सोच लिया था कि उसे क्या करना है। उसने अपने मित्र को पुकारा जो उसी सभागार में बैठा हुआ था। 

उसका मित्र स्टेज पर आया तो उसने जनसमूह को बताया कि "ये ही है वो फ़नकार जिसकी लिखी कहानी के आप सभी दीवाने हुए हो"। यह मेरा मित्र है लेकिन मैंने इसके साथ दुश्मन जैसा बर्ताव किया "आज आप सभी के सामने मैं हाथ जोड़ कर इससे माफ़ी मांगता हूं" सुनील की आँखों से आंसू बह रहे थे। उसका मित्र अब मुस्कुरा नहीं रहा था। सुनील को वह एकटक देख रहा था, फिर वह सुनील के पास गया और उसने सुनील को गले लगाया और कहा कि तुमने जो आज किया है, उससे ये साबित हो गया कि तुम मेरे सच्चे मित्र हो।

उसने माइक हाथ में लिया और जनसमूह को संबोधित कर के बोला की "इसने जो कृत्य किया था, उसकी इसे ग्लानि हुई। "इसने आप सभी से इसकी माफ़ी मांगी है। जब गुनाहगार सच्चे दिल से माफ़ी मांग लेता है, तो वह गुनाहगार नहीं रह जाता है। जिस कहानी को इसने अपनी कहा वो कहानी भले ही मेरी लिखी हो लेकिन आज से उसका रचनाकार सुनील ही कहलायेगा"। 


उसके इतना बोलते ही तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा सभागार गूँज उठा। 



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