साहेब सायराना-14
साहेब सायराना-14
दिलीप कुमार को "अभिनय सम्राट" कहा जाता था।
ये सवाल उठाया जा सकता है कि आख़िर अभिनय सम्राट कोई किस तरह होता है।
सिनेमा में कोई न कोई कथानक होता है, और उसे जीवंत करने के लिए कुछ पात्र होते हैं। आपको उन पात्रों का ही तो अभिनय इस तरह करना होता है कि वो स्वाभाविक लगे। देखने वालों को ऐसा लगे कि आप आप नहीं, बल्कि वो पात्र ही हैं।
उन्नीस सौ सड़सठ में एक फ़िल्म आई -"राम और श्याम"! इसमें दिलीप कुमार दोहरी भूमिका में थे। उनका एक रूप खल पात्र का था, और दूसरा अच्छे आदमी का।
सिनेमा हॉल से फ़िल्म देख कर निकल रहे युवाओं से पूछा गया कि आपको दिलीप साहब का काम कैसा लगा?
- बेहतरीन। अधिकांश का उत्तर था।
- आपको ये कैसे लगा कि दिलीप कुमार बेहतरीन एक्टिंग कर रहे हैं? सवाल किया गया।
एक छात्र का कहना था - फ़िल्म में जब उन्हें मार पड़ी तो मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मुझे मार रहा है और जब उन्होंने फ़िल्म के खलनायक को मारा तो मुझे ऐसा लगा कि उस बदमाश को मैं मार रहा हूं।
- लेकिन क्या ये उस खलनायक के अभिनय का कमाल नहीं है?
छात्र ने कहा- जब खलनायक अपने अड्डे पर गुस्से में भरा संवाद बोल रहा था तो लोग हंस रहे थे या मूंगफली खा रहे थे...
हर फ़िल्म की रिलीज़ पर ऐसी ही चर्चा दिलीप कुमार को अपने समय का बहुचर्चित सितारा बनाती थी।
उनके शालीन व्यक्तित्व को देख कर उन्हें मुंबई शहर का शेरिफ़ भी बनाया गया था।
शेरिफ़ का पद एक बहुत गरिमामय पद था। दिलीप कुमार ने इसे और भी ऊंचाइयां दीं। प्रायः राजा- रजवाड़ों का ज़माना ख़त्म हो जाने के बाद ये महसूस किया जाता रहा कि अब सत्ता में लोगों के चुने हुए लोग ही आते हैं। ऐसे में उन्हें हर समय और- और लोकप्रियता कमाने में ही लगे रहना पड़ता है। अतः समाज में ऐसे लोग बहुत ही कम रह गए हैं जो कमाई हुई लोकप्रियता व आदर का आनंद लेते हुए उसका निर्वाह करते हुए जनता के दिल में रह सकें।
दिलीप कुमार एक ऐसा ही व्यक्तित्व बन गए। उन्हें कुछ समय के लिए देश के सर्वोच्च सदन राज्यसभा में भी भेजा गया।