Juhi Grover

Inspirational

4.2  

Juhi Grover

Inspirational

नन्हा स्पर्श

नन्हा स्पर्श

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212


  संध्या का समय था। वायु मन्द गति से बह रही थी। प्रकाश का कुछ अंश ही शेष था।

      रेणु दफ़्तर से लौटते ही घर पहुँचने के लिए स्थानीय बस पर सवार थी। उसके मुख पर गहरी उदासी और गम्भीरता की रेखायें थी मानो वह अपने आप से प्रश्न पूछ रही हो," हम क्यों जीते हैं ऐसी भारी-भरकम ज़िन्दगी? क्या ज़रूरत है इसकी?"

      उसकी नज़रें बस की खिड़की से बाहर पीछे की ओर जाते दृश्यों का नज़ारा देख रही थीं और सहसा उसे याद आया कि वह अपने पीछे क्या-क्या छोड़ आई थी-अपना मायका, अपना परिवार अपनी सारी ज़िन्दगी जैसे दान में दे आई थी और तलाकशुदा होने के बाद उसके पास क्या शेष था? कुछ भी नहीं। बच्चे भी तो नहीं थे। अकेली ही तो रह गई थी वह। ऊपर से दफ़्तर में बॉस की रोज़-रोज़ की झिक-झिक और बस में खाने के लिए धक्के। क्या यही ज़िन्दगी है?

       वह सोचती चली जा रही थी। इतने ही में उसके बाएँ कन्धे पर एक हल्का-सा, मुलायम-सा स्पर्श हुआ। उसने पीछे देखा। एक चार-पाँच साल का बच्चा पीछे की सीट पर बैठा मुस्कुरा रहा था।

       रेणु ने भी अपने चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट बिखेरी। बच्चे ने अपना दाँया हाथ रेणु के दाँये कन्धे पर रख दिया।

       इतना अपनापन उसने बचपन से लेकर आज तक कभी भी अनुभव न किया था। उसको जैसे जीने का एक नया मक़सद मिल गया था। उसके सारे प्रश्न मन्द गति से बह रही वायु में विलीन हो चुके थे। उसके मन की उदासी, मालूम नहीं, कहाँ ग़ायब हो गई थी।

       इस नन्हे स्पर्श ने उसकी आँखों में आँसू ला दिये। मगर ये आँसू दुख के आँसू नहीं बल्कि एक प्रकार की विजय के आँसू थे। इतने में उसका गंतव्य स्थान आ गया। उसने अपना सामान सम्भाला और बस से उतर कर घर की राह ली।  


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