Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

रूपवान ..

रूपवान ..

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मेट्रो का आधा घंटे का सफर था। भीड़ होने से सृष्टि एवं मैं, स्टैंडिंग ही सफर कर रहे थे। उस पूरे सफर में, मुझे हैरानी यह देख कर हो रही थी कि मेरे पापा जैसी उम्र के एक व्यक्ति, सृष्टि (मेरी पत्नी) से मेरे से अधिक निकट होने की कोशिश कर रहे थे। 

यही होता तो भी कोई बात ना होती मगर, मुझे उनके इरादे एवं दृष्टि भी ठीक नहीं लग रही थी। जैसे तैसे सफर खत्म हुआ था। मैंने उस घटना को यह सोचते हुए मस्तिष्क से झटक दिया था कि मैं, उन्हें क्यों दोष दूँ, मेरी “सृष्टि” है ही इतनी रूपवान कि उसे देखकर, किसी का भी मन बेईमान हो जाए। घर आकर मैं, सामान्य रूप से अपने कामकाज में व्यस्त हो गया था। 

रात को हम बिस्तर पर जब साथ आये तब, सृष्टि मुझे अपसेट (परेशान) सी दिखाई पड़ी। 

मैंने पूछा - "क्या बात है सृष्टि, कुछ उदास सी लग रही हो?"

सृष्टि ने थोड़ा चिढ़ कर उल्टा प्रश्न किया - "मैं, रूपवान हूँ, युवा हूँ तो क्या, इसमें कोई दोष, मेरा है? "

मैंने उसका मूड ठीक करने के विचार से कहा - "सृष्टि दोष कहाँ है, देखो ना मैं, तुम पर लट्टू हुआ ही तो घूमता रहता हूँ। बिलकुल ऐसे जैसे कि तुम, मेरे जीवन की धुरी हो और उस पर मैं, लकड़ी की (कोन आकृति की) संरचना! "

मेरा यह कहना उल्टा पड़ गया था। अब सृष्टि ने मुझ पर ही बिफरते हुए पूछा - "अर्थात औरों की तरह आपके लिए भी, मेरे मन की सुंदरता से अधिक महत्व, तन के युवा एवं मेरे रूपवान होने का है?"

अब मैं, भांप गया कि सृष्टि आज, आत्मिक रूप से आहत है। मैंने, अपने स्वर को कोमलता प्रदान करते हुए कहा - "सृष्टि, मैंने परिहास की दृष्टि से और बल्कि, तुम्हारे मन को अच्छा करने के लिए ऐसा कहा है। मुझे, तुममें अच्छे गुणों का होना, तुम्हारे रूप से अधिक प्रभावित करता है। मैं तो स्वयं, गर्व अनुभव करता हूँ कि मुझे भाग्य वश, अति गुणवान पत्नी, जीवन संगिनी मिली है। बताओ, आज तुम्हारा मन यूँ खराब क्यों है?"

सृष्टि ने अब अपनी व्यथा कही - "ऑफिस हो, बाजार हो या सफर हो, हर जगह मुझे, अनेक पुरुष मिलते हैं। मुझे, वे पुरुष किसी लड़की के भाई, पिता या पति दिखते हैं। ऐसा होने से तब मुझे हर पुरुष, भाई, पिता जैसे ही लगते हैं।

मेरी समस्या यह है कि जिन्हें मैं, अपने भाई या पापा सा देख रही होती हूँ। तभी उनमें से कुछ पुरुषों की दृष्टि, मेरे मांसल अंगों एवं देहयष्टि पर केंद्रित देखती हूँ या उन्हें अपने स्पर्श को प्यासा देखती हूँ। ऐसा होने पर तब अपने आप को मैं, चाह कर भी एक अबला से अधिक अनुभव नहीं कर पाती हूँ। जबकि मेरा तर्क कहता है कि किसी दूसरे मनुष्य जितनी ही, मैं भी एक मनुष्य हूँ।"

यह सुनकर मुझे मेट्रो की घटना याद आ गई जिसके कारण सृष्टि आज ऐसी अपसेट हुई, लगती है। मैंने, समझाने के लिए सृष्टि से कहा - "सृष्टि, देखो इसमें इतनी व्यथित होने की कोई बात नहीं, इस समस्या से, तुम्हें ही नहीं अपितु लगभग हर लड़की को गुजरना होता है। "

सृष्टि के तेवर आज कुछ अलग ही थे। उसे शांत करने के उद्देश्य से कही गई मेरी यह सामान्य सी बात, उसे और अशांत कर गई थी। वह मेरी इस बात से अधिक रुष्ट हो गई उसने कहा - "यह तो अच्छा है कि आप मेरे लिए पजेसिव होकर (आधिपत्य भाव से), किसी को मारने यह खुद मरने पर उतारू नहीं हो जाते हैं। मगर आपने अभी जो कहा है कि “इस समस्या से तुम्हें ही नहीं लगभग हर लड़की को गुजरना होता है ” इस बात को इतनी सरलता से आप, इसलिए कह गए हैं कि आप पुरुष हैं। इस बात को हम लड़की इस आसानी से नहीं ले पाते हैं।"

मैंने पूछा -"इसमें तुम्हें, परेशानी क्या है? तुम, उन्हें अनदेखा करो और निश्चिंत रहो ना! मैंने, ऐसी बात को लेकर कभी कोई ऐतराज तुमसे तो किया नहीं है, ना!"

सृष्टि ने कहा - "आप, सुलझे विचारों के हैं तो ऐसा कर पाते हैं। अगर लड़की इन ख़राब दृष्टि या ख़राब स्पर्श को सहज में लेकर अनदेखा (इग्नोर) करती है तो उसे (लड़की को), समाज, निर्लज्ज कहने से नहीं चूकता है। लड़की की दुविधा इससे और बढ़ जाती है कि अगर वह, इन बातों पर आपत्ती जताये या अपने पति, भाई या पापा को बताये तो वे कुपित होकर लड़ने लगते हैं। 

ऐसे में छेड़छाड़ करने वाला पुरुष गुंडा या चाकू छुरा रखने वाला हुआ तो, पीड़िता लड़की को, गुंडे द्वारा, उसके ही अपनों को, घायल होते या पिटते देखने की कटुता सहन करने होती है।" 

कह कर सृष्टि रुआँसी हो गई। वह चूँकि आज. मेरी हर बात पर चिढ रही थी। अतः मैंने यह कहने का कि “नाहक ही तुम सभी लड़कियों/युवतियों का भला करने का ठेका अपने पर क्यों ले रही हो” विचार त्याग दिया। प्रकट में समर्पण कर देने जैसे भाव से सृष्टि से मैंने पूछा - 

"सृष्टि तुम इस ख़राब पुरुष कृत्यों का क्या कारण देखती हो? और ऐसा समाज में ना हो इसका क्या समाधान चाहती हो?"

सृष्टि बोली, मुझे सवेरे जल्दी उठना है। मुझे कल कि क्लास के लिए लेक्चर्स तैयार करने हैं। 

अभी आप,  “होंठों से छू लो तुम, मेरे गीत अमर कर दो” ईस ग़ज़ल के शब्द पर गौर करना। फिर हम, कल शाम यह चर्चा आगे करेंगे। "

मैंने सृष्टि के मन में चल रहे विचारों को, स्वमेव ही बदलते देखा तो संतोष की श्वास लेते हुए इसकी हामी भर दी थी ..

(अगले भाग में, समाप्त)



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