सांध्य बेला

सांध्य बेला

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अमृता आज बहुत खुश है उसकी नई किताब "सांध्य -बेला " का विमोचन शहर के एक बड़े साहित्यकार के हाथों होने जा रहा है।

मंच के सामने कुर्सियों की पंक्ति में वह बैठी बैठी अपने अतीत के पन्ने पलटने लगी, याद आ रहा था कैसे बच्चों की परवरिश और अपने कॉलेज की जॉब के बीच वह लगातार चकरघिन्नी की तरह घूमती रहती।लेक्चरर थी वह भारतमाता कॉलेज में अंग्रेजी विषय की।

पति राजीव बैंक में मैनेजर थे दोनो अपने अपने काम और घर की जवाबदारी में बंध कर रह गए थे, बच्चे समय के साथ बड़े होते गए अब कॉलेज में पढ़ने लगे और अमृता अभी महीनेभर पहले रिटायर हुए है।कुछ दिन तो घर मे आराम से कटे फिर अकेलापन काटने लगा, अब क्या करे।एक दिन उसकी आलमारी से बेटी उसकी बहुत सी डायरी निकाल लाई "माँ आपने बताया नही आप इतना अच्छा लिखती थीं।"

"हां बेटा, शादी के पहले बहुत लिखने पढ़ने का शौक था।समय के साथ सब पीछे रह गया।"

अब फिर अपनी कलम उठाओ माँ और शुरू करो लिखना "

"हाँ माँ मोबाइल के जरिये मैं आपको कई साहित्यिक ग्रुप में जोड़ देती हूँ, आपके लेखन को एक नई दिशा मिलेगी।"

बस फिर क्या था, मोबाइल से बेटी ने माँ को सब सीखा दिया।

अमृता का समय बढिया कटने लगा, बहुत से काव्य संकलन, उपन्यास नाटक आदि प्रकाशित हुए उसके, खूब नाम भी हो गया।

सोचते सोचते आंखे भर आईं अमृता की, अतीत से लौटी वह मंच पर उसका नाम पुकारा जा रहा था।

किताब का विमोचन हुआ, दो शब्द कहने उसे आमंत्रित किया गया, वह खुशी के कारण बोल नही पा रही थी गला भर आया उसका, तब उसकी बेटी दिशा उठ कर माँ के पास आई और माँ का हौसला बढाया उसने।माइक पर वह बोली आज मैं जो कुछ हूँ अपनी बेटी और पति के कारण, बेटी ने ही सही राह मुझे दिखाई, वरना उम्र के इस दौर में मैं शायद कुछ ना कर अकेलेपन की शिकार हो जाती, बेटी ने हरकदम पर साथ दिया मेरा, आज मैं गर्व से कह सकती हूँ कि मेरी बेटी ने मेरे बुढापे को नया जामा पहनाया और मैं कुछ कर पाई, मुझे अपनी बेटी पर गर्व है।

खुशी के उन क्षणों को अमृता के परिवार ने जी भरकर जिया, अमृता को भी लगा जीवन की सांध्य बेला में एक नई रोशनी भर गई उसकी जिंदगी में।



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