रक्षाबंधन
रक्षाबंधन
सुरभि मेज़ के कोने पे लगी कुर्सी पर बैठी कुछ सोच रही थी। अनायास ही उसकी आँखें गीली हो गईं।
शादी के बाद से ही उसे मायके जाने का मन नहीं करता। मम्मी-पापा तो थे नहीं, राखी पोस्ट करना बस एक औपचारिकता मात्र था। दिल से सब रिश्ते लगभग टूट चुके थे। भाई का न कोई फोन और न कोई आना-जाना ही था। इस बार पूरे 8 साल बाद राखी न भेजने का फैसला किया।
तभी अरण्य सुरभि के पास आया, "क्या दी, आप बार बार बस यही सब सोचने में क्यों लगी रहती हो? जो हुआ सो हुआ, अब वो सब सोच कर खुद को क्यों दुख दे रही हो? अच्छा छोड़ो ये सब, इस बार आपको मुझे राखी पोस्ट करने की ज़रूरत ही नहीं। मैं राखी तक यहीं हूँ। बाज़ार जा रहा हूँ। अभी आ रहा हूँ थोड़ी देर में।"
"ठीक है, तुम जाओ।" सुरभि ने कहा, "और हाँ, पड़ोस से आदर्श भैया को साथ ले जाओ। तुम्हें यहाँ के रास्तों का पता नहीं और उसे भी बाज़ार जाना था।"
"ठीक है, दी।" कह अरण्य चला जाता है।
अरण्य के जाते ही सुरभि फिर सोच में पड़ जाती है। एक ही तो सगा भाई है उसका। और इस बार वहाँ भी राखी पोस्ट नहीं की।
अचानक बाहर घण्टी बजी। सुरभि एकदम जैसे नींद से जागी हो। दौड़ते हुए दरवाज़े की ओर गई।
"गोविन्द, तुम अचानक ! कोई खबर नहीं की। What a great surprise! "
"बस इस बार बहुत मन था दी आप से मिलने का, तो छुट्टी मिलते ही चला आया। कुछ ग़लत किया दीदू?" गोविन्द बोला।
"नहीं, बिल्कुल नहीं। बहुत अच्छा किया। बहुत दूर से आये हो। थक गये होगे। फ्रैश हो जाओ, मैं खाने के लिए कुछ लाती हूँ। फिर थोड़ी देर आराम करो। थकान मिटा लो। फिर आराम से बात करेंगे।" सुरभि इतना कह रसोई की तरफ चल दी।
रसोई में जाते ही फिर वही सोच उस पर हावी हो गई। सोचने लगी, भाइयों को हो क्या जाता है शादी के बाद।
गोविन्द सीधे रसोई में ही आ गया और बोला, "दी, बहुत भूख लगी है।"
"आ रही हूँ, तुम अन्दर बैठो।" कहते ही गोविन्द के लिए चाय नाश्ता लेकर बाहर आ गई। खा-पी कर गोविन्द को आराम करने के लिए बोल खुद कमरे से बाहर आ गई। इतने में फोन की घण्टी बजी।
सौरभ का फोन था। "दी मैं आपके पास आ जाऊँ। तीन दिन की छुट्टी है ऑफिस की। घर जाऊँगा तो एक हफ़्ता लग जायेगा।"
"पागल है, इसमें पूछने की क्या ज़रूरत थी। सीधा घर आ जाता।" सुरभि ने बड़े प्यार से बोला।
"दी, आप एड्रेस मैसेज कर दो। अभी दो बजे हैं, शाम के छः बजे तक पहुँच जाऊँगा।" सौरभ ने कहा।
"ठीक है, मैं मैसेज कर देती हूँ।" कहते हुए सुरभि ने फोन काटते ही सौरभ को ऐड्रैस मैसेज कर दिया।
फिर कुछ सोचा और रोहन को फोन मिलाया, "रोहन, कैसा है?"
"अच्छा हूँ दी।"रोहन बोला।
"घर में सब कैसे हैं।"
"सब ठीक हैं, दी।"
"अच्छा एक काम कर। कल सुबह तक घर आजा।" सुरभि ने कहा।
"दी, अचानक ऐसे, मुझे तो छुट्टी भी नहीं मिली। आप को पता तो है मीडिया वालों को कहाँ छुट्टी मिलती है।" रोहन ने कहा।
"तू चुप रह। छुट्टी हो या न हो, बस सुबह घर आ जा। और हाँ भाभी को ज़रूर साथ ले आना। अकेले एंट्री नहीं है। "सुरभि हंसते हुए बोली।
रोहन मना ही नहीं कर पाया था। बोला, "ठीक है दी।" कहते ही उसने फोन रख दिया।
सुरभि लॉकडाउन की वजह से रोहन की शादी पे नहीं जा पाई थी।
शाम तक सौरभ और सुबह रोहन भी परिवार के साथ पहुँच गया था। सुरभि बहुत खुश थी।
नाश्ता वगैरह कर के महेश जी, सुरभि के पति ऑफिस चले गये और बेटा स्कूल। सुरभि की ननद की राखी तो आ चुकी थी। परिवार की व्यस्तता की वजह से वो आ नहीं पाती थी।
अब घर में सुरभि, अरण्य, गोविन्द, सौरभ और रोहन थे। सब ने नाश्ता किया और घूमने चलने का फैसला किया। राखी का सामान भी लेना था।
सुरभि ने बेटे को स्कूल से लिया और सब मिल कर बाज़ार चल दिये। बाज़ार थोड़ा घूमे, खाना खाया और खरीददारी करके महेश जी के आने से पहले वापिस आ गये।
आज घर में पहले की तरह शान्ति नहीं थी। बहुत चहल पहल थी। अच्छा लग रहा था अपने भाइयों को पहली बार मिल कर। बच्चों की तरह कभी लड़ रहे , कभी हंस रहे और कभी बच्चों की तरह शिकायत करते। सुरभि बहुत खुश थी। उसके दिल को बहुत सुकून मिल रहा था।
खाना वगैरह खा के सब थोड़ी देर बातें करते रहे। फिर सो सब सो गये। थके हुए तो थे ही, लेटते ही सबको नींद आ गई।
सुबह सुरभि ने नहा-धो के जल्दी ही खाना बनाया। फिर सब को उठाया। सब तैयार हो गये। सुरभि ने राखी की रस्म पूरी की। सुरभि की आँखों में आँसू थे। सुरभि ही नहीं चारों भाइयों की आँखों में भी आँसू थे।
सुरभि अब सोच में पड़ गई। एक ही उसका सगा भाई था अरुण, जिसे कोई फर्क ही न पड़ता था मेरे होने न होने से। और ये चारों मेरे अपने न होते हुए भी मेरे हर खुशी ग़म में हमेशा साथ रहे थे।
अरण्य, गोविन्द, सौरभ और रोहन सुरभि के सगे भाई नहीं थे मगर सगे से भी बढ़ कर थे।
एकदम से सुरभि को कुछ पंक्तियाँ याद आईं,
"रिश्ता कह देने भर से ही रिश्ता निभा जाते हैं,
केवल एहसासों को ही नई ज़ुबान दे जाते हैं,
बिना कहे ही हर बात दिल की समझ जाते हैं,
इतना कुछ होते हुए भी छोटे ही बने रह जाते हैं।
आज कल सगे भी कहाँ अपने ही हो पाते हैं,
पराये जहाँ परायों को ही अपना बना जाते हैं,
क्या ले दे कर आये थे, क्या ले दे कर जाना है,
बस शब्दों का बोझ भी आसानी से उठा जाते हैं।
ज़िन्दगी जहाँ कहीं इक बोझ सी बस बन जाए,
हम हैं न, बिन कहे ही बस भाव जगा जाते हैं,
असलियत में कितने ही रिश्ते साथ छोड़ जाए,
रिश्तों की नई परिभाषा ही बना जाते हैं।
खून के रिश्ते तो कहाँ साथ ही चल पाते हैं,
ऐसे रिश्तों की सच्चाई तो हम जान ही जाते हैं,
जब बीच राह खून के रिश्ते साथ यों छोड़ जाए,
एहसासों के रिश्ते ही तो उम्रभर साथ चल पाते हैं।
वास्तविकता है आज के रिश्तों की ,खून के रिश्ते बोझ बनने लग गए हैं। एहसास खत्म होते जा रहे हैं और ऐसे में भावनात्मक रिश्ते हमेशा साथ रहते हैं।
कुछ भी हो, सुरभि बहुत खुश थी। एक भाई की जगह अब उसके चार चार भाई जो थे और चारों भाई भी बहुत खुश थे।
अगले दिन सुबह ही चारों ने सुरभि से विदा ली, सबकी आँखों में खुशी के आँसू थे।