रोशनी की किरण
रोशनी की किरण
इतवार का दिन था।रमा अखबार पढ़ रही थी कि सहसा न जाने किस सोच में पढ़ गई। तभी छोटा १३ वर्षीय अतुल माँ के पास आया और कहने लगा, " "माँ! माँ! सुनो तो।"
रमा जैसे किसी गहरी नींद से जागी। अतुल को सामने देखते ही पूछने लगी, " क्या बात है, बेटा अतुल? क्या चाहिए?"
" माँ! मुझे कुछ पैसे चाहिए, जेब खर्च के लिए।" अतुल बोला।
" कितने?" रमा ने पूछा।
" पाँच सौ रुपये।" अतुल बोला।
वहीं खड़ी रमा की ननद श्यामा यह सब सुन रही थी। वह बोली, " इतने रुपये, इसका क्या करोगे?"
" बुआ, तुम्हें इससे क्या? मैं कुछ भी करूँ। वैसे भी तुम से थोड़े ही माँग रहा हूँ।" अतुल ने तपाक से उत्तर दिया।
श्यामा को उसकी कठोर बातें सुनकर बड़ा गुस्सा आया और कहने लगी, " देखा भाभी, कैसे बोल रहा है? बात करने की ज़रा भी तमीज़ नहीं है। अपने बच्चों के प्रति अपना व्यवहार कठोर करो।"
" श्यामा ! बच्चा ही तो है। तुम भी ऐसी छोटी बात का बुरा मान गई। इनके तो दिन हैं मौजमस्ती करने के। अब नहीं करेंगे तो कब करेंगे।" कहते हुए रमा ने पाँच सौ रुपये अतुल के हाथ में थमा दिए और वह चला गया।
" यह क्या, भाभी ! तुमने इतने रुपये अतुल को थमा दिए। बिगड़ जायेगा यह। अभी से सम्भाल लो। नहीं तो बाद में पछताओगी।" कहकर श्यामा अपने कमरे में चली गई।
प्रायः उनके घर में ऐसा ही माहौल रहता। रमा और श्यामा में बच्चों को लेकर बहस हो ही जा़या करती थी। यद्यपि श्यामा, रमा से उम्र में पाँच वर्ष छोटी थी, तथापि बुद्धि में उतनी ही तीव्र थी। परन्तु रमा कभी भी श्यामा की बात पर ध्यान नहीं देती थी।बेटे अतुल और ननद श्यामा के रमा के कमरे से चले जाने के बाद रमा फिर सोच में पड़ गई।
आज उसका मन अपने बीते हुए दिनों में खोया हुआ था। न चाहते हुए भी वह अपने जीवन के उन पन्नों को पलटने का प्रयास कर रही थी।उसके पिता शंकर गोपाल जी अपनी पाँचों बेटियों विद्या, शकुन्तला, कोमल, साक्षी, रमा को बहुत प्यार करते थे। माँ का तो बचपन में ही देहान्त हो गया था। पिता जी ने सब की परवरिश कोई कमी नहीं छोड़ी थी। पाँचों को पढ़ा-लिखा कर अपने पाँवों पर खड़ा करवाया था। पिता जी तो अपनी बेटियों को अपने बेटे कहा करते थे और सबकी परवरिश भी बेटों की तरह ही की।
रमा सबसे छोटी थी। सो बहनों में सबसे प्यारी थी। बड़े ही लाड़-प्यार से पली थी। इसीलिए रमा की शादी के समय उसकी विदाई करते हुए उसके पिता जी बहुत रोये थे।रमा बोली, " पापा! आप रो क्यों रहे हैं? आप कहें तो मैं यही रुक जाती हूँ। वैसे भी मैं कहाँ जाना चाहती हूँ , आप को छोड़ कर।"
रमा की आवाज़ में भोलापन था।
" बेटी ! जाना तो सबको है। फर्क सिर्फ इतना है कि जाने की जगह अलग होती है। मनुष्य एक जगह टिक कर कभी नहीं रह सकता। वैसे भी लड़की के लिए तो उसका ससुराल ही उसका अपना घर होता है, मायका नहीं।" पिता जी ने उसे समझाया था।फिर उसके बाद रमा कार में बैठ कर अपने ससुराल आ गई थी। उसके पति राजन बहुत अच्छे थे। उसका बहुत ध्यान रखते थे।
उनकी शादी के एक वर्ष बाद अमित का जन्म हुआ और उसके तीन वर्ष बाद अतुल का। अपने दोनों बेटों को देख कर वे कितने खुश होते थे। राजन प्रायः कहा करते थे कि वे अपने बड़े बेटे को डॉक्टर और छोटे बेटे को इंजीनियर बनाएँगे।कितना अच्छा चल रहा था यह सब। शादी के सात वर्ष पूरे हो चुके थे कि सहसा आए उस तूफान ने सबको झंझोड़ कर रख दिया था।राजन माँ जी का इलाज करवाने शहर जा रहे थे। लेकिन उसी बस की दुर्घटना हो गई जिसमें वे बैठे थे।रमा को आज भी याद है कि जब उसको इस बारे में पता चला तो वह स्तब्ध रह गई थी और वहीं की वहीं खड़ी रह गई थी। जब श्यामा ने भाभी से कुछ पूछना चाहा था तो रमा की आँखों से आँसू बहते ही चले गए, रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। फिर रमा ने स्वयं को नियंत्रित करते हुए श्यामा को बस दुर्घटना के बारे में बताया था। फिर रमा और श्यामा दोनों राजन को देखने अस्पताल चली गईं थीं।
अस्पताल पहुँचते ही कमरा नंबर पूछ कर राजन के पास पहुँचे। माँ जी तो दुर्घटनास्थल पर ही स्वर्ग सिधार गईं थीं। राजन के सिर पर गहरी चोट आई थी। अभी-अभी वे होश में आए थे। डॉक्टर से इजाज़त लेकर वे राजन के पास गईं।
राजन दुखी स्वर में बोले थे, "रमा ! अपनी लाडली बहन श्यामा और अतुल, अमित को तुम्हारे हवाले किये जा रहा हूँ। इनका ध्यान रखना। अब मैं और तुम्हारा साथ न दे सकूँगा। अब तुम्हें अकेले ही सब संभालना है। मैं बचूँगा नहीं।"
राजन बहुत जल्दी ही सब कुछ कह गए थे।रमा रुंधे गले से बोली थी, "नहीं, आप को कुछ नहीं होगा। आप मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते।"
सोचते-सोचते रमा ऊँचे स्वर में बोलने लगी, "आप मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते, नहीं......।"
रमा के ऊँचे स्वर को सुनकर श्यामा उनके कमरे में आ गई।
" क्या बात है, भाभी?" श्यामा बोली।
"कुछ नहीं, बस ऐसे ही। पुरानी बातें याद आ गईं थीं।" रमा ने जवाब दिया।
" भाभी पुरानी बातों को भूल जाओ। आज की सोचो। वैसे भी पुरानी बातों को सोचकर तुम्हें दुख ही होगा। जो होना था सो हो गया। अब उसे याद करके आँसू मत बहाओ।" श्यामा जल्दी में ही बोल गई।
" परेशान मत हो, श्यामा। अब मैं कुछ नहीं सोचूँगी। तुम जाओ अपने कमरे में।" रमा ने कहा।
श्यामा चली गई।
रमा का मन अभी भी उन यादों में खोया हुआ था।पति के देहान्त के बाद रमा को कई समयोपरि कार्य करने पड़ते थे। वह अपने बच्चों की प्रत्येक माँग पूरी करती थी। वह नहीं चाहती थी कि उसके बच्चों को कोई कमी महसूस हो। प्यार जो इतना करती थी उनसे। कभी भी पिता की कमी महसूस न होने दी उन्हें और न ही श्यामा को भाई की।
श्यामा की शादी तो रमा ने बहुत ही धूम-धाम से करवाई थी। अब श्यामा दस-पंद्रह दिनों के लिए अपने मायके आई हुई थी।रमा के दोनों बेटे अतुल तेरह वर्ष और अमित सोलह वर्ष के हो चुके थे। अमित पढ़ाई में होशियार था। हर कक्षा में अव्वल आता था। परन्तु अतुल का ध्यान तो अधिकतर खेल-कूद में रहता था, मग़र जैसे-तैसे पास हो ही जाता था।
रमा दफ़्तर के काम की वजह से बच्चों पर अधिक ध्यान नहीं दे पाती थीं। रमा सोचती थी कि अमित बड़ा हो जाएगा, घर में बहु के चरण पड़ेंगे तो वो अतुल को भी सम्भाल लेगी।
इस माहौल के बीच छ: वर्ष कैसे बीत गए, पता ही न चला। अमित ने डॉक्टरी की डिग्री प्राप्त कर ली थी और उसे कुछ ही महीनों के बाद सरकारी अस्पताल में नौकरी मिल गई तो रमा का बोझ कुछ हल्का हुआ।अब रमा अमित की शादी के बारे में सोचने लगी। कुछ रिश्ते आए भी थे। रमा ने उनमें से एक लड़की की तस्वीर अमित को दिखाई और पूछा, " बेटा, क्या तुम्हें यह लड़की पसन्द है?"
" माँ, आप की पसन्द, मेरी पसन्द। फिर पूछने की क्या बात है।" अमित ने जवाब दिया।अमित की शादी शोभा नाम की लड़की के साथ तय कर दी गई।
शादी भी हो गई। शादी के एक वर्ष तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। रमा भी खुश थी।शोभा ने अपने पति को भड़काना शुरू कर दिया। अमित बहुत भोला था। बहुत जल्दी शोभा की बातों में आ गया। शोभा ने अमित को नया घर लेने को राज़ी कर लिया। अमित अपनी माँ से अलग रहने के लिए भी मान गया।
इस बात को चार दिन बीत गए।
रमा जब दफ़्तर से घर लौटी तो घर में चुप्पी का माहौल पाया। वे अमित को पुकारने लगी।
अमित तो नहीं आया। अतुल अपने कमरे में से आया और बोला, " माँ, भैया-भाभी तो अपने नये घर चले गए हैं। "
" नये घर?" रमा चौंक पड़ी।
" हाँ माँ! नये घर। भाभी नहीं चाहती थी कि उनके बच्चे पर किसी विधवा का साया पड़े।" अतुल बोला।
" क्या कहा तुमने? शोभा माँ बनने वाली है। फिर तो बड़ी खुशी की बात है।" रमा ने बिना सोचे-समझे ही कहा।
" पर मैं तुम्हें भैया-भाभी के पास नहीं जाने दूँगा और मैं भी उनके पास ही जा रहा हूँ। मुझे अब तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं है। तुम अब बूढ़ी हो गई हो। खुद को तो सम्भाल नहीं सकती। मुझे क्या सम्भालोगी? कभी हमारे पास आने की हिम्मत भी न करना।" अतुल यह कहते ही घर से चला गया।
कितनी मुश्किलों से पाला था रमा ने दोनों को, परन्तु दोनों ने उसकी कद्र न की थी। रमा के हृदय में अतुल के शब्द शूल की तरह चुभ रहे थे।
अब रमा को श्यामा की बात याद आई। कितना मना करती थी वह उसे बच्चों की हर माँग पूरा करने को। पर उसने एक भी न सुनी थी। परन्तु अब तो कुछ भी न हो सकता था।
रमा इतनी कोमल भी न थी कि बच्चों की इस नासमझी से घबरा जाए। आखिर उसी ने तो इतने कष्ट सह कर दोनों को बड़ा किया था। बात चाहे कुछ भी हो, मग़र रमा को उनसे ये उम्मीद न थी।रमा की सोच बड़ी गहरी होती जा रही थी। रमा सोच रही थी कि उसने अपने बच्चों के खोने का दुख अनुभव किया है। बहुत सारी माँएं ऐसी होंगी जिनके बच्चों नें उन्हें छोड़ा होगा। ये वेदना तो संसार भर की माँओं की होगी। अपने बच्चों से दूर रह कर भी कोई माँ जी पाई है। रमा भी आज बहुत दुखी थी।
आज रमा को राजन की बहुत याद आ रही थी। वह मन ही मन राजन को कह रही थी, " राजन! मुझे माफ कर देना। मैं आपकी अन्तिम इच्छा पूरी नहीं कर पाई। कृपया मुझे माफ कर देना।"
सहसा उसने अपनी आत्मा को झंझोड़ा और खुद को भावुकता के गहरे सागर से बाहर निकाला।उसके मुँह से अनायास ही निकला,
" खुद न रोशन हो सके,
तो क्या हुआ?
रोशन सारा जहाँ होगा,
यादें छोड़ जाएँगे,
हर शख़्स पर हमारा
निशाँ होगा।"
ये शब्द उसके अन्तर्मन से निकले थे। उसके अन्तर्मन ने उसे समझाया था कि अगर हम दुखी हैं तो दूसरों को सुखी करो। हम दुखी ही सही, लोग हमें याद तो करेंगे।
रमा अब तक अपने कार्य से सेवामुक्त हो चुकी थी और अकेली थी। उसने समाज के कल्याण के लिए समाज में पूर्वजों की संस्कृति और सभ्यता का पुनर्निर्माण करने का बीड़ा उठाया क्योंकि वह जानती थी कि बच्चा वैसा ही बनता है जैसा कि समाज उसे बनाता है। वह चाहती थी कि उसकी तरह और किसी माँ को इस तरह दुख न भोगना पड़े।रमा को उसके सेवामुक्त होने पर कुछ पैसे मिले थे। उन पैसों से उसने एक बेसहारा आश्रम और एक विद्यालय खोला। उस विद्यालय में वह आश्रम के बेसहारा बच्चों को पढ़ाती थी। बेसहारा बच्चों को अपने बच्चों की तरह प्यार करती। अब ये बच्चे उसका एक-मात्र सहारा थे और उन्हीं के लिए वह ज़िन्दा थी।
विद्यालय का पहरावा उन्होंने धोती-कुर्ता और कुर्ते पर तिरंगे का निशान था जो बच्चों को उनके कर्तव्य की याद दिलाता था। उसका उद्देश्य बच्चों को और बच्चों के माध्यम से आस-पास के लोगों को यह समझाना भी था कि उनकी संस्कृति क्या है। इस प्रकार संस्कृति से सम्बन्धित कई बातों पर उसने ध्यान दिलाया।
अब रमा ने आश्रम के बच्चों का ध्यान दूसरों की भलाई में केन्द्रित करना शुरू कर दिया। छुट्टी वाले दिन आश्रम के बच्चे शहर की सफाई में जुट गए। रमा ने इस कार्य में अपना पूरा-पूरा सहयोग दिया। बच्चों को एहसास हो गया था कि उनके लिए उनके शहर, उनके देश का क्या महत्व है।रमा के विद्यालय में बचपन से ही सबको उनकी रुचि के अनुसार अतिरिक्त विषय भी पढ़ाया जाता।
इस प्रकार आश्रम के बच्चों में देशभक्ति के भाव, सहयोग की भावना, प्रेम और उसके अतिरिक्त भी अनेक गुण पैदा हुए। रमा बच्चों के चरित्र निर्माण की ओर विशेष ध्यान देती। आश्रम के बच्चों की देखा-देखी शहर के अन्य लोग और बच्चे भी आश्रम के बच्चों का हाथ बँटाने लगे।अब क्या था, रमा का शहर देश भर के नक्शे में पहले स्थान पर आ गया। स्वच्छ, सभ्य व सुसंस्कृत जो हो गया था।जितनी सन्तुष्टि आज रमा को मिली उतनी उसे कभी न मिली थी। वह मन ही मन बहुत प्रसन्न थी। उसे विश्वास था कि अब उसके सभ्य और सुसंस्कृत शहर में कोई भी माँ अपने बच्चों के प्यार से वंचित न हो पाएगी।
अपने शहर के इस पुनर्निर्माण के लिए उसे राज्य के मुख्यमन्त्री जी ने विशेष पुरस्कार से सम्मानित किया और कहा कि हमारे देश के सभी लोग स्वयं को अपने देश को अर्पित कर दें तो हमारा देश कितना खुशहाल होगा।इस अवसर पर रमा ने कहा, " मैंने तो केवल अपने शहर को ही ऐसा बनाने का विचार किया था लेकिन यदि आपका अर्थात देश की जनता का सहयोग रहा तो हमारा देश भी, हमारे शहर की तरह अपनी महान् संस्कृति और सभ्यता का ऋणी होगा और उसे अपनायेगा। मैं इसी समय आप सबके सामने अपनी मातृभूमि की सौगन्ध लेती हूँ कि अपना जीवन अमानत समझ कर इस देश को समर्पित कर दूँगी। मेरा आप से अनुरोध है कि आप मुझे पूरा सहयोग देंगे।"रमा मंच से उतरने ही वाली थी कि तभी अतुल और अमित मंच पर आ गए और सभी लोंगों के सामने अपनी माँ से माफी माँगी। अब तक अतुल की शादी भी हो चुकी थी।
अतुल, अमित और उनकी पत्नियों ने मिलकर यह प्रण लिया कि वे कभी अपनी माँ के प्रत्येक काम में अपना हाथ बँटाएंगे।आज अपनी माँ के देहान्त के बाद भी वे अपनी माँ के द्वारा जलाई गई इस ' रोशनी की किरण ' को लौ देते आ रहे हैं और रहती दुनिया तक इस किरण को प्रज्वलित रखने का प्रण ले चुके हैं।