Gaurav Shukla

Abstract

4.5  

Gaurav Shukla

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रिटर्न् टिकट

रिटर्न् टिकट

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उम्र !

बहुत कुछ याद दिला देती है।यक़ीन न हो तो कोई नंबर लीजिए और उम्र आपको याद दिलाएगा उस नंबर की उम्र के अनगिनत किस्से..

और हर याद के साथ कभी चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है तो कभी ख़ुद पर अफ़सोस,कभी मन दुःख से भर जाता है तो कभी फिर वही उम्र जीने का मन करता है।

ऐसे ही कुछ उम्र से लेना देना लगा रहता है ऋषभ का भी!जैसे जैसे उम्र का नंबर बढ़ता जा रहा था ,सपने भी जुड़ते जा रहे थे।

तो आज की कहानी का शीर्षक है "रिटर्न् टिकट" 

आज से 16 साल पहले जब इस उम्र के नंबर की शुरुआत हुई थी उसी के ठीक 6 साल बाद,जब ऋषभ ख़ुद का नाम पता बता सकता था।बात उस समय की है।

गर्मी के महीने में लू का तांडव इस कदर रहता था की घर से बाहर निकलते ही ऐसा लगता था मानो किसी जलती भट्टी के सामने से होकर गुज़र रहे हो।

गर्मी को देखते हुए जिला अधिकारी ने 2 महीने तक स्कूल बन्द करने का फैसला सुनाया।

हर बार की तरह इस बार भी ऋषभ और उसका छोटा भाई शाहिल मामा के घर जाने की प्लानिंग करने लगे।

"मम्मी ! मम्मी !! मामा कब आ रहे हैं लेने?"- थोड़ी सी निराशा लिए ऋषभ ने मम्मी से कहा।

"चलेंगे बेटा!आ जाएंगे कल तुम लोग अपना बैग तैयार कर लो !" - मम्मी ने माथे पर सुकूँ की मोहर लगाते हुए ऋषभ को इतना कहकर खेलने के लिए भेज दिया।

मम्मी की यही मोहर जैसे सुकून की रजिस्ट्री हो...फिर तो किसी जमींदार की तरह खुशियों का सीना चौड़ा किये हर जगह घूमते फिरते थे।

हर बार कि तरह इस बार भी ऋषभ और शाहिल, मम्मी के साथ गर्मी की छुट्टियां मनाने मामा के यहाँ जाने वाले थे।और इस बार छोटे वाले मामा जी लेने आ रहे थे।

इधर मम्मी ने भी सारी तैयारियां कर ली थी।ऋषभ और शाहिल भी नए नए कपड़ो के साथ चलने के लिए तैयार थे।

ऋषभ और शाहिल के कपड़ो से ज्यादा चमक तो उसके चेहरे में देखनें को मिल रही थी।

8 बजे सुबह की बस थी तो जल्दी जल्दी सभी लोग सुबह ही उठकर नहा कर और तैयार होकर सड़क पर बस के आने का इंतज़ार करने लगे।

अभी 15 मिनट और थे बस को आने में।

और इधर ऋषभ अपने सारे कामों की एक लिस्ट सी बना ली थी।

मामा के यहां मैच खेलना है!,

कैरम खेलना है! 

और न जाने क्या क्या।

"लो आ गयी बस-ऋषभ यहाँ आओ बेटा जल्दी! " मम्मी ने एक हाँथ में बैग और एक हाँथ से ऋषभ को थामते हुए बस में चढ़ गयी।

ऋषभ मामा के साथ था और शाहिल मम्मी की गोद में।

बस अभी कुछ ही दूर चली थी कि कन्डक्टर साहब अपनी ख़ज़ाने कि पोटली लिए 

"टिकट"

"टिकट"

करते हुए मामा के आगे वाली सीट पर रुके ।

मामा ने ऋषभ को अपनी गोद से नीचे उतारा और कुछ पैसे जमा करने शुरू कर दिए,

जैसे ही कन्डक्टर उनकी ओर बढ़ा तो मामा ने झट से जमा किये हुए पैसे कन्डक्टर को दिए और उसके बदले में उसने एक कागज़ का टुकड़ा दे दिया !

ऋषभ सारी चीजों को बड़े ध्यान से देख रहा था।ऋषभ ने मन ही मन में सोचा कि 'मामा के घर पहुँचते ही मैं भी सबको कागज का टुकड़ा दे कर पैसे रख लिया करूँगा।'

उम्र के इस नंबर ने एक सपने को जोड़ दिया।

ऋषभ से रहा न गया उसने मामा से पूछ ही लिया।

"मामा ये आदमी सबसे पैसे लेकर उन्हें कागज़ क्यों दिया?"

"वो अपनी गाड़ी से हमें ले जा रहा है न इसीलिए !" 

मामा ने भी अपनी एक मोहर की छाप छोड़ते हुए कहा।

"तो क्या इस टिकट से पैसे बनाये जा सकतें है ? " ऋषभ मन ही मन इस बात को सोचता रहा।

सोचते सोचते ऋषभ ने मामा से वो टिकट देखने के लिए मांग ही लिया। बहुत देर तक टिकट को निहारते हुए आखिरकार उसको जब कुछ नही समझ आया तो उसने टिकट वापस कर दी।और फिर से मामा की गोद में बैठ गया।

कुछ समय बाद हम लोग मामा के घर पहुंचने ही वाले थे कि तभी मैंने देखा कि सभी लोग अपनी टिकट कन्डक्टर को वापस कर रहे थे ।और तो और कन्डक्टर उन्हें वही पैसे वापस किये जा रहा था। 

ऋषभ को कुछ समझ नही आ रहा था।उसने सारी घटनाओं को नजरअंदाज करते हुए मामा की गोद को बिस्तर समझ कर सो गया।

"उठो ऋषभ आ गए हम घर" मामा ने उसको नींद से उठाते हुए कहा।

ऋषभ के मन से वो बात जा ही नही रही थी।वह घर पहुंचते ही मामा से वो टिकट मांग लिया ,लेकिन ये क्या टिकट को किसी ने कोने से फाड़ दिया था।ऋषभ को ये देख कर बहुत दुःख हुआ जैसे किसी ने उसके सपने में पहले ही सेंध लगा दिया हो ।

ख़ैर तबभी ऋषभ ने उसको संभाल कर रख लिया।

कुछ दिन यूँ ही खेल कूद में निकल गया।अगली सुबह मामा जी को कहीं बाहर जाना था,ऋषभ ने मामा से अकेले में बुलाकर कान में अपने सीक्रेट प्लान को फूंकते हुए एक बिज़नेसमैन की तरह खड़ा हुआ।

और कुछ देर मंत्र देने के बाद ..

ओके ?

कहते हुए मामा जी को विदा कर दिया।

दो दिन के बाद जब मामा जी वापस ढेर सारी चॉकलेट और कपड़ो के साथ जैसे ही घर में घुसे।ऋषभ तेज़ी से दौड़ते हुए मामा के पास जा पहुंचा।

-लाये?

पहुंचते ही मामा जी से ऋषभ ने हिसाब मांगना चाहा लेकिन मामा ने उसको भी चॉकलेट पकड़ाते हुए अंदर चले गए।

कुछ देर के इंतज़ार के बाद आखिरकार मामा जी से मीटिंग हो ही गयी ऋषभ कि और मीटिंग ओवर होने के बाद ऋषभ तो मानो खुशी से पागल हो जाएगा।

उसके हाँथों में एक नही,दो नहीं ,तीन नहीं पूरे 15 टिकट थे।

उसने एक एक करके इकट्ठा कर लिया।अब उसके पास पूरे 17 टिकट थे।

ऋषभ को इंतज़ार था तो सिर्फ बस का जहाँ से वो अपना बिजेनस शुरू कर सके।उम्र के इस नंबर ने सपने का नंबर काफ़ी ऊंचा लगाया था।

पूरे 1 महीने 20 दिन बीत जाने के बाद आखिरकार वो दिन आ ही गया जब ऋषभ अपने घर वापस जाने वाला था।

कैलेंडर के हर तारीख़ में पेन की मार पड़ी थी।इससे ये तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि घर जाने का इंतज़ार जितना ऋषभ को था शायद ही किसी को होता।

ऋषभ ने सब कुछ अपने बैग में भर लिया और वो सारी टिकट स्पेशल पॉकेट में जो उस बैग के सबसे ऊपर वाले हिस्से में था जिसमें कभी किसी के दिए मोर के पंखे को रखा जाता था,वहीं आज टिकट थे जो शायद उसके सपनों को पंख लगाने वाले थे।

मम्मीके साथ शाहिल भी बैठ गया।इस बार मामा जी नहीं थे साथ में इस बार थे ....तो ऋषभ के पापा...ऋषभ उन्हीं के पास बैठ गया।

जैसे जैसे बस आगे बढ़ रही थी ऋषभ कि साँसे भी...ऋषभ बार बार उस टिकट वाले पॉकेट को खोलता फिर बंद कर देता।

आखिरकार कन्डक्टर टिकट टिकट करते हुए आ ही गया।ऋषभ ने बड़े उतावलेपन से 

"एक टिकट इधर भी दे दीजिए."- चिल्लाते हुए कहा।

"अरे तुम क्यों परेसान हो बेटा अभी ले लेंगे टिकट.." पापा ने ऋषभ को अपनी गोद में बिठा लिया।

पापा ने कन्डक्टर से दो टिकट ले ली। उनके हाँथ में टिकट देख ऋषभ से रहा नहीं गया और उसने पापा से वो दोनों टिकट मांग लिये। उन्होंने बिना किसी सवाल के ऋषभ को वो दोनों टिकट दे दिए।

बस लगभग आधे रास्ते का सफ़र तय कर चुकी थी लेकिन ऋषभ के सपनों का सफ़र अभी बस स्टॉप पर अपने बस के इंतज़ार में थी।

बहुत देर इंतज़ार करने के बाद ऋषभ से अब रहा नहीं गया।

उसने सारी टिकट निकाली और हाँथ में लेकर बैठ गया।आस-पास इतने गौर से नज़र दौड़ाई जैसे उसके पास टिकट नहीं किसी अलीबाबा का पूरा खज़ाना हो और आस पास सब लुटेरे कि जिसे देखते ही सब लूट लेंगे।

उसनें फिर से गिनती शुरू की....

एक...दो...तीन......…उन्नीस पूरे उन्नीस टिकट थे।

जब कन्डक्टर साहब दोबारा लौट के नहीं आये तो ऋषभ ने पापा की मदद लेना जरूरी समझा....

पापा !

पापा !

-हाँ बेटा बोलो !

-देखिए मैं आपको एक टिकट के पैसे दूंगा बस!

-क्या हुआ ! किस चीज़ के पैसे

- पहले कन्डक्टर को बुलाइये !

पापा के समझ में कुछ नहीं आ रहा था !

मेरे हाँथ में सारी टिकट देख शायद उन्हें कुछ समझ आया लेकिन तब तक बस घर पहुंच चुकी थी।

माधवपुर !

माधवपुर !

बस कन्डक्टर ने आवाज़ लगाई और इधर पापा ...समान उतारने में लग गए।

ऋषभ ने थोड़ा और लालच देने का एक और प्रयास किया।

-अच्छा ठीक है दो टिकट का पैसा पूरा आपका!

-चलो अपना बैग उठाओ ! पापा ने ऋषभ की बात को लगभग नजरअंदाज करते हुए ऋषभ से कहा

ऋषभ ने अपना बैग उठाया और सीधे कन्डक्टर के पास गया।

-ये लीजिए "पूरे 19 है" ऋषभ मानो किसी हीरे का सौदा कर रहा हो।

-ये क्या है इसका मैं क्या करूँ? कन्डक्टर साहब से ऐसे कहा मानों वो इस धंधे में हैं ही नही !

-अरे मुझे इनका पैसा चाहिए और जो दो टिकट फटी है उनके कम दे देना और क्या ! ऋषभ ने जिस तरीके से बोला मानो कोई बिज़नेसमैन किसी से डील कर रहा हो।

-"ओएलेलेलेलेले" कन्डक्टर साहब ने भी एक उड़ती हुई मोहर ऋषभ के गाल पर चिपकाते हुए बोला

-बेटा ये तो बस रिटर्न टिकट है,और पैसा तब मिलता है जब पैसे बाकी हो!

ऋषभ स्तब्ध सा बस खड़ा रह गया।

उसे जब तक ये समझ आता वो उतर चुका था।

उसकी उम्र जितनी छोटी थी सपने उतने बड़े.......।

उसके जहन में बस वो शब्द गूँज रहे थे।

"रिटर्न् टिकट "

काफ़ी देर तक ऋषभ उन 19 टिकट को घूर रहा था और फिर अपने सपने और जमा पूंजी को अपने बैग में भरते हुए घर चला गया।

बस इतनी सी थी ये कहानी।


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