Aman Barnwal

Tragedy

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Aman Barnwal

Tragedy

सामाजिक सारांश

सामाजिक सारांश

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मनुष्य प्रकृति में सबसे सक्षम जीव है। जिसने समय समय पर अपनी हर तत्कालीन समस्या का हल प्रकृति से ढूंढ निकाला है। परंतु सबसे आगे बढ़ने और ताकतवर बनने की होड़ में एक साधारण मनुष्य से ले कर बड़े बड़े देशों ने भी प्रकृति का दोहन करना शुरू कर दिया। अपनी निजी विलासिता को बेवजह विकसित करने के लिए परिपूर्ण वर्ग ने हमेशा ही मानवजाति की जरूरतों का गला घोंटा है।

जंगल काटते इन नगरों ने, प्रदूषण फैलाते उद्योगों ने और मनुष्य की क्षमता को क्षय करते आधुनिक उपकरणों ने प्रकृति पर चौतरफा प्रहार किया है। जिसका दुष्परिणाम मानवजाति को भौगोलिक और जैविक प्रलय के रूप मे भुगतना पड़ता है। हर बार मानव, प्रकृति की इस चेतावनी को भूल कर फिर प्रकृति के दोहन में मग्न हो जाता है।

क्या यही प्रकृति का न्याय है? क्यों सजा सम्पूर्ण मानवजाति को मिलती है जबकि गुनाहगार अक्सर इससे अछूते बच जाते है। आज समाज दो हिस्सों मे बंटा दिखाई पड़ता है। एक वर्ग गरीब, किसान और मज़दूरों का है जिसने मानवजाति की सेवा मे अपने शरीर से पसीने की जगह लहू भी बहाया परंतु कभी प्रकृति से छेडछाड़ नही की। वहीं दूसरा वर्ग अपनी भरी तिजोरी को और भरने तथा अपनी विलासिता को और विकसित करने के लिए प्रकृति के साथ हमेशा ही खिलवाड़ करता आया है।

जिन सपनों के शहरों को इन मजदूरों ने अपने खून पसीने से सींचा, आज जब वहाँ इनके लिए अन्न का एक दाना नहीं बचता है तो ये विचार मन में आते है कि जिस शहर के लोगो के लिए इन मज़दूरों ने बर्षों तक जूठे बर्तन धोये, गंदगी साफ की, खाना बनाया, जिनका बोझ उठाया, आज उन अमीरों की इतनी भी क्षमता नही थी कि इन मजबूरों को कुछ दिन तक बस दो वक्त का खाना और सर छिपाने के लिए छत दे पाये।

जब सत्ता पर बैठे लोग अकल्पनीय पैसों के अंबार की चर्चा करते है तो सर पर जरूरी सामानों का बोझ उठाए और गोद मे छोटे बच्चे लिये, भूखेपेट सड़क पर पैदल चलते मजदूर इन चर्चाओं की धज्जियां उड़ा देते है। अपनी छोटी छोटी यात्राओं पर 20 गाडियाँ आगे पीछे भगाने वाले पालनकर्ता इस मुश्किल वक्त में इनके लिए एक सामूहिक बस की वयवस्था नहीं कर पाते है। जीवन भर बदनसीबी का बोझ उठाने वाले ये खुद्दार मजदूर ये बोझ भी बड़ी आसानी से उठा लेते है और चल पड़ते है टूटी हुई उम्मीद ले कर अपने गाँव की ओर इस उम्मीद मे की शायद वहीं उनकी भूख मिट पाये।

इसके लिए ज़िम्मेवार कौन है? क्या सच में ये मजदूर इस दयनीय स्थिति के हकदार हैं? क्या मेरी तरह आपको भी लगता है कि सत्ताधारी नेता, पढे-लिखे अधिकारी और बड़े बड़े व्यवसायी जो नोटो के पर्वत पर बैठने के लिए गरीबों की लाशों का ढेर बना रहे हैं? ये एक तरफ तो खुद के बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, नेता, अभिनेता, व्यवसायी इत्यादि बना रहे हैं, वहीं दूसरी ओर गरीब के बच्चे को शिक्षा और रोजगार के अभाव मे गुनाह के दलदल में धकेल रहे हैं। आप यकीन मानिये किसी भी गुनाह के नाले के मुहाने की खोज आपको किसी न किसी सफेदपोश अमीर के दरवाजे तक ले जाएगी। फिर यही अमीर लोग इन मजदूरों के अशिक्षित होने की दुहाई देंगे। परंतु न तो शिक्षा की व्यवस्था होगी और ना ही मजदूर की इतनी पगार होगी कि वो अपने बच्चे को शिक्षा दिला पाये।

आखिर ये नोटो के पहाड़ किस काम आते हैं? क्या अभी ये सोचने का वक्त नही है कि और पैसे क्यों कमाना है? क्या मनुष्य की जरूरतों को देखते हुये उसके अधिकतम धन, जमीन, और साधनों की सीमाएं निर्धारित नही की जा सकती है?

मुझे उम्मीद है कि मेरे इस छोटे से लेख को पढ़ने वालों के दिल मे सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने की प्रेरणा जागेगी। लोग खुद को बेहतर इंसान बनाने की कोशिश करेंगे, क्यूंकि सड़क पर मरते इन्सानों ने ये साबित कर दिया है कि इन्सानों के मरने से कहीं पहले समाज मे इंसानियत मर चुकी है।


          


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