सच्चा दोस्त
सच्चा दोस्त
राजस्थान एक विविध संस्कृति वाला प्रदेश है। यहां पर लोक कहानियों की भी भरमार है। ये कहानियां भी पंचतंत्र की तरह मनोरंजक और ज्ञानवर्धक हैं। आइए , आज एक ऐसी ही ज्ञानवर्धक और मनोरंजक कहानी की यात्रा करते हैं।
आज से करीब सत्तर अस्सी साल पूर्व की शादियों की कल्पना कीजिए। कैसी होती होंगी वो शादियां ? इस कहानी का समय लगभग सन 1950 का रहा होगा।
उन दिनों राजस्थान में बाल विवाह होते थे। विवाह के बाद "गौना" होता था। एक बात शायद लोगों को पता नहीं होगी कि शादी के बाद दूल्हा दुल्हन एक साथ कभी नहीं होते थे। बल्कि वे दोनों अलग-अलग ही सोते थे। जब दोनों बालिग अर्थात वयस्क हो जाते तब उनका "गौना" होता था और उसके बाद ही वर वधू का मिलन संभव था उससे पहले नहीं। यह कहानी ग्रामीण परिवेश की है और इसमें कुछ शब्द या वाक्य स्थानीय बोली के भी होंगे , यद्यपि वे आसानी से समझ में आ जायेंगे।
लोग राजस्थानी बोली या भाषा का तात्पर्य मारवाड़ी से लगा लेते हैं जबकि राजस्थानमें बहुत सारी बोलियां बोली जाती हैं। लेकिन राजस्थान इतना बड़ा भू भाग वाला राज्य है और यहां पर अनेक रियासतें रहीं हैं। इसलिए यह कहावत प्रचलित है कि राजस्थान में हर छ: कोस पर बोली , रहन सहन , रीति-रिवाज, परंपराएं सब बदल जातीं हैं। इसलिए भाषा या बोली के रूप में हम मुख्यतया राजस्थान में निम्न भाषाओं या बोलियों को मानते हैं
1. मारवाड़ी जोधपुर और पश्चिमी राजस्थान
2. ढूंढाड़ी जयपुर रियासत
3. मेवाड़ी उदयपुर रियासत
4. बागड़ी जिलौर सिरोही जिला
5. हाड़ौती कोटा बूंदी बारां झालावाड़ जिले
6. ब्रज भरतपुर, धौलपुर, करौली जिला
7. अलवरी अलवर , दौसा जिला
8. शेखावाटी सीकर , झुंझुनूं, चुरू जिला
9 पंजाबी गंगानगर, हनुमानगढ़ जिला
आइये अब कहानी पर आते हैं। यह कहानी एक ऐसे दोस्त की है जो दुश्मन से भी ज्यादा खतरनाक है। चलिए, कहानी शुरू करते हैं।
एक गांव में एक लड़का था जिसका नाम था कूड़ा राम। गरीब परिवार का लड़का था कूडाराम। बचपन में ही उसकी शादी हो गई थी लेकिन उसका गौना नहीं हुआ था।
उसका सबसे खास दोस्त था चतुर सिंह। जैसा नाम वैसे गुण। दोनों में पक्की दोस्ती थी। इसे राजस्थानी में " दांत काटी रोटी वाली दोस्ती" कहते हैं। दांत काटी रोटी वाली दोस्ती का मतलब है इतनी पक्की दोस्ती कि दोनों ने एक ही रोटी को दांतों से काट काट कर खाया हो। उसे दांत काटी रोटी वाली दोस्ती कहते हैं। दोनों प्राथमिक कक्षा तक पढ़े थे बस। उसके बाद वे भेड़ बकरी चराने लग गये और पढ़ाई-लिखई गई भाड़ चूल्हे में।
कूड़ा राम अब 17-18 साल का हो चला था। उसके घरवालों को उसके गौने की चिंता हुई। कूड़ा राम का गौना होगा तो उसको ससुराल भी जाना पड़ेगा अपनी बहू को लिवा लाने के लिए। ससुराल जाने के लिए ढंग के कपड़े भी होने चाहिए। ससुराल में तो एक राजकुमार की तरह जाया जाता है इसलिए राजकुमार जैसा नहीं तो कम से कम नये कपड़े तो होने ही चाहिए। उन दिनों सूट बूट का फैशन तो था नहीं, लेकिन कपड़े नये हों यह जरूरी था।
कूड़ा राम के पास एक नया कुर्ता रखा हुआ था। उसने उसे अपने पड़ोसी के बेटे की शादी में सिलवाया था। लेकिन वो शादी हो ही नहीं पाई और वह लड़का "रंडुआ" ही रह गया था। अब वह कुर्ता गौना के काम आ जायेगा , ऐसा कूड़ाराम ने सोच लिया था । लेकिन पाजामा नहीं था। पाजामा सिलवाने के लिए पैसे थे नहीं। इस तरह यह एक बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई थी।
जब समस्या बड़ी हो तो उसे सुलझाने भी यार दोस्त ही आगे आते हैं। जब चतुर सिंह को पता चला कि कूड़ा राम का गौना होना है तो वह अपने दोस्त की मदद को आगे आया। मुसीबत में यार दोस्त ही काम आते हैं। चतुर सिंह ने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है। कुर्ता तेरे पास है और एक पाजामा उसके पास है ,एकदम नया। बिल्कुल कोरा। कंपनी का नाम और कंपनी की छाप अभी भी उस पर लगी हुई है । उसे हटाया भी नहीं गया है। उस छाप से यह सिद्ध होता है कि पाजामा अभी नया निकोरा है। बस, अपना काम बन गया।
गौने की तैयारी हो चुकी थी। दूल्हे के साथ उसके सहायक के रूप में एक आदमी तो और होना चाहिए ना। अगर कूड़ा राम अकेला जायेगा तो उसका परिचय कौन करायेगा ? दूल्हे की स्थिति तो एक महाराज की तरह होती है। और महाराज कोई अपना परिचय खुद देते हैं क्या ? कोई अगर कुछ पूछेगा तो जवाब कौन देगा? इसलिए सहायक तो होना ही चाहिए। सहायक भी ऐसा होना चाहिए जो बुद्धिमान और हाजिर जवाब हो। इसके लिए चतुर सिंह से बढ़कर और कौन हो सकता था ? चतुर सिंह उसका सबसे बड़ा दोस्त था। अतः यह तय हो गया कि कूड़ा राम के साथ उसके सहायक के रूप में चतुर सिंह ही जायेगा।
कूड़ा राम की ससुराल पास के ही गांव में थी इसलिए सवारी की आवश्यकता ही नहीं थी। पैदल पैदल चल कर जाया जा सकता था। कूड़ा राम ने अपना नया कुर्ता और चतुर सिंह का नया पाजामा पहन लिया। चतुर सिंह ने कूड़ा राम का पुराना पाजामा पहन लिया। अब कूड़ाराम दूल्हा जैसा लग रहा था। चतुर सिंह के तो ठाठ ही क्या ? वह तो दूल्हे का सहायक बनकर फूला नहीं समा रहा था। कलक्टर को कुर्सी का इतना घमंड नहीं होता है जितना उसके सहायक को होता है। यही हाल चतुर सिंह का था।
अपने यहां पर एक कहावत है कि कलक्टर की उतनी पूछ नहीं होती जितनी उसके पी ए की होती है। अब चतुर सिंह पी ए बना हुआ था और कूड़ा राम तो महाराज साहब थे ही।
इसलिए पी ए बना चतुरसिंह अपनी र॔गत में था।
दोनों पहली बार ससुराल जा रहे थे। शादी बचपन में हो गई थी। शकल सूरत सब बदल गई थी। कौन पहचाने ? तो पहचान करवाने का जिम्मा पी ए का होता है। चतुर सिंह ने अपना मोर्चा संभाल लिया था।
थोड़ा आगे चले तो रास्ते में उसकी ससुराल के कुछ लोग मिले। उन्होंने दो अजनबी युवकों को गांव में जाते हुए देखा तो वे लोग अपनी उत्सुकता को छिपा नहीं सके और दोनों को रोककर परिचय पूछने लगे।
जैसा कि मैंने पहले कहा था कि दूल्हा तो महाराज होता है वो थोड़ी ना बताएगा कि वह कौन है ? बताने का इंचार्ज तो चतुर सिंह था। यथा नाम तथा गुण। कूड़ा राम के ससुर का नाम काडू राम था लेकिन गांव में लोग उसे "काड्या " कहते थे।
गांव वालों ने पूछा " अरे भाई, थे कुण " ?
चतुर सिंह " ये कूड़ा राम जी। अपने काडू राम जी के दामाद। गौना करने के लिए ससुराल जा रहे हैं। और मैं चतुर सिंह। इनका दोस्त। कूड़ा राम जी ने जो कुर्ता पहना है वह इनका ही है और जो पाजामा पहना है वह मेरा है "।
गांव वाले " अच्छा अच्छा , काड्या के दामाद जी हैं। राम राम सा। आगे सीधे सीधे चले जाओ"।
चतुरसिंह का जवाब कूड़ा राम को बहुत नागवार गुजरा। उसने चतुर सिंह से कहा " यार , और सब बातें तो तू ने सब ठीक बताई। पर ये पाजामा ? इसके बारे में बताने की जरूरत क्या थी " ?
चतुर सिंह " यार, मैंने कौन सी गलत बात बताई ? सही तो बताई थी "
कूड़ा राम " बात तो सही थी लेकिन बताने की जरूरत नहीं थी "
चतुर सिंह " अच्छा , ठीक है। आगे ध्यान रखूंगा"
दोनों दोस्त आगे चले। आगे फिर कुछ ग्रामीण मिले और उन्होंने भी दो अजनबियों को देखकर वही प्रश्र किया। जवाब देने की जिम्मेदारी चतुर सिंह की थी इसलिए उसने कहा
" अपने काडू राम जी हैं ना गांव में। उनके दामाद हैं ये कूड़ा राम जी। गौना करवाने के लिए आये हैं। मैं इनका दोस्त चतुरसिंह। इन्होंने जो कुर्ता पहना है वह इन्हीं का है और इस पाजामा के बारे में कुछ नहीं बोलूंगा"।
उन ग्रामीणों ने राम राम किया और उन्हें आगे का रास्ता समझाया। आगे जाकर कूड़ा राम ने चतुर सिंह से फिर ऐतराज जताया कि ये क्या बकवास कर रहे हो तुम। अगर परिचय सही नहीं दे सकते हो तो मत दो। चुप रहो "
" ठीक है "
" नहीं, ठीक नहीं है। तुम ये अपना पाजामा वापस ले लो और मेरा पाजामा मुझे वापस दे दो "
चतुर सिंह ने बहुत मना किया लेकिन कूड़ा राम नहीं माना। आखिर में दोनों ने अपने अपने पाजामे बदल लिए।
आगे चलने पर कुछ आदमी फिर मिले और फिर से वही बात पूछी। जवाब तो चतुर सिंह को ही देना था
" ये कूड़ा राम जी हैं। आपके गांव के काडू राम जी के दामाद जी। मैं इनका दोस्त चतुर सिंह। जो कुर्ता इन्होंने पहन रखा है वह इनका है और पाजामा भी इनका ही है "।
उन लोगों ने उनका बहुत आदर सत्कार किया और आगे का रास्ता बता दिया।
आगे फिर कूड़ा राम ने सख्त ऐतराज जताया। और कहा कि पाजामा का किस्सा कहना ही नहीं है।
आगे चले। अब गांव में पहुंच चुके थे। आगे कुछ औरतें बैठी बैठी पंचायत कर रहीं थीं। जब उन्होंने दो अजनबी युवकों को देखा तो चौंकीं। इशारे से अपने पास बुलाया और पूछा " कुण छौ। कुण कै जाणो है"
चतुर सिंह " ये कूड़ा राम जी हैं। आपके गांव के काडू राम जी के दामाद जी। गौना कराने आये हैं। मैं इनका दोस्त चतुर सिंह। इन्होंने जो कुर्ता पहन रखा है वह कुर्ता इनका ही है और पाजामे का कोई किस्सा नहीं है "
उन औरतों ने अपने गांव के दामाद की बलैयां ली और उन्हें आगे का रास्ता बता दिया।
अब कूड़ा राम उखड़ गया। पर चतुर सिंह को पीट नहीं सकता था इसलिए चतुर सिंह को स्पष्ट हिदायत दे दी कि पाजामा पर खामोश रहना है, कुछ नहीं कहना है। चतुर सिंह ने " जो आज्ञा महाराज" कहकर शिरोधार्य भी कर ली।
अब काडू राम की गुवाड़ी आ गई थी। घर के बाहर कुछ आदमी और औरतें खड़े थे उन्होंने फिर उनसे वही सवाल किया।
चतुर सिंह ने फिर जवाब दिया
" ये कूड़ा राम जी हैं। आपके गांव के काडू राम जी के दामाद। गौना के लिए आए हैं। मैं इनका दोस्त हूं , चतुर सिंह। इनके कुर्ते और पाजामा के संबंध में मुझे कुछ भी नहीं कहना है " ।
कूड़ा राम ने अपना सिर पकड़ लिया। जब चतुर सिंह जैसे दोस्त हों तो दुश्मनों की क्या जरूरत है ? पर एक बार जो गलती हो गई तो अब दंड तो भुगतना ही पड़ेगा ना। इज्जत के तो बारह बज चुके थे ससुराल में। कूड़ाराम का कूड़ा कर दिया था चतुर सिंह ने।
इसलिए आपका भी यदि कोई दोस्त चतुर सिंह जैसा हो तो सावधान हो जाना नहीं तो आप भी कूड़ाराम बन सकते हो।
