प्यार के मोड़ पर

प्यार के मोड़ पर

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"मेरे प्रिय

रोजमर्रा कि कितनी ही ऐसी बातें होती हैं जो मैं तुमसे कहना चाहती हूँ, लेकिन जब तुम सामने होते हो तो ज़ुबाँ से शब्द जैसे कहीं गुम हो जाते हैं।

इसलिए आज मैं तुम्हें ये खत लिखने बैठी हूँ।

मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि जब तुम मुस्कुराते हो मैं अपने सारे दर्द भूल जाती हूँ। तुम उदास होते हो तो मेरा भी मन टूट सा जाता है।

हर पल मेरी आँखों में एक इंतज़ार होता है, कि कब तुम्हारी एक झलक मिले और मेरी नजरों की प्यास मिटे।

याद करने की कोशिश करती हूँ कि वो कौन सा पल था जब तुम मेरे दिल की गहराइयों में बस गए। लेकिन क्या कोई ये बता सकता है की आंगन में धूप किन कोनों से उतरकर आती है और फिर धीरे-धीरे पूरे आंगन पर छा जाती है?

तुम्हारे अहसास जब मुझे घेर लेते है तो मेरा अकेलापन दबे पांव कमरे से बाहर चला जाता है, और मैं बैठी होती हूँ तुम्हारे साथ हाथों में हाथ लिए, कभी प्यार से तुम्हें देखती हुई, तो कभी रूठती-मनाती हुई।

तुम्हारा प्रेम शक्ति है मेरी, जो मुझे किसी भी मुश्किल के आगे हार नहीं मानने देता।

हमेशा ऐसे ही मेरी ताकत बनकर ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मेरे साथ रहना।

हम साथ मिलकर बनाएंगे, बसायेंगे अपना आशियां, जो मोहब्बत की खुशबू से लबरेज होगा, हमारे ख्वाब जहाँ हकीकत बनकर सजे होंगे। मेरी ज़िंदगी का अब बस एक ही उद्देश्य है, तुम्हारे होंठो पर मुस्कान बनाये रखना।

ढेर सारी मोहब्बत तुम्हें।

तुम

हाँ तुम

बस तुम ही

हो अब मेरी ज़िंदगी

एक पल नहीं रह सकती

अब मैं बिना तुम्हारे मेरे प्रिय

तुमसे ही अब शुरू होता है दिन

तुम्हारे नाम से ही अब ढलती है रात

हम गुजर जाएंगे सारे तूफानों से हँसते-हँसते मेरे सनम,

बस तुम थामे रखना हाथों में मेरा हाथ हमेशा हमदम।

तुम्हारी तनु"


शुभिता के द्वारा लिखा हुआ ये प्रेम-पत्र पढ़कर अंकिता सिटी बजाते हुए बोली "अरे वाह शुभु, क्या प्रेम-पत्र लिखा है तूने। इसे पढ़कर तो वो नितिन अपनी तनु के प्यार में पागल हो जाएगा।"

"अब वो पागल हो या दीवाना, मैंने मेरा काम कर दिया। अब तुम दोनों मेरी जान छोड़ो और मुझे पुस्तकालय जाने दो।" शुभिता ने जवाब दिया।

इस पत्र को संभालकर रखते हुए तनु ने कहा "यार शुभु, एक बात बता एक तरफ तो तू कहती है कि तुझे ये प्यार-मोहब्बत की बातें बकवास लगती हैं, लेकिन दूसरी तरफ तू हमेशा हम सबके लिए ऐसी प्यारी चिट्ठियां भी लिख देती है जिनसे मोहब्बत टप-टप करके टपकती हैं। इसके पीछे क्या राज है?"

"इसके पीछे बस यही राज है मेरी दिमाग से पैदल और दिल के पीछे बाँवरी हुई सहेलियों, की ईश्वर ने मुझे ये टैलेंट इसलिए दे दिया क्योंकि उन्हें भी पता था इस दुनिया में मेरा पाला तुम दोनों से पड़ने वाला है और तुम दोनों की मोहब्बत की गाड़ी को पटरी पर खींचकर भी मुझे ही लाना है।

अब दोस्ती की है तो निभानी तो पड़ेगी ना।" कहकर हँसती हुई शुभिता के कदम पुस्तकालय की तरफ बढ़ गए।

शुभिता, अंकिता और तनु तीनों बचपन की सहेलियां थी। विद्यालय की पहली कक्षा से लेकर अब कॉलेज के अंतिम वर्ष में भी तीनों साथ ही थी।

जहाँ अंकिता और तनु इस बात को लेकर क्लियर थी कि उन्हें बस डिग्री लेनी है और उसके बाद अपने माता-पिता की मर्ज़ी से विवाह करके घर-गृहस्थी में रम जाना है, वहीं शुभिता की आँखें हर पल बस एक ही सपना देखा करती थी, इस बड़ी सी दुनिया में अपनी एक छोटी सी पहचान बनाने का सपना। इसलिए जहाँ अंकिता और तनु का ध्यान पढ़ाई से ज्यादा मौज-मस्ती और प्यार-मोहब्बत की तरफ रहता था, वहीं शुभिता अपनी किताबों में मगन रहती थी।

शुभिता के अंदर लिखने की कला ईश्वर-प्रदत्त थी जिसका फायदा अक्सर उसकी सहेलियां उठाया करती थीं, उससे अपने प्रेम-पत्र लिखवाकर। आज भी शुभिता ने तनु की ज़िद पर वैलेंटाइन डे के उपहार स्वरूप ऐसा ही एक पत्र लिखकर उसे दिया था ताकि वो उसे अपने प्रेमी नितिन को दे सके।

लेकिन स्वयं शुभिता के जीवन में प्यार-मोहब्बत, वैलेंटाइन जैसी बातों के लिए कोई जगह नहीं थी।

वैलेंटाइन डे, जिसका इंतज़ार आजकल के प्रेमी-जोड़ों को बेसब्री से रहता है, आ चुका था।

कॉलेज में आज कुछ अलग ही रौनक थी। आखिरकार अंतिम कक्षा खत्म हुई और जिन लड़के-लड़कियों को अपना वैलेंटाइन मिल गया था वो आज का दिन सेलिब्रेट करने के लिए तेजी से बाहर निकलने लगे।

तभी अचानक भीड़ में एक ज़ोरदार थप्पड़ की आवाज़ गूँजी। सभी लोगों के बढ़ते हुए कदम रुक गए।

ये थप्पड़ शुभिता ने मारा था उस लड़के को जो भीड़ का फायदा उठाकर किसी लड़की का दुपट्टा खींच रहा था। वो लड़की सहमी हुई सी शुभिता के पीछे खड़ी थी।

जब वहाँ मौजूद लोगों को ये बात पता चली तो सब मिलकर उस लड़के को घसीटते हुए प्रिंसिपल के ऑफिस में ले गए।

उस डरी-सहमी हुई लड़की ने जब शुभिता को धन्यवाद कहा तो शुभिता बोली "अपने लिए लड़ना सीखो, वरना ये दुनिया रौंद डालेगी तुम्हें।"

उसने हामी में सर हिला दिया और अपने दोस्तों के साथ चली गयी।

अंकिता और तनु का भी आज वैलेंटाइन सेलिब्रेट करने का प्लान था इसलिए शुभिता अकेली ही घर की तरफ बढ़ गयी, इस बात से बेख़बर की कोई उसके इस आत्मविश्वास भरे रूप को देखकर उसके ख्यालों में खोने लगा था।

तनु से उपहार में मिले हुए प्रेम-पत्र को पढ़कर नितिन की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। इस पत्र को वो हमेशा अपनी जेब में ही रखता था और अक्सर ही निकालकर पढ़ता रहता था।

एक दिन जब वो अपने कमरे में ये पत्र पढ़ रहा था उसी वक्त उसका दोस्त केशव जो उसके साथ ही कॉलेज में पढ़ता था, वहाँ पहुँचा और उसके हाथ से पत्र छीनकर पढ़ने लगा।

नितिन को पत्र वापस देते हुए केशव बोला "भाई, बहुत खुशकिस्मत है यार तू। भाभी से बोलकर मेरा एक काम करवा दे।"

"समझ गया मैं की तू क्या चाहता है। जा तू भी क्या याद करेगा। हो जाएगा तेरा काम।" नितिन ने कहा।

ये सुनकर केशव ने नितिन को कसकर गले लगाया और गुनगुनाता हुआ चल दिया।

अगले महीने कॉलेज की वार्षिक परीक्षा होने वाली थी। शुभिता ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा दिया था। एक दिन वो कॉलेज के पुस्तकालय में एक किताब लेने गयी। पुस्तकालय अध्यक्ष ने उसे बताया कि वो किताब अभी केशव के पास है।

शुभिता वहाँ से जा ही रही थी कि केशव आ गया। उसने वो किताब शुभिता को देते हुए कहा "आप शायद अभी इसी की बात कर रही थी।"

"जी हाँ, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।" कहकर शुभिता ने रजिस्टर में अपने नाम पर किताब दर्ज करवाई और वहाँ से चली गयी।

घर पहुँचकर जब शुभिता ने वो किताब पढ़ने के लिए निकाली तो पहले हँस-हँसकर लोटपोट हो गयी। फिर थोड़ी देर के बाद उसने गंभीरता से कुछ सोचा और अगले दिन का इंतज़ार करने लगी।

अगले दिन जब शुभिता पुस्तकालय में पढ़ रही थी, तभी केशव वहाँ आया।

उसे देखकर शुभिता ने कहा "मुझे उम्मीद थी कि आपसे मुलाकात जरूर होगी। चलिये बाहर चलकर बात करते हैं।"

केशव चुपचाप शुभिता के पीछे चल दिया।

कॉलेज ग्राउंड में पहुँचकर शुभिता एक जगह देखकर बैठ गयी और केशव को भी बैठने का इशारा किया।

थोड़ी देर बाद शुभिता बोली "यहाँ आस-पास जितने लड़के-लड़कियां आपको बैठे हुए दिख रहे हैं आपको क्या लगता है इनमे से कितने लोग अपने रिश्ते को लेकर सच में गंभीर हैं?"

"ये मैं कैसे बता सकता हूँ?" केशव ने असमंजस से कहा।

शुभिता ने फिर कहा "इस उम्र में ज्यादातर लोगों को इस बात की समझ ही नहीं होती कि प्यार क्या होता है? वो बस आकर्षण में बंधे खिंचे चले जाते हैं और कुछ वक्त के बाद जब ज़िन्दगी की हकीकत से उनका सामना होता है तब अधिकांश प्रेम-कहानियां दम तोड़ देती हैं। और रह जाता है तो बस एक अनकहा-अनसुना दर्द।"

"दूसरों की बात जाने दीजिये। आप प्रेम के बारे में क्या सोचती हैं?" केशव ने सीधे शुभिता की आँखों में देखकर पूछा।

शुभिता ने कहा "मुझे लगता है हमें किसी की भी तरफ अपने कदम बढ़ाने से पहले स्वयं से ये साफ-साफ पूछ लेना चाहिए कि क्या भविष्य में जब इस रिश्ते में रुकावटें आएंगी, परेशानियां आएंगी तब क्या हम उनका सामना करते हुए भी इस रिश्ते को निभा पाएंगे? या फिर परिवार और समाज के दबाव में आकर टूट जाएंगे? क्या हमारा परिवार हमारी पसंद को अपनाएगा? अगर इन सवालों का जवाब हाँ है तो हमें आगे बढ़ना चाहिए, अन्यथा दिल की बात दिल में ही रखनी चाहिए।"

"आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ। वैसे आपकी अपने भावी जीवनसाथी को लेकर क्या उम्मीदें हैं? केशव ने पूछा।

शुभिता ने सहजता से कहा "मेरी ऐसी कोई उम्मीदें ही नहीं हैं क्योंकि मुझे नहीं लगता जिस समाज में हम रहते हैं वहाँ कोई ऐसा लड़का, कोई ऐसा परिवार होगा जो खुशी-खुशी मुझे मेरे सपनों, मेरे स्वतंत्र अस्तित्व के साथ स्वीकार करेगा और जबरदस्ती मैं किसी पर खुद को थोपना नहीं चाहती।"

"और अगर कोई ऐसा हो जो आपको आपकी इन्हीं खूबियों की वजह से पसंद करता हो और आपका साथ देने के लिए तैयार हो तो? केशव ने कहा।

शुभिता ने उठते हुए जवाब दिया "तब सही वक्त आने पर मैं उसके बारे में जरूर सोचूंगी।"

शुभिता के होंठो पर मुस्कुराहट देखकर केशव भी मुस्कुरा उठा।

कुछ दिनों के बाद केशव का जन्मदिन था। वो कॉलेज कैंटीन में नितिन, तनु, अंकिता और कुछ दोस्तों के साथ बैठा हुआ था।

तभी शुभिता भी वहाँ किसी काम से पहुँची।

तनु और अंकिता के बुलाने पर जब शुभिता वहाँ पहुँची तब केशव ने उसके आगे अपने घर से लाया हुआ खाने का डब्बा रखते हुए कहा "आज जन्मदिन है मेरा।"

"जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएं आपको।" कहते हुए शुभिता ने डब्बे से खाने का एक टुकड़ा लिया।

"अरे शुभिता, इस डब्बे में कोई ऐसी-वैसी चीज नहीं है धुस्के हैं। बड़े स्वादिष्ट लगते हैं। इसके जन्मदिन के बहाने हम सबको भी खाने के लिए मिल जाते हैं क्योंकि बिना धुस्के के जनाब केशव अपना जन्मदिन ही नहीं मनाते।" नितिन ने एक बड़ा सा टुकड़ा शुभिता को देते हुए कहा।

तनु और अंकिता हँसते हुए बोली "औऱ हमारी जो ये सखी है इन्हें कुछ पसंद है तो पीले फूल और नारियल के लड्डू। चाहे कितना भी मूड खराब हो इन दोनों चीजों को देखते ही खुश हो जाती है।"

शुभिता ने गुस्से से उन दोनों को देखा और केशव से कहा "वाकई ये धुस्के बहुत स्वादिष्ट हैं।"

"इसके साथ चाय लीजिये। और अच्छा लगेगा।" केशव बोला।

शुभिता ने उठते हुए कहा "माफ कीजिये, पर मैं चाय नहीं पीती।"

थोड़ी देर के लिए ही सही पर शुभिता के आ जाने से केशव के लिए उसका ये जन्मदिन बहुत खास हो गया था।

अब कभी-कभी कॉलेज कैम्प्स में एक-दूसरे को देखकर केशव और शुभिता मुस्कुरा देते थे।

थोड़े ही दिनों में कॉलेज की वार्षिक परीक्षाएं समाप्त हो गयी।

परिणाम के इंतज़ार के साथ-साथ शुभिता आगे की प्रतियोगिताओं के लिए स्वयं को तैयार कर रही थी।

बचपन में घर की छत पर खड़ी वो जब भी किसी हवाई जहाज को गुजरते हुए देखती थी तब सोचती थी काश वो भी कभी ऐसे ही उड़े।

धीरे-धीरे वायुसेना में पायलट बनकर अपने सपने को सच करने के साथ-साथ देश की सेवा करने की इच्छा उसके मन में बलवती होती गयी।

अब शुभिता के जीवन में अगर कोई चीज महत्व रखती थी तो वो बस उसका सपना था। उसके माता-पिता भी उसके इस सपने में उसके साथ थे जो शुभिता जैसी मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की के लिए ईश्वर का आशीर्वाद ही था।

स्नातक के साथ-साथ शुभिता स्वयं को 'कंबाइंड डिफेंस सर्विस एग्जाम' के लिए तैयार कर रही थी जो पायलट बनने की पहली सीढ़ी थी।

आख़िरकार वो दिन भी आ गया जब पता चलने वाला था कि शुभिता का सपना सच होगा भी या नहीं।

परीक्षा परिणाम जानने की उत्सुकता लिए जैसे ही शुभिता ने अखबार उठाया वो चौंक पड़ी। अख़बार का मुख्य पृष्ठ उसकी सफलता की कहानी से जगमगा रहा था।

उस छोटे से शहर की कोई लड़की पहली बार एयरफोर्स में पायलट बनने जा रही थी वो भी प्रवेश-परीक्षा में सबसे ज्यादा अंक लाकर।

शुभिता के माता-पिता की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। घर पर बधाइयों का तांता लगा हुआ था।

केशव ने भी अखबार में ये खबर पढ़ी और उत्साह भरे स्वर में अपनी माँ से बोला "देखो माँ ये कॉलेज में मेरी सहपाठी रह चुकी है। चलो ना इस मौके पर उसे बधाई दे आएं।"

माँ के हाँ कहने से केशव की खुशी देखते ही बन रही थी और इस खुशी की वजह उसकी बहन अच्छी तरह जानती थी।

जब केशव अपनी माँ और बहन के साथ शुभिता के घर पहुँचा तब शुभिता आश्चर्यचकित रह गयी।

पूरे आदर के साथ उन्हें बैठाकर उसने अपने माता-पिता से सबका परिचय करवाया।

शुभिता को बधाई देकर जब वो लोग निकले तो केशव की बहन ने अपनी माँ से कहा "ये लड़की और उसका परिवार अच्छा था ना माँ? पता है भैया इसे मन ही मन बहुत पसंद करते हैं।"

ये सुनते ही वो गुस्से से बोलीं "मन की बात मन में ही रखे तेरा भैया तो अच्छा है। ऐसी लड़कियां दफ्तरों की शोभा बन सकती हैं। हमारे जैसे साधारण परिवार को बस एक सीधी-सादी सी लड़की चाहिए जो मेरे बेटे की गृहस्थी संभाले और हमारा बुढ़ापा संवारे।"

अपनी माँ की बातें सुनकर केशव हैरान रह गया। अभी थोड़ी देर पहले यही माँ शुभिता की कितनी तारीफ कर रहीं थी।

इससे पहले की वो कुछ कहता उसे शुभिता की आवाज़ सुनाई पड़ी। उसने मुड़कर देखा तो शुभिता उसका रुमाल लिए खड़ी थी जो वो गलती से उसके घर छोड़ आया था।

शुभिता का चेहरा बता रहा था कि उसने केशव की माँ की बातें सुन ली थी।

केशव ने उससे कुछ कहना चाहा, लेकिन शुभिता तेजी से घर के अंदर चली गयी। उसकी पलकों की कोर पर छलक आये आँसू केशव की नज़रों से छुपे नहीं रह सके थे।

शुभिता अपनी ट्रेनिंग पर जाने की तैयारियों में लगी हुई थी कि अचानक उसे खबर मिली तनु की वजह से अपनी कलाई की नस काटकर नितिन अस्पताल में भर्ती है।

शुभिता तुरंत अस्पताल के लिए निकल गयी। वहाँ केशव, तनु और अंकिता भी मौजूद थे।

नितिन की हालत अब बेहतर थी।

जब शुभिता ने तनु से पूरी बात पूछी तो उसने बताया कि उसके घरवालों ने उसकी शादी तय कर दी है और उसने नितिन से साफ कह दिया कि उसके अंदर अपने घरवालों के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं है। बस इतनी सी बात पर उसने अपनी नस काट ली।

शुभिता ने तनु को एक थप्पड़ लगाते हुए कहा "ये इतनी सी बात है तनु? वो प्यार करता है तुझसे। तेरे साथ जीने के सपने देखे थे उसने। जब तुझे पता था कि तू अपने घरवालों की मर्ज़ी से ही शादी करेगी तो क्या जरूरत थी इस रिश्ते में पड़ने की और किसी को दुख देने की?"

"अरे यार, तू क्यों इतना भड़क रही है। आजकल कौन कॉलेज में गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड नहीं बनाता? और सबको पता होता है कि ये सब बस कॉलेज तक ही है। अब इस बेचारी को क्या पता था कि नितिन इस तरह इसके पीछे पड़ जायेगा?" अंकिता ने तनु के पक्ष में कहा।

शुभिता ये बात सुनकर चौंक गयी। उसने कहा "यही थी तुम लोगों की प्यार-मोहब्बत की बड़ी-बड़ी बातें? तुम जैसे लोगों ने ही प्यार को बदनाम कर रखा है जो अपना टाइमपास करने के लिए इस तरह दूसरों की भावनाओं से खिलवाड़ करते हैं।"

फिर उसने नितिन से मुख़ातिब होते हुए कहा "ऐसी लड़की के लिए अपनी ये हालत कर रखी है तुमने। जी चाह रहा है तुम्हें भी एक थप्पड़ मारूं। अरे बेवकूफ़, अपने उस परिवार के लिए, दोस्तों के लिए जियो जो तुमसे प्यार करते हैं, तुम्हारी परवाह करते हैं ना कि इस जैसी लड़की के लिए जान दो।"

नितिन ने धीरे से कहा "तुम सही कह रही हो। तुमने ये बता दिया कि सच्चे दोस्त और उनकी दोस्ती क्या होती है। अब ऐसी बेवकूफ़ी कभी नहीं होगी।"

केशव जो अब तक चुपचाप सबकी बातें सुन रहा था, उसने शुभिता से कहा "क्या मैं आपसे दो मिनट बात कर सकता हूँ?"

शुभिता के हाँ कहने पर दोनों बाहर आ गये।

नितिन को समझाने के लिए धन्यवाद कहते हुए केशव बोला "मैं उस दिन अपनी माँ की कही हुई बातों के लिए आपसे माफ़ी माँगता हूँ। मैंने अपने-आप से सवाल कर लिया है और मुझे जवाब भी मिल गया है। मैं आपके सपनों के साथ हर हाल में आपका साथ निभाने के लिए तैयार हूँ, फिर चाहे किसी की मर्ज़ी हो या ना हो।"

"मुझे भी मेरे सवाल का जवाब मिल चुका है केशव। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि मैं एक माँ से उसका बेटा छीन लूँ। हमारे रास्ते कभी एक नहीं होंगे।" उदास नज़रों से केशव को अंतिम बार देखते हुए शुभिता ने कहा और घर के लिए निकल गयी।

केशव चुपचाप उसे जाता हुआ देखता रहा।

कुछ दिनों के बाद शुभिता अपनी ट्रेनिंग पर चली गयी।

केशव ने भी नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर का रुख कर लिया।

ट्रेनिंग से वापस आने के बाद जब

शुभिता के माता-पिता ने उससे शादी कि बात की तो उसने कहा "माँ-पापा, पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि मैं शादी के लिए बनी ही नहीं हूँ। मुझे मेरे सपने के साथ जीने दीजिये।"

उसकी बात सुनकर उसके माता-पिता ने दवाब डालना उचित नहीं समझा और सब कुछ वक्त पर छोड़ दिया।

उधर केशव के परिवार वाले भी अब उस पर शादी के लिए दवाब डालने लगे थे। लेकिन उसकी नज़रों में शुभिता की वो छलकती हुई पलकें इस कदर बस गयी थीं कि वो किसी और को देख भी नहीं पाता था।

आखिरकार एक दिन केशव ने स्पष्ट शब्दों में कह ही दिया कि जबरदस्ती के रिश्ते में बंधकर वो किसी लड़की का जीवन बर्बाद नहीं करेगा।

जब केशव की माँ ने पोते-पोती के अपने अरमान अधूरे रह जाने का वास्ता देकर उसे मनाने कि कोशिश की तो केशव ने कहा "माँ आपका ये अरमान बहुत ही जल्द पूरा होगा क्योंकि मैंने अनाथालय से एक बेटी गोद लेने का फैसला कर लिया है।"

सभी जानते थे कि अब केशव का फैसला नहीं बदलने वाला है। हारकर उन्होंने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया।

जहाँ एक तरफ शुभिता एयरफोर्स में नित नये कीर्तिमान रच रही थी, वहीं दूसरी तरफ केशव भी अपनी बेटी 'ताश्वी' के साथ ज़िन्दगी में आगे बढ़ गया था। अब ताश्वी ही उसकी दुनिया, उसका सब कुछ थी। उसकी परवरिश में केशव ने कोई कमी नहीं छोड़ी थी।

बारहवीं के बाद जब केशव ने आगे की पढ़ाई के लिए उसकी पसंद पूछी तब ताश्वी ने कहा "पापा, मुझे पायलट बनना है।"

उसकी बात सुनकर केशव कुछ पल के लिए बीते दिनों में खो गया।

उसे यूँ सोच में डूबा हुआ देखकर ताश्वी घबरा गई और बोली "क्या हुआ पापा? आपको मेरी ये बात अच्छी नहीं लगी क्या?"

"नहीं-नहीं बिट्टो, ऐसा नहीं है। बस कुछ याद आ गया था। मैं तो बहुत खुश हूँ कि मेरी बिट्टो जीवन में कुछ करना चाहती है, कुछ बनना चाहती है।" केशव ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा।

वक्त पंख लगाकर उड़ता चला गया। ताश्वी का एयरफोर्स पायलट के रूप में चयन हो गया।

कुछ सालों के बाद जब उसने अपने साथी पायलट 'निहाल' से केशव को मिलवाया तब केशव बिना कहे ही ताश्वी के मन की बात समझ गया।

ताश्वी के साथ वो निहाल के माता-पिता से मिलने पहुँचा। उन्हें भी इस रिश्ते से किसी तरह की आपत्ति नहीं थी।

शुभ मुहूर्त में ताश्वी का विवाह कर उसे विदा करने के पश्चात जब केशव घर आया तो उसे ऐसा लगने लगा मानों ये घर उसे काट खाने को दौड़ रहा हो।

जीवन के इतने वर्ष ताश्वी के साथ कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला था। लेकिन आज एक बार फिर अकेलेपन के अहसास ने केशव को घेर लिया था।

कुछ ही दिनों में वो नौकरी से भी रिटायर होने वाला था। रिटायरमेंट के बाद जब उसके लिए वक्त काटना मुश्किल होने लगा तो उसने एक फैसला लिया, वृद्धाश्रम जाने का फैसला।

ताश्वी और निहाल को जब केशव के फैसले के बारे में पता चला तो उन्होंने कहा "पापा आप क्यों खुद को अकेला समझ रहे हैं। हम दोनों हैं ना। आप हमारे साथ आकर रहिये।"

लेकिन केशव ने ये कहकर मना कर दिया कि वो उनकी नई गृहस्थी में किसी तरह का खलल नहीं पैदा करना चाहता। वृद्धाश्रम में अपने उम्र के लोगों के बीच रहना ही उसके लिए उचित है।

ताश्वी ने उदास होकर कहा "आप वृद्धाश्रम चले जायेंगे तो जब मेरा मन अपने मायके आने का करेगा तो मैं कहाँ आऊँगी?"

"अरे बिट्टो, मैं तुझसे तेरा मायका, तेरा घर थोड़े ही छीन रहा हूँ। जब भी तू आएगी हम साथ-साथ अपने घर में रहेंगे।" केशव ने उसे समझाते हुए कहा।

"अगर मैं बेटी की जगह आपका बेटा होती तब आप मेरे साथ रहने से मना नहीं करते ना पापा।" ताश्वी ने सवाल किया।

केशव ने कहा "यकीन मान बिट्टो मेरा फैसला तब भी यही होता।अगर कभी मुझे तेरी जरूरत पड़ी तो ऐसा थोड़े है कि तू अपने पापा के पास नहीं आयेगी। इसलिए अब सारी चिंतायें छोड़कर अपने नये जीवन का आनंद ले।"

अपने जरूरत भर के सामान के साथ केशव शहर के बाहर एक शांत स्थान पर बने हुए वृद्धाश्रम में रहने चला गया।

वहाँ अपने जैसे लोगों के साथ वो बहुत ही जल्द घुल-मिल गया।

अगले हफ़्ते केशव का जन्मदिन आने वाला था। ड्यूटी के कारण ताश्वी का आ पाना सम्भव नहीं लग रहा था। इसलिए केशव थोड़ा उदास हो गया था। ये पहली बार था जब उसकी बिट्टो उसके जन्मदिन पर उसके साथ नहीं रहने वाली थी।

वृद्धाश्रम में सभी सदस्यों के जन्मदिन पर खास दावत होती थी।

केशव के जन्मदिन की सुबह जब सब लोग नास्ते के लिए पहुँचे तो टेबल पर गर्मागर्म धुस्के देखकर केशव चौंक गया। भला यहाँ कौन है जो उसकी पसंद जानता है? ना तो किसी ने उससे पूछा था, ना उसने स्वयं ही किसी को बताया था।

नास्ता करने के बाद केशव रोज की तरह वृद्धाश्रम के पुस्तकालय चला गया। लेकिन आज किताबों में उसका मन ही नहीं लग रहा था।

वो कुछ सोच ही रहा था कि उसके कानों में आश्रम के दो कर्मचारियों की आवाज़ आयी "अरे आज तो 20 फ़रवरी है। आज तो मैडम ने नास्ते में धुस्के बनाये होंगे। चल जल्दी चल।"

इससे पहले की केशव उनसे कुछ पूछता दोनों जा चुके थे।

शाम को आश्रम के बगीचे में जन्मदिन की दावत थी। केक काटते हुए अचानक ही केशव की नज़र भीड़ में खड़ी एक महिला पर पड़ी। केशव ने ध्यान से उसे देखने की कोशिश की। उस महिला की नज़र भी केशव पर पड़ चुकी थी। असमंजस में कुछ पल खड़ी रहने के बाद वो वहाँ से अपने कमरे में चली गयी।

"अरे भाई, जल्दी केक काटो। देखो पेट में चूहे उधम मचा रहे हैं।" केशव के दोस्तों ने कहा।

दोस्तों के बीच कुछ देर के लिए केशव का ध्यान उस महिला की तरफ से हट गया।

पार्टी और डिनर के खत्म होने के बाद जब केशव अपने कमरे में आया तो उसे एक बार फिर उस महिला का ख्याल आया। उस एक झलक के बाद वो उसे कहीं भी दोबारा नहीं दिखी थी।

उधर अपने कमरे में वो महिला संदूक से एक पुरानी डायरी निकालकर उसके एक पन्ने को एकटक देखे जा रही थी। उसे पता भी नहीं चला कि कब वो पन्ना उसके आँसुओं से भीगता चला गया।

थोड़ी देर रो लेने के बाद उसने स्वयं ही अपने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा "बस कर, तू इतनी कमजोर नहीं है।"

डायरी रखकर बिस्तर पर जाते हुए आज वो बहुत बेचैन थी।

जब बहुत कोशिश करने पर भी नींद उसके करीब आने के लिए तैयार नहीं हुई तो उसने उठकर कमरे में रखे स्टोव पर एक कप चाय बनाई और अपनी डायरी-कलम लेकर बाहर बगीचे की तरफ चल पड़ी।

बगीचे की धीमी रोशनी की अभ्यस्त उसकी आँखों और हाथों को डायरी के पन्नों पर अपना मन उकेरने में कोई तकलीफ़ नहीं हो रही थी।


"आधी रात हो चुकी है। जानते हो मेरे हाथ में इस वक्त क्या है?

चाय का कप।

अरे चौंक क्यों गए?

मैं चाय से चिढ़ती हूँ इसलिए?

लेकिन तुम्हें तो पसंद है ना चाय।

इसलिये जब हद से ज्यादा तुम्हारी याद आती है तो चाय की प्याली अपने हाथों में थाम लेती हूँ।

तुम्हारी याद जैसे चाय से निकलती गर्म-गर्म भांप, जो ठंडे पड़ चुके अहसास को फिर से गुनगुनी सी गर्माहट दे जाती है।

और अकेले में भी मुस्कुराने की एक वजह।

कोई देख ले अभी मुझे ऐसे मुस्कुराते तो पागल ही समझेगा।

हाँ शायद पागल ही हूँ मैं तुम्हारी मोहब्बत में।

वैसे भी वो प्यार ही क्या जिसमें पागलपन ना हो।

भला समझदारी से भी कोई प्यार करता है?

समझदारी तो सौदागरों के लिए बनी है। हम जैसे दीवानों के लिए नहीं।

मन बांवरा तुझे ढूंढता....."


चाय की चुस्की लेते हुए वो इस बात से बेखबर थी कि कोई वहीं खड़ा उसे एकटक देख रहा था और उसमें उस लड़की को ढूँढ रहा था जिसकी आँखों में कभी उसने बसंत को खिलखिलाते हुए देखा था।

लेकिन इन आँखों में तो आज उसे उदासी के मंजर ही नज़र आ रहे थे। इन्हें देखकर ऐसा महसूस हो रहा था मानों इन्होंने कभी हँसना सीखा ही नहीं, जैसे उन आँखों में कभी मुस्कुराहट का अस्तित्व ही नहीं था।

वो दुविधा में था। अपनी तलाश खत्म मानकर आगे बढ़ जाये या उन आँखों में बिछड़ चुके बसंत को लौटा लाने की कोशिश करे।

आखिरकार कुछ तय करके वो आगे बढ़ा औऱ अंदर जाती हुई उस महिला का हाथ पकड़ कर बोला "रुकोगी नहीं शुभिता?"

वो शख्स जो कोई और नहीं केशव था, उसे यूँ सामने देखकर शुभिता हड़बड़ा गयी।

उसके बढ़ते हुए कदम ठिठक गए।

कुछ देर तक दोनों तरफ खामोशी छायी रही।

अंततः केशव ने इस खामोशी को तोड़ते हुए कहा "बारह बजने में अभी पूरे पाँच मिनट बचे है। आप चाहें तो मुझे जन्मदिन की बधाई दे सकती हैं।"

"जन्मदिन की बधाई आपको केशव। माफ़ कीजिये मेरे पास आपको देने के लिए कोई उपहार नहीं है।" शुभिता ने आहिस्ते से कहा।

केशव हँसते हुए बोला "ईश्वर खैर करें आपको मेरा नाम तो याद है। इससे बढ़कर क्या उपहार होगा इस दीवाने के लिए। वैसे एक सुंदर उपहार तो आप मुझे सुबह ही दे चुकी हैं।"

शुभिता ने असमंजस भरी नजरों से केशव को देखा।

"मैं धुस्के की बात कर रहा हूँ।" केशव ने हँसते हुए कहा।

शुभिता भी उसके साथ हँस पड़ी।

उसे यूँ हँसते हुए देखकर केशव को अलग ही सुकून का अहसास हो रहा था।

थोड़ी देर बाद उसने शुभिता से यहाँ रहने की वजह पूछी तो उसने कहा "माँ-पापा अब रहे नहीं। रिटायरमेंट के बाद अकेले रहने से अच्छा सोचा यहाँ सबके साथ रहूँ। पास ही अनाथाश्रम है। वहाँ के बच्चों को पढ़ाने में, उनके साथ खेलने में और आश्रम की रसोई में वक्त अच्छा गुजर जाता है। तो बस पिछले पांच सालों से यहीं हूँ।"

फिर उसने केशव से यहाँ आने की वजह जाननी चाही तो केशव ने कहा "मेरी भी बस यही कहानी है। एक बेटी है उसकी शादी के बाद घर में रहना मुश्किल था तो यहाँ चला आया।"

"और आपकी पत्नी?" शुभिता ने पूछा।

"शादी नहीं कि मैंने। ताश्वी को गोद लिया था।" केशव ने बताया।

केशव की आवाज़ का अनकहा दर्द शुभिता महसूस कर रही थी।

जब केशव ने उसकी शादी के बारे में पूछा तो शुभिता बोली "आप तो जानते हैं मैं तब सिर्फ अपने सपने के साथ जीना चाहती थी।"

"और अब?" केशव ने शुभिता की आँखों में देखते हुए कहा।

"भला अब क्या बचा है जीवन में? चलिये रात काफ़ी हो गयी है। अब सोना चाहिए।" कहकर शुभिता अपने कमरे की तरफ बढ़ गयी।

"अभी बहुत कुछ बचा है शुभिता। मैं जानता हूँ तुम बहुत ज़िद्दी हो। आज भी अपनी भावनाएं, अपने अकेलेपन का दर्द स्वयं स्वीकार नहीं करोगी। लेकिन इस बार मैं अपनी पिछली गलती नहीं दोहराऊंगा। अब मैं तुम्हें मेरे जीवन से नहीं जाने दूँगा।" मन ही मन दृढ़ निश्चय करता हुआ केशव भी अपने कमरे में चला गया।

रिज़र्व रहने वाली शुभिता से अक्सर ही केशव किसी ना किसी बहाने से मिलने के मौके खोज ही लेता था। अब उसने भी अनाथाश्रम के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया।

होली आने वाली थी। केशव अपने कमरे में बैठकर कुछ सोच रहा था तभी ताश्वी का फोन आया "पापा, पापा, पापा मैं बहुत खुश हूँ। होली पर मैं आपके पास आ रही हूँ। अपने घर आ रही हूँ।"

"अरे बिट्टो, पर ये तेरी पहली होली है। तुझे निहाल के माँ-पापा के साथ मनानी चाहिए।" केशव ने कहा।

ताश्वी ने नाराज़ होते हुए कहा "आप कैसे पापा हैं बेटी आपके पास आने की बात कर रही है और आप मना कर रहे हैं? वैसे आपको बता दूँ की निहाल के माँ-पापा ने ही मुझसे कहा कि इस छुट्टी में मैं आपके पास चली जाऊँ। शादी के बाद मौका ही नहीं मिला मुझे तो आने का। पर ठीक है आपका मन नहीं है तो..."

"अरे नहीं बिट्टो, भला किस पिता का मन अपनी संतान को देखने का नहीं होगा। तू तो बस जल्दी से आ जा। लेकिन सुन पहले आश्रम आना। मुझे तुझसे एक बहुत जरूरी बात करनी है। उसके बाद हम अपने घर चलेंगे।" केशव ने कहा।

ताश्वी के फोन रखने पर केशव बाजार की तरफ निकल गया।

लौटकर उसने देखा शुभिता बगीचे में बैठी चाय पी रही थी।

उसके पास जाकर केशव ने कहा "आप चाय कब से पीने लगीं?"

केशव को बैठने का इशारा करते हुए शुभिता बोली "बस ऐसे ही पी लेती हूँ कभी-कभी। वक्त के साथ कुछ चीजें बदल जाती हैं।"

"हाँ और बदलनी भी चाहिए। इसलिए तो मैं आपसे आज कुछ कहने आया हूँ।" केशव ने कहा।

"मुझसे? कहिये क्या कहना है?" शुभिता बोली।

"पहले तो ये की अगर आपको ऐतराज़ ना हो तो क्या हम पुरानी दोस्ती के नाते एक-दूसरे को आप कहना बंद कर सकते हैं?" केशव की इस बात पर शुभिता मुस्कुरा उठी।

उसकी मौन सहमति पाकर केशव ने आगे कहा "शुभिता, तुमने अपने सपनों को जी लिया और मैंने मेरे हिस्से की जिम्मेदारियां भी निभा ली। क्या अब हम दोनों अपने प्यार के लिए नहीं जी सकते? अपनी अधूरी रह गयी भावनाओं को उदासी के कोहरे से निकालकर खुशी का रंग नहीं दे सकते?"

"मुझे नहीं पता कि तुम क्या कह रहे हो?" कहते हुए शुभिता जाने के लिए उठ खड़ी हुई।

उसका हाथ पकड़ते हुए केशव बोला "तुम्हें बहुत अच्छे से पता है कि मैं क्या कह रहा हूँ।"

और उसने शुभिता के हाथ में उसकी वो डायरी रख दी जो वो केशव के जन्मदिन वाली रात वहीं बगीचे में भूल गयी थी।

अपनी चोरी पकड़ी जाती हुई देखकर शुभिता ने नज़रें झुका ली। उसकी पलकों की कोर पर आज फिर आँसू झिलमिला उठे थे।

उन आँसुओं को पोंछते हुए केशव ने कहा "अब तुम मुझसे इन आँसुओं को पोंछने का हक नहीं छीन सकती।"

"लेकिन लोग क्या कहेंगे केशव? अब इस उम्र में हमारा साथ...।" शुभिता ने कहना चाहा।

उसे बीच में ही रोककर केशव बोला "अब तो हमारे बीच लोगों को, दुनिया को, समाज को मत आने दो। इस बची हुई थोड़ी सी ज़िन्दगी को मुझे जी लेने दो उस लड़की के साथ जिससे मैंने ज़िन्दगी भर दीवानों की तरह प्यार किया है, और उस पागल लड़की के साथ भी जिसने दूर रहकर भी हमेशा सिर्फ मुझसे बेइंतहा मोहब्बत की है।"

केशव के हाथों पर जैसे ही शुभिता ने अपना हाथ रखा, उसने अपने बैग से शुभिता के प्रिय पीले फूल और नारियल के लड्डुओं का डब्बा निकालकर उसे देते हुए कहा "मेरी जीवनसंगिनी बनोगी शुभिता?"

इससे पहले की शुभिता कुछ कहती, ताश्वी की आवाज़ आयी "ओफ्फ हो पापा, आप भी गज़ब हैं। भला नारियल के लड्डू देकर इतनी प्यारी लड़की को कौन प्रपोज़ करता है? अगर आईडिया नहीं था तो निहाल से पूछ लेते।"

ताश्वी को यूँ अचानक सामने देखकर केशव चौंक उठा और फिर खुशी से उसे गले लगा लिया।

शुभिता को उससे मिलवाते हुए केशव ने कहा "यही है मेरी बिट्टो, मेरी ताश्वी, और ये है...।"

आगे की बात पूरी करती हुई ताश्वी बोली "शुभिता।"

ताश्वी के मुँह से शुभिता का नाम सुनकर शुभिता के साथ-साथ केशव भी हैरान था।

"अरे तुम्हें कैसे पता कि इनका नाम क्या है? मैंने तो अब तक तुम्हें बताया भी नहीं था।" केशव ने पूछा

"मैं ये नाम बहुत पहले से जानती हूँ पापा। और इसका राज बस इतना ही है कि आपको बुखार में बड़बड़ाने की आदत है। जब भी आप बुखार वाली बेहोशी में होते थे तो यही एक नाम लिया करते थे। पहले तो मैं समझ नहीं पाती थी कि ये कौन है। जब बड़ी हुई तब समझने लगी। और आज जब आप इन्हें प्रोपोज़ कर रहे थे तभी मैं समझ गयी कि सारी ज़िन्दगी अकेले बिता देने वाले मेरे पापा अब अगर किसी की तरफ हाथ बढ़ा रहे हैं तो वो और कोई नहीं हो सकती सिवा उनके पहले प्यार के।" ताश्वी ने बताया।

उसकी बात सुनकर केशव और शुभिता दोनों के होंठो पर मुस्कान आ गयी।

"वैसे मम्मा मैं आपको एक राज की बात और बताऊँ? माफ कीजिये मैंने उत्साह में आपसे पूछा ही नहीं कि मैं आपको मम्मा बुलाऊँ ना?" ताश्वी ने कहा।

"हाँ-हाँ बिल्कुल बुलाओ और अब वो दूसरी राज की बात भी बता दो बिट्टो।" शुभिता ताश्वी को गले लगाते हुए बोली।

ताश्वी ने कहा "मैं हमेशा पापा से पूछती थी कि मेरे नाम का मतलब क्या है, लेकिन वो बताते ही नहीं थे। फिर बड़े होने पर जब मुझे आपके बारे में पता चला तब मैं समझ गयी कि ये नाम आपके और पापा के नाम से मिलकर बना है। और देखिये ये कितना शुभ शगुण है कि आज शादी के बाद मैं पहली बार अपने मायके आयी हूँ और मुझे मेरे नाम को पूरा करने वाले दोनों लोग एक साथ मिल गए वो भी हमेशा के लिए।"

केशव के चेहरे की मुस्कान बता रही थी कि ताश्वी की बात सच थी।

"अच्छा, अब क्या सारी बातें हम यहीं करने वाले हैं? या फिर ससुराल में पहली बार दामाद और सासु माँ दोनों का कोई स्वागत भी करेगा?" निहाल की आवाज़ आयी।

निहाल को देखकर ताश्वी चौंकते हुए बोली "अरे तुम? तुम तो होली के दिन आने वाले थे?"

"आने वाला तो था, फिर सोचा कुछ दिन मैं भी ससुराल की खातिरदारी का आनंद लूँ और देखो कितने अच्छे मौके पर आया। अब सासु माँ और दामाद दोनों एक साथ गृह प्रवेश करेंगे।"

निहाल की बात पर सभी हँस पड़े।

आश्रम में जब सब लोगों को केशव और शुभिता के बारे में पता चला तो सभी बहुत खुश हुए।

सबकी इच्छानुसार अगले दिन आश्रम में ही केशव और शुभिता कि विवाह की रस्में हुई।

ताश्वी और निहाल ने इस खुशी में वृद्धाश्रम और अनाथाश्रम के सभी सदस्यों के लिए पार्टी रखी थी।

जो आश्रम आज तक लोगों के अकेलेपन का गवाह था आज वो पहली बार दो लोगों के साथ का साक्षी बन रहा था।

केशव और शुभिता को विदा करते हुए सबकी आँखें नम थी।

घर पहुँचने के बाद ताश्वी और निहाल ने आरती की थाली के साथ शुभिता और केशव का स्वागत किया।

शुभिता को कमरे में ले जाते हुए ताश्वी बोली "अब हुआ ना मेरा घर, मेरा मायका पूरा। और मम्मा ये घर, खासकर ये जो कमरा है ना अब पूरा का पूरा आपका है। जहाँ जी चाहे अपना सारा सामान फैला दीजिये। पापा का क्या है किसी भी कोने में एडजस्ट कर लेंगे।"

"अरे बिट्टो तू तो गजब की दलबदलू निकली। तुरंत अपनी मम्मा की तरफ हो गयी।" केशव ने कहा।

निहाल ताश्वी की चोटी खींचते हुए बोला "आखिर इतने सौभाग्य से जो माँ मिली है।"

"हाँ, अब तो मैं मम्मा की बेटी हूँ। और अब फिलहाल बातें बंद। सब लोग फ्रेश होकर तैयार हो जाइए। थोड़ी देर में खाने की मेज पर मिलते हैं।" ताश्वी ने चहकते हुए कहा।

"जो हुक्म हमारी आका। अब आप यहाँ से जाइये तब तो हम कुछ करें।" केशव ने कहा।

ताश्वी और निहाल के जाने के बाद केशव ने शुभिता को अपनी बाँहों में भरते हुए कहा "यकीन नहीं होता ये पल, तुम्हारा साथ हकीकत है। डरता हूँ कहीं ऐसा ना हो कि कभी मैं आँखें खोलूँ और पता चले ये सब महज एक सुंदर सपना था।"

शुभिता ने उसके माथे पर अपने होंठ रखते हुए कहा "भरोसा कर लो, ये पल, हमारा साथ सच है, एक खूबसूरत सच।"

थोड़ी देर बाद जब सभी खाने की मेज पर इकट्ठा हुए तब ताश्वी ने केशव से पूछा "पापा, आप मम्मा को आज क्या उपहार दे रहे हैं?"

"दे तो दिया था उपहार। पीले फूल और नारियल के लड्डू। पूछो अपनी मम्मा से इन्हें ये दोनों चीजें कितनी पसंद है।" केशव ने हँसते हुए कहा।

ताश्वी ने निहाल की तरफ देखते हुए शुभिता से कहा "मम्मा इस मामले में ना मैं आपसे ज्यादा खुशकिस्मत हूँ। निहाल तो मुझे अक्सर ही बहुत अच्छे-अच्छे उपहार देकर चौंकाता रहता है।"

"चलो, तुमने मेरी तारीफ़ तो की। इसी खुशी में ससुर जी की तरफ से सासु माँ के लिए एक उपहार मेरे पास है।" निहाल ने मुस्कुराते हुए कहा और एक लिफाफा शुभिता को दे दिया।

"अरे इसकी क्या जरूरत थी भला।" शुभिता और केशव एक साथ बोले।

"जरूरत थी। जिस तरह माता-पिता के अनुभवों का फायदा बच्चों को मिलता है, वैसे ही कभी-कभी बच्चों के अनुभव का फायदा माता-पिता को भी मिलना चाहिए।" निहाल ने कहा।

शुभिता ने लिफाफा खोला तो उसमें केरल की दो टिकटें थी।

ये देखकर ताश्वी बोली "वाह पतिदेव आप तो बहुत स्मार्ट निकले।"

"आखिर पति किसका हूँ।" जब निहाल ने कहा तो सभी हँस पड़े।

"अच्छा ये तो हुई पापा के उपहार की बात, अब मम्मा आप बताइए आप क्या दे रहीं हैं पापा को? या फिर आपकी तरफ का मैटर भी हमें ही सँभालना होगा।" ताश्वी ने पूछा।

शुभिता ने केशव की तरफ देखते हुए कहा "मेरे पास एक बहुत ही खास उपहार है तुम्हारे पापा के लिए। अगर तुम सब कहो तो अभी ही दे दूँ।"

"अरे नेकी और पूछ-पूछ, जल्दी बताइए क्या खास उपहार है।" निहाल बोला।

"ये देखने की नहीं सुनने की चीज है। ध्यान से सुनना केशव।" और शुभिता ने एक कविता सुनानी शुरू की...

"तुम,

जैसे सुख के पलों में

छलका हुआ आँसू।

तुम,

जैसे चोट पर

फूँककर माँ ने किया हो

कोई जादू।

तुम,

जैसे घने अंधकार के बाद

खिलता हुआ

प्रकाश सूरज का।

तुम,

जैसे टूटे-बिखरे मन को

फिर से जोड़ता

तार मोहब्बत का।

तुम

जैसे अस्तित्व मेरा,

बिन तुम्हारे नहीं कहीं

कोई चिन्ह मेरा।"

जैसे ही कविता खत्म हुई निहाल और ताश्वी ने जोरदार तालियां बजायीं। वहीं केशव हैरान सा शुभिता को देखे जा रहा था।

"क्या हुआ पापा, आपको देखकर ऐसा क्यों लग रहा है जैसे कि आपको कोई सदमा लगा है।" ताश्वी ने पूछा।

"मैं बताती हूँ बिट्टो। दरअसल ये वही कविता है जो कभी तुम्हारे पापा ने मुझे किताब के बीच रखकर दी थी पहली बार अपनी मोहब्बत से मुझे अवगत कराने के लिए।" शुभिता ने हँसते हुए कहा।

केशव बोला "मैं इसलिए हैरान हूँ कि तुमने तो वो पत्र मुझे लौटा दिया था। फिर भी तुम्हें ये कविता आज भी कैसे याद है?"

"ये कविता मुझे आज भी इसलिए याद है क्योंकि ये मैंने ही लिखकर तनु को दी थी। और फिर जब मैंने तुम्हारे पत्र में इस कविता को पढ़ा तो हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया था मेरा की देखो आज तक मैं बस अपनी सहेलियों के लिए ही प्रेम-पत्र लिख रही थी, अब मुझे मिलने वाला प्रेम-पत्र भी मेरा ही लिखा हुआ निकला।" शुभिता ने हँसते हुए कहा।

केशव ने असमंजस से कहा "ओह्ह तो नितिन को तनु ने जितने भी प्रेम-पत्र दिए थे वो तुमने लिखे थे?"

शुभिता ने हाँ में सर हिलाते हुए बताया कि कैसे उसकी लेखन कला का फायदा उसकी सहेलियां उठाया करती थी।

"औऱ मैं आज तक यही जानता था की नितिन के कहने पर वो पत्र तनु ने लिखकर मुझे दिया था और मैंने तुम्हें।" केशव ने कहा।

पूरी बात जानकर सब लोग खूब हँसे।

ताश्वी ने केशव से कहा "पापा अब दिक्कत नहीं है। अब बीच में बिना किसी दोस्त को लाये आप सीधे मम्मा से प्रेम-पत्र लिखवा सकते हैं।"

"अच्छा अब ये सब छोड़ो। कल होली है। तैयारियां नहीं करनी है क्या?" शुभिता ने कहा।

"बिल्कुल करनी है मम्मा। मैंने सारी लिस्ट बना ली है। दोनों ससुर-दामाद जाकर सामान ले आएंगे। तब तक हम दोनों अपनी-अपनी होली की शॉपिंग कर लेते है।" ताश्वी ने लिस्ट निहाल को देते हुए कहा।

लिस्ट देखते हुए निहाल बोला "आइये पापा चलें। आज से आप भी आज्ञाकारी पतियों की श्रेणी में शामिल किए जाते हैं।"

होली की सुबह जब सब जगे तो देखा कि शुभिता ने सबकी पसंद के पकवान बनाकर रख दिये थे।

"ओह्ह मम्मा, आपको अकेले सारा काम करने की क्या जरूरत थी?" ताश्वी ने नाराज होते हुए कहा।

शुभिता उसके सर पर हाथ रखते हुए बोली "जरूरत थी। आखिर विवाह के बाद मेरी बिट्टो और दामाद जी की पहली होली है तो वो एन्जॉय करेंगे या काम? वैसे भी मायका आराम करने के लिये होता है।"

"पर ये आपकी भी तो पहली होली है पापा के साथ।" निहाल ने कहा।

"इसलिए तो केशव के जागने से पहले सब कुछ निपटाकर अब मैं भी निश्चिन्त हूँ।" शुभिता हँसते हुए बोली।

"वाह-वाह पत्नी और माँ हो तो ऐसी।" कहते हुए केशव मुस्कुरा उठा।

थोड़ी ही देर में एक-दूसरे को रंगों से भिगोते हुए केशव और शुभिता इस प्रेम के त्योहार पर प्रेम की एक नई इबारत लिखते हुए नज़र आ रहे थे।

एक-दूसरे के लिए पर एक-दूसरे के बिना जीते हुए केशव और शुभिता को प्यार के इस मोड़ पर साथ देखकर निहाल और ताश्वी की खुशी भी दोगुनी रंगत से खिल उठी थी।


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