सैलाब
सैलाब
"कुसुम"....कुसुम की आवाज़ के साथ दोनों हाथों में रंग भर प्रेम घर में घुसा चला आ रहा था।
"कुसुम...जल्दी बाहर आओ। देखो, अपने आप आ जाओ, नहीं तो मुझे जबरन अंदर आना पड़ेगा। "
चारों तरफ 'होली है' की आवाज सुनाई दे रही थी। जगह-जगह डीजे पर होली के गानों की धुन पर लोग थिरक रहे थे। ये त्योहार अपने आप में ही एक रंगीनियत लिए होता है।
उसने घर का मुख्य दरवाजा खोल, जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया,"कुसुम, देखो केवल गुलाल लाया हूँ। वो भी तुम्हारे पसंद के रंग 'लाल और पीला' जल्दी बाहर निकल आओ। "
पूरे घर में सन्नाटा पसरा था। जब कोई जवाब नहीं मिला तो दरवाजा खोल उसने अंदर कदम बढ़ाए। बरामदे में एक थाली में थोड़ा सा गुलाल और मिठाई के नाम पर गुजिया रखी थी। चारों तरफ नजर घुमा देखा तो एक अलग ही तरह का माहौल था।
माँ ने उसकी आवाज़ सुन उम्मीद से कहा, "कुसुम प्रेम आ गया है। आजा बेटा....भुला दे मनहूसियत के उस रंग को। रंग जा फिर एक बार प्रेम के रंग में। "
कुसुम, वो तो लोगों के 'होली है' का शोर सुन अपने कानों को कसकर बंद किए जा रही थी। देखा, प्रेम कमरे की तरफ आ रहा है तो एक कोने में बैठ, घुटने में मुंह छुपा लिया। जैसे-जैसे उसकी आवाज करीब आती हुई महसूस होती वो एक अलग ही तरह के दर्द से कँपकँपा जाती।
"कुसुम कहाँ हो? कब से आवाज़ लगा रहा हूँ।
आंटी, कहाँ है कुसुम और ये क्या! आप तो तरह-तरह के व्यंजन बनाती थीं आज सिर्फ गुजिया....। आपको पता हैं ना मैं यही से अपनी पेट-पूजा करके जाता हूँ। "
प्रेम ने शिकायत भरे स्वर में आंटी के पाँव छुए।
घर में सभी मौजूद थे फिर भी एक सन्नाटा था।
"अरे गोकुल, तू! आज भी साफ-सुथरा बैठा है। क्या है यार ये सब...!घर आया तो वहाँ भी यही हाल था। लगता है किसी को मेरे आने की खुशी नहीं हुई। "
"कब आए भैया" गोकुल ने बात आगे बढ़ाते हुए पूछा।
"बस कल रात ही पहुँचा हूँ। "
"आपने आने में बहुत देर कर दी" कहते ही गोकुल ने सिसकी भरी।
"देर कर दी, मतलब! क्या कुसुम की....आंटी आपने वादा किया था। आपने कहा था आप दो साल मेरा इंतजार करेंगे। माँ ने भी मुझे कुछ नहीं बताया....। क्या चल रहा है आप लोगों के दिमाग में, बताते क्यों नहीं आप लोग, कहाँ है कुसुम....?"
"यहीं है बेटा। बस तुम्हारी कुसुम अब होली नहीं खेलती। "
"होली नहीं खेलती..हा..हा..हा..वो भी कुसुम! मैं मान ही नहीं सकता। उसे तो रंगों से खेलना बहुत पसंद था। हर बार नया कुर्ता सिलवाती। हमें रंगने के नए-नए पैंतरे ढूँढती थी। जहांँ उसे रंगने में हमें देर हुई, खुद ही रंगों से खेल लेती। वो कुसुम होली नहीं खेलती!"
गोकुल गर्दन झुका कर बोला,"भैया आप चले गए थे ना !यहाँ सब कुछ बदल गया। "
अब प्रेम के सब्र का बाँध टूट चुका था।
"बात को उलझाओ मत। क्या हुआ है! आज पहली दफा माँ ने मुझे यहाँ आने से रोका। आप लोग भी उलझी-उलझी बातें कर रहे हैं। "
वह गुस्से से चिल्लाया,"कहाँ है कुसुम?"
माँ ने कमरे की तरफ इशारा कर दिया। दोनों हाथों में कुसुम के पसंदीदा रंग ले, एक पल भी खोए बिना, वह उसके कमरे में चला गया। देखा, तो कुसुम कोने में अपने दोनों हाथों से कान को दबाए बैठी थी और घुटनों का सहारा ले मुंह को ढका हुआ था। दरवाजा खुलने की आवाज़ से वह डरकर सहम गई। प्रेम की छाया उसने अपनी ओर बढ़ते देखी तो जोर-जोर से चिल्लाने लगी, "नहीं....प्लीज मेरे पास मत आना....प्लीज मत आओ। "
उसका डर देख प्रेम दोनों मुट्ठी खोल उसके आगे खड़ा हो गया, "क्यों डर रही हो! सिर्फ गुलाल है। वही रंग जो तुम्हें हमेशा से पसंद थे। तुम कहती थीं ना इतना रंग दो कि कोई पहचान भी ना पाए। "बस ये सुनना ही हुआ था कि उसने प्रेम की दोनों हथेलियों का रंग अपने हाथों के वेग से उड़ा दिया। "
"नफरत है मुझे रंगों से। नहीं खेलती मैं होली....कोई मेरे पास मत आना। "
"कुसुम मैं हूँ प्रेम। तुम्हारा प्रेम!"
"कोई प्रेम-व्रेम नहीं हो तुम। तुमने रंगों की आड़ में अपनी असलियत छुपाई हुई है। चले जाओ....। मत आओ मेरे पास। "
प्रेम ने उसे जैसे ही पकड़ने की कोशिश की वह अंदर तक सहम गई और चिल्लाकर अपनी गर्दन एक तरफ लटका दी। अपने हाथों के सहारे से उसने उसे बिस्तर पर लिटाया। सब घर वाले उसकी आवाज़ सुन दौड़े चले आए।
"बेटा, जब भी ज्यादा तनाव में आती है यही हाल होता है। "
उसे इंजेक्शन दिया गया। अब तक प्रेम के माता-पिता भी आ चुके थे। उसकी तकलीफ के आगे आज होली के सभी रंग फीके थे।
"क्या हुआ इसके साथ? मैं जानना चाहता हूँ। "
माँ के आँसुओं से दर्द का सैलाब रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। अपने ही मुंह से अपनी बेटी की व्यथा किसी दूसरे को क्या बताती। पिता उठकर चले गए। प्रेम के माता-पिता ने जवाब में गर्दन लटका ली। उसने गोकुल की तरफ उम्मीद भरी नजर से देखा।
"हाँ भैया होली का त्यौहार तो उसका सबसे पसंदीदा त्योहार हुआ करता था। कहती, "रंगों से मुझे इतना रंग देना कि सामने वाला पहचान ही ना पाए। "ऐसी ही जुनूनी होली खेलती थी। उस दिन भी बहुत खुश थी। हमेशा की तरह नया सफेद-कुर्ता पहन सहेलियों का इंतजार कर रही थी। जब बहुत देर तक कोई ना आया तो उसके सब्र का बांध टूट गया। पहले मेरे साथ और फिर अकेली ही रंगों से खेल ली। सबको इकट्ठा कर वही मस्ती-मजाक। हर घर से चाची-आंटी सबको आवाजें मार-मार कर बाहर बुला लिया। महिलाओं को अकेला देख कुछ बाहर के लोगों ने नशे की हालत में बदतमीजी करनी चाही तो लड़ पड़ी। बस उसी की सजा भुगतनी पड़ी। " कह गोकुल बुरी तरह सुबकने लगा। उसका गला रूंध गया।
अपने हाथों से उंगलियों को चटकाते हुए, अजीब सी पीड़ा के साथ प्रेम ने प्रश्न किया, "क्या किया उन्होंने उसके साथ? कौन थे वो लोग? बोलो?"
"नहीं जानता भैया। कोई नहीं जानता और आज तक नहीं जान पाए। रंगों से पुते हुए चेहरे थे। रंग-बिरंगे मुखौटों का फायदा उठाकर वो दीदी को उठा ले गए। शोर-शराबे के बीच वह चिल्लाई भी होगी, कौन जानता है!"
प्रेम सिर पकड़ कर बैठ गया,"कहाँ मिली तुम्हें! तुम लोगों ने उनके खिलाफ रिपोर्ट नहीं लिखवाई। "
"शाम को हाँफते हुए बेसुध सी खुद ही घर पहुँची।
मुझे बचा लो....मुझे बचा लो" कहती पापा की बांहों में आ बेहोश हो गई। उसके बाद जब होश में आती जोर-जोर से अपने गालों में थप्पड़ मार, रंग हटाने की कोशिश करती, "माँ मैं कुसुम मुझे पहचानो माँ, मैं तुम्हारी कुसुम।" कह बेहोश हो जाती।
बात ऐसी थी कि पल भर में सारे में फैल चुकी थी। पुलिस आई। सारे टेस्ट करवाए गए। भगवान की कृपा से कोई अनहोनी नहीं हुई थी। पुलिसवालों का अनुमान था कि शायद नशे की हालत में उसे उठाकर ले गए थे और ये वहाँ से मौका देख अनहोनी होने से पहले भाग निकली और बचते-बचाते यहाँ तक पहुँच गई। उस हादसे से उसके दिल पर जो असर हुआ होगा वह तो गहरा होगा ही पर बदनामी का जो ठप्पा लगा या कहूँ की लोगों की झूठी संवेदनाओं से आहत होकर उसने अपना आपा खो दिया। उस दिन से जब भी ज्यादा तनाव में आती है बस यही हाल हो जाता है। गुमसुम सी हो गई है। "
कुसुम को होश आ गया है पिता ने जैसे ही बताया प्रेम ने मिलने की इच्छा जाहिर की।
अपने हाथ-मुंह धो वो जैसे ही उसके पास पहुंँचा, उसे देख वह फूटकर रो पड़ी। आज जो दर्द उसके आँसू के साथ बह रहा था, लगा मानो अब सब ठीक हो जाएगा।
"चले जाओ प्रेम....प्लीज चले जाओ। मेरा इंतजार कभी मत करना। शादी कर अपना घर बसाओ। "
हल्की सी मुस्कुराहट चेहरे पर ला प्रेम बोला, "बस इतने सालों में इतना ही समझ पाई हो मुझे। तुम तो कुसुम हो तुम्हारी महक को क्या कभी मैं अपने अंतस से मिटा सकता हूँ। वह एक हादसा था कुसुम। भूल जाओ उसे। हादसे पाठ पढ़ाते हैं, लड़ना सिखाते हैं और फिर बढ़ना। मेरी कुसुम इतनी कमजोर कभी नहीं थी। लोगों की बातों पर ध्यान मत दो। मुझे लोगों से कोई फर्क नहीं पड़ता। "
सब घर वाले देख रहे थे प्रेम की बातों से एक अलग ही तरह का परिवर्तन सा था। वह बहुत ध्यान से प्रेम की बातें सुन रही थी। डर, खौफ के बादल छँटे हुए दिखाई दे रहे थे। शायद इन दो सालों में सबसे बड़ा डर प्रेम से सामना करने का ही था।
प्रेम ने जाने से पहले पीला रंग उसके गालों पर लगा दिया, "यह शगुन का रंग है, कुसुम। हर रंग से प्रभावी प्रेम का रंग होता है। प्यार गहरे से गहरा घाव भी भर देता है। मैं बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ। "....उसकी बातें सुन वो नि:शब्द थी। शायद अब प्रेम का सामना करने का ख़ौफ़ आज दूर हो गया था।
सारे घरवाले बाहर बैठे थे। प्रेम भी बाहर आ चुपचाप बैठ गया। कमरे में सन्नाटा था। देखा कमरे से किसी की छाया बाहर आ रही है। सफेद रंग के कुर्ते में कुसुम अपने हाथ में हरा रंग लिए बाहर आई और सब पर उछाल दिया फिर प्रेम के पास आ बोली, "सिर्फ लाल रंग लगाना। शगुन का रंग।"
