प्रतिशोध
प्रतिशोध
बाकी दुनिया के लिए अभिमन्यु , पर मेरे लिए, अभी ! कक्षा के होनहार विद्यार्थियों में से एक , मस्त मौला हंसमुख एवम् बहुत विनोदी स्वभाव का अपनी ही दुनिया में मस्त, अभी, सभी का चहेता था। स्वभाव ऐसा कि किसी को भी अपना मुरीद बना ले, अतिमहत्वाकांक्षी हालांकि उसकी परिवारिक स्थिति बहुत अच्छी तो नहीं थी फिर भी उसके गुण, उसका स्वभाव उसकी अच्छी परवरिश का परिचायक थे, अपने खिलंदड़े स्वभाव के कारण विद्यालय भर में उसके कई दोस्त थे, दोस्ती तो वो चुटकियों मे कर लेता था, पढ़ाई के साथ साथ वो खेलकूद एवम् अन्य गतिविधियों में भी उतना ही अच्छा था । अभी न केवल मेरा अच्छा मित्र अपितु बाल्यावस्था का मित्र था हम प्राथमिक से एक साथ ही पढ़ रहे थे, यह वो समय होता हैं जब मित्रता किसी आवश्यकता या उद्देश्य की पूर्ति के लिए नही की जाती, बल्कि साहचर्य के सुख के निमित्त होती हैं ।
उपासना भी हमारी ही कक्षा में पढा करती थी, साँवली सलोनी , अल्हड़ लड़की , जिसकी बड़ी बड़ी कजरारी हिरन जैसी आँखे किसी को भी मंत्रमुग्ध कर सकती थी। अवर्णनीय सौंदर्य के साथ अद्वितीय चंचलता एवम् वाक् पटुता की स्वामिनी , बोलना शुरु करे तो घंटो तक उसकी बात समाप्त होने का नाम ही न ले, यदि उसे वाचाल कह दे तो अतिशयोक्ति नही होगी । चिंता तो जैसे उसे छू तक नही गयी , और हो भी क्यों , पिता किसी सरकारी विभाग में बड़े पद पर कार्यरत जो थे , कुल मिलाकर वह एक संपन्न परिवार की एकल संतान थी । उच्च मध्यम वर्गीय परिवार का प्रभाव उस पर पूर्णतया परिलक्षित होता था ।
मै और अभी वैसे बड़े अच्छे मित्र थे , हम एक साथ कक्षा में बैठते, जलपान और क्रीड़ा भी साथ ही करते, साथ ही विद्यालय आते साथ ही वापस आते परंतु मेरे और उसके स्वभाव मे बहुत अंतर था, मै उग्र था तो वो सौम्य, मुझे दिखावा पसंद था उसे सादगी, मुझे प्रभुत्व पसंद था और उसे सबका साथ । इतने चारित्रिक विभेदों के बाद भी हम घनिष्ठ मित्र थे तो शायद बस इसलिये कि उसका व्यक्तित्व मेरे व्यक्तित्व का पूरक था।
सब कुछ सही चल रहा था, मुझे लगता था कि मुझसे बेहतर अभी को कोई नही जानता परंतु कक्षा छः में आते आते अचानक से उसके व्यवहार में कुछ परिवर्तन आने लगे, जिनको मुझसे बेहतर कौन महसूस कर सकता था। अभी ने अचानक से कक्षा में अपना स्थान परिवर्तित कर लिया था अब वो लड़कियों की पीछे वाली पंक्ति में बैठने लगा था । मध्यान्ह में वो जलपान के लिए हमारे साथ कक्षा से निकलता तो जरुर पर बीच में ही कही गायब हो जाता । विद्यालय भी अब वो नियत समय से पहले चला जाता, और अवकाश के समय देरे से निकलता , उसके इस कार्यक्रम से हमारा साथ आने का क्रम लगभग छूट ही गया था । मेरे कई बार पूछने पर भी वो बस टालमटोल कर देता या यदा कदा मेरे साथ आ जाता , पर मै इस परिवर्तन को स्पष्ट अनुभव कर सकता था।
मै कारण जानना चाहता था, मेरा मन उद्विग्नता से भरा हुआ था अतः मैने मध्यान्ह में अभी का पीछा करने का निर्णय लिया, उस दिन मैने पूरी सतर्कता से अभी पर नजर रखी और उसका पीछा करने लगा, देखा तो वह वापस हमारी कक्षा की तरफ जा रहा था , मै भी थोडी दूरी रख कर उसके पीछे हो लिया, अभी हमारे कक्ष में घुस गया, मैने खिड़की से झाँक कर देखा तो खाली कक्ष में वह अपनी रफ कापी पर कुछ लिख रहा था, मै दम साधे अपने स्थान पर खड़ा उसको देख रहा था , लेखन सम्पूर्ण करके उसने वह पेज फाड़ कर उसे उपासना के बैग में डाल दिया , यह देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ पर मै बिना कुछ बोले वहा से खिसक गया । अब मुझे उसके व्यवहार में परिवर्तन का कुछ कारण समझ में आ रहा था, ये सब उपासना के चक्कर में हो रहा था, जिसने मेरे सबसे अच्छे मित्र को मुझसे दूर कर दिया था , मुझे उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था।
कहते हैं ना कि इश्क और मुश्क छुपाये नही छुपते , धीरे धीरे विद्यालय के सभी छात्रों में ये बात फैल गयी कि अभी और उपासना का कुछ चल रहा हैं। उस समय टेलीविजन पर चंद्रकांता धारावाहिक प्रसारित हो रहा था और उसके आधार पर सब छात्रों ने उनका नामकरण वीरेंद्र विक्रम और चंद्रकांता कर भी दिया था । मैने बहुत बार अभी से इस बारे में बात करने का प्रयास किया पर वह हर बार कोई न कोई बहाना बना कर टाल देता । मुझे लगता कि अपने मित्र के बारे मे मुझे सब कुछ जानना चाहिये तब व्यक्तिगत निजता का इतना ज्ञान भी नही था न ही इतनी समझ, तब तो बस जिद थी एवम् प्रभुत्ववादी होने के कारण मुझे ये मेरा अधिकार भी लगता था, अतः उसकी टालमटोल से मेरा अहम् चोटिल होने लगा और हमारे बीच दूरियां बढ़ गयी ।
चूँकि हमारा विद्यालय बस आठवी कक्षा तक ही था तो हमे नौवी के लिये दूसरे विद्यालयों में जाना था , मैने और अभी ने एक ही विद्यालय में प्रवेश लिया जो शहर के पश्चिमी छोर पर था, जबकि उपासना ने कन्या विद्यालय में प्रवेश लिया जो शहर के मध्य में था पर अभी के घर से पास मे था । मै मन ही मन प्रसन्न था कि अब ग्रह कटा , अब उपासना हमारी मित्रता के बीच नही आ पायेगी, पर मेरी यह प्रसन्नता ज्यादा समय तक नही टिक सकी । अब अभी विद्यालय देर से जाता और अवकाश मे जल्दी जल्दी साईकल से भागते हुए उसके रिक्शे का पीछा करता , मुझे उसका यह क्रियाकलाप कतई पसंद नही था पर मै कर भी क्या सकता था। मुझे भी नये मित्र मिल गये थे तो मै भी व्यस्त हो गया, अब हमारा मिलना जुलना कक्षा या क्रिकेट मैदान तक सीमित था, या यदाकदा अभी घर आ जाया करता ।
मुझे याद हैं उस समय दीवाना नाम का सोनू निगम का एक संग्रह नया नया आया था अभी अक्सर उसका एक गाना गुनगुनाता रहता
" अब मुझे रात दिन तुम्हारा ही ख्याल हैं "
और मै प्रायः उसे टोकते हुये कहता
" हाँ बेटा हमको पता है कि तुम्हें किसका ख्याल हैं "
और वो बस दाँत निपोर देता , अब शायद मैने भी उपासना के अस्तित्व को स्वीकारना शुरु कर दिया था, या कम से कम नकार नही रहा था या शायद समझौता कर लिया था । उस दिन अभी मेरे घर आया था, उसे दीवाना के गाने भरवाने थे लेकिन उसकी जिद थी कि वो ये काम खुद करेगा , पहले भी वो गाने भरवाने मेरी दुकान या घर पर आता था पर ऐसी जिद उसने कभी नही की थी। बहरहाल मैने उसकी बात मान ली, वो गाने एक खाली कैसेट मे रिकार्ड करने लगा , मेरी उत्सुकता बस यह जानने में थी कि वो यह काम स्वयं क्यों करना चाहता था? डबिंग पूरी होने के बाद वो मुझसे आवाज रिकार्ड करने के बारे मे पूछने लगा, मेरा माथा ठनका पर क्या कर सकते थे आखिर वो मेरा मित्र था , मैने उसे सारी विधि बतायी, साहब ने गाने खत्म होने के बाद बची हुयी रील में उपासना के लिए अपना प्रेम संदेश अपनी आवाज में रिकार्ड किया और हमको दोस्ती का वास्ता देकर दाँत दिखाते हुये निकल गये , मै ठगा सा उसको दूर तक जाते हुये देखता रहा।
शाम के पाँच बज रहे थे अभी महोदय अचानक मेरे घर प्रकट हुये , उनका मुखमण्डल देख कर ऐसा लग रहा था जैसे बिलौटा मन भर मलाई चाट कर आया हो, उसकी खुशी उसके चेहरे से छलक रही थी, वो "अब मुझे रात दिन " गाना गुनगुना रहा था
उसको देखते ही मैने पूछा " दे आये ?"
वो बस सिर हिलाकर रह गया
"क्या बोला उसने ? मैने उत्सुकतावश पूछा
"मुझे रात दिन बस मुझे चाहती हो......" वो दूसरा गाना गाने लगा
मेरा मन कर रहा था कि मै अपना माथा पीट लूँ
"अब क्या करना है ?" मैने दाँत पीसते हुये पूछा , तो मुस्कुराते हुये जवाब आया " चलो शिवालय चलते हैं" यह हम लोगों की पसंदीदा जगहों में एक थी , शहर से दूर नदी के किनारे पक्के घाट पर बैठकर हम घंटो गपियाते थे , एकाध गंजेणियों और जुआरियों के अलावा कोई नही होता था, अमूमन लोग सिर्फ तीज त्योहारों या शादी विवाहों पर ही वहाँ आते थे , तो वहाँ बिना किसी भय के हम विचार विमर्श कर सकते थे। उत्सुकतावश मै न चाहते हुये भी उसके साथ हो लिया , सारे रास्ते उसका उपासना पुराण चलता रहा, मै मन मार कर उसकी बकवास सुनता रहा, मेरी रुचि बस उसके अगले कदम पर थी और वो ये बताने को तैयार ही नही था या शायद उसे भी यह पता नही था कि आगे क्या करना था । सारी रात मै यही सोचता रहा कि आगे क्या होगा, इतना उतावला तो शायद वो भी नही रहा होगा जितना अधीर मैं हो रहा था । अगले दिन हम विद्यालय के समय से पहले ही उपासना के विद्यालय के बाहर पहुँच गये, अभी ने मुझे जबरदस्ती छुपा दिया, उसे डर था कही मुझे देख कर वो सकुचा न जाये । हम दोनो उपासना की प्रतीक्षा कर रहे थे, वो आयी तो पर बिना कुछ बोले अभी के हाथ में उधेड़ा हुआ कैसेट थमा कर अंदर चली गयी , अभी की स्थिति काटो तो खून नही वाली थी और मै ये नही समझ पा रहा था कि मुझे खुश होना चाहिए या दुखी ।
अभी की रोनी सूरत देख कर मुझे उस पर तरस आ रहा था, कैसा भी हो पर वो मेरा मित्र था ? मैने उसका मन रखने के लिए कहा " हो सकता हैं वो सुन न पायी हो यार, रील पहले ही फँस गयी हो , तू ऐसी शक्ले क्यों बना रहा हैं ? " बहुत देर समझाने के बाद वो सामान्य हुआ , फिर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अब कुछ उल्टा सीधा करने के बजाय वो उससे सीधे सीधे बात करेगा । टेली फोन दिग्दर्शिका से उसका टेलीफोन नंबर निकालना कोई बड़ी बात नही थी उसका नंबर हस्तगत करने बाद जो दूसरा जरुरी काम था वह था एक सुरक्षित स्थान की खोज जहाँ से उसे फोन किया जा सके , इसके लिए हमने अपने एक परिचित के फोन बूथ का चयन किया ।
योजना अनुरुप अभी ने उपासना को फोन करना था, परंतु इस योजना का क्रियान्वित करना बहुत ही दुष्कर कार्य था जिसमे दो बाधाये मुख्य थी पहली तो उसके द्वारा टेली फोन उठाने की दूसरी अपनी बात ठीक से कह पाने की ।
मै अभी को बारंबार प्रोत्साहित कर रहा था ताकि वो अपनी बात बिना डरे उसके समक्ष रख सके, फोन करने के समय भी मैं टेलीफोन बूथ के बाहर खड़ा उसका साहस बढ़ाने का प्रयास करता रहा , हाँलाकि अंदर क्या बाते हो रही ये तो मुझे नही सुनायी दे रहा था, पर अभी के चेहरे के भावों से स्पष्ट हो रहा था कि उत्तर उसके आशा के अनुरुप नही मिल रहे थे , करीब १५ मिनट के वार्तालाप के बाद वह टेली फोन बूथ से बाहर आया, मुझे याद हैं उसका चेहरा काला पड़ गया था , कुछ देर पहले तक मेरा जो मित्र मुसकुरा रहा था उसकी वो नैसर्गिक मुस्कान उसके चेहरे से नदारद थी , वस्तु स्थिति की गंभीरता को भाँपते हुये मैने बिना कुछ पूछे उसे मोटर साइकल पर बैठाया और हम शिवाला की तरफ रवाना हो गये , पूरे रास्ते वो बिल्कुल शांत बैठा रहा उसकी खामोशी मुझे कचोटती रही ।
शिवाला पहुँच कर मैने आखिर कार हिम्मत बटोर कर उससे पूछा " क्या हुआ यार ? ऐसे मुँह क्यों बना रखा हैं ? क्या कहा उसने ? " और अपने हाथों से उसका कंधा थपथपा दिया
अभी, जो अभी तक बहुत हिम्मत से अपने आप को ज़ज्ब किये हुये था, मेरी सहानुभूति पाकर फूट पड़ा, उसकी आँखो से अश्रु धारायें बह रही थी, भर्रायी हुयी आवाज में उसने कहा , वो कह रही थी कि " मै आधुनिक समाज के अनुरुप नही हूँ, मै बहुत सीधा और सरल हूँ अन्यथा कैसेट देखकर ही मुझे समझ आ जाना चाहिये था उसका जवाब ।"
"सरल होना तो अच्छा है ना यार " मैने उसकी बात बीच में ही काट दी
"मुझे उसके मना करने का दुःख नही है , राज !" ( अभी मुझे इसी नाम से बुलाया करता था ) उसने कहा " वो कह रही थी कि मेरा स्तर उसके स्तर का नही है ।" "मुझे दुःख इस बात का है , उसने मेरे पारिवारिक स्तर पर टिप्पणी की ।" इतना कह कर वो सिसक सिसक कर रोने लगा , मेरा क्रोध मेरे नियंत्रण के बाहर हो रहा था, उपासना यदि मेरे सामने होती तो पता नही मै क्या कर गुजरता । मेरा मित्र मेरे सामने रो रहा था, मै लाचार खड़ा केवल उसे ढा़ढ़स बंधा रहा था, प्रतिशोध की भावना से मेरा रोम रोम सुलग उठा , अभी की आँख से गिरते आँसू मेरी प्रतिहिंसा की आग में घी का काम कर रहे थे, मेरे मस्तिष्क में विचारों के अंधड़ चल रहे थे ।
"आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत्" इस ध्येय वाक्य से मुझे बस इतना समझ आ रहा था कि उपासना को वही घाव देना है जो उसने मेरे मित्र को दिया था, मेरा मस्तिष्क योजना बनाने में लगा हुआ था । सहसा मेरे मन में विचार आया, क्यों न मै उपासना को आकर्षित करुँ और अभी के सम्मुख उसका चरित्र उजागर कर दूँ । योजना अच्छी लग रही थी अतः मैने अभी से इस विषय में चर्चा प्रारंभ की, क्रोधित और चोटिल होने के उपरांत भी पता नही क्यों उसे अब भी उपासना पर बहुत भरोसा था । अपनी योजना को मूर्त रुप देने के लिये मुझे अभी को शर्त लगाने के लिए आमंत्रित कर
ना पड़ा, तब जाकर वह इस बात के लिए तैयार हुआ था कि मै उपासना को अपने प्रेम जाल में फँसाऊ और यदि मैं ऐसा न कर सका तो मुझे उसे रात्रिभोज देना होगा लेकिन यह काम मुझे मात्र ६ महीनों में करना होगा , मै उसकी बात मान गया ।
समय आ गया था कि अब मै अपने धनबल और आकर्षण रुपी दोनो अचूक हथियारों का प्रयोग उपासना पर करुँ । संयोग से एक दिन वह स्वयं ही मेरी वीडिओ संग्रहालय पर आ गयी, उसे "नदिया के पार" फिल्म की कैसेट चाहिये थी, मैने अपने मातहतों से तत्परता से कैसेट खोजने को कहकर, बगल की दुकान से उसके लिये शीतल पेय मँगवा दिया, कैसेट मिलने तक हम इधर ऊधर की बाते करते रहे । मेरे कहने पर , बिना किसी सुरक्षा शुल्क लिये, लड़के ने कैसेट उसको दे दी , इस घटना से वो बहुत प्रभावित नजर आ रही थी । अब कभी कैसेट, कभी काँफी के बहाने हम प्रायः मिलने लगे थे, हर बार मै उसे कोई न कोई उपहार अवश्य देता था। उपासना पर मेरा प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था, संचार क्रांति आ जाने से हम एक दूसरे से कभी भी वार्तालाप करने के लिये स्वतंत्र हो गये थे । दूसरी तरफ एक अच्छे मित्र की तरह मै अभी को सारी जानकारियाँ भी दे दिया करता था ताकि उसको यह न लगे कि मै उसे धोखा दे रहा हूँ । उपासना के हृदय में मेरा प्रेम शनै शनै अंकुरित हो कर एक विशाल वट वृक्ष में परिवर्तित हो गया था । वह दिन भी आ ही गया जब उपासना मुझसे प्रेम का इजहार करना चाहती थी, मैने अभी को जब ये बात बतायी तो सहसा उसे विश्वास ही नही हुआ अंत्तोगत्वा वह इस बात पर राजी हुआ कि जब वह अपने कानों से सुन लेगा तभी मानेगा । शाम का समय था जब शिवाला पर बैठकर मैने उपासना को फोन मिलाया और अपना फोन ध्वनि विस्तारक माध्यम पर डाल दिया , जिससे अभी हमारी बात सुन सके ।
उपासना ने फोन उठाया और उसकी अभिवादन स्वर को सुनकर अभी का चेहरा स्याह पड़ गया , मैने उपासना से तीन चमत्कारिक शब्द कहने को कहा तो उसने अविलंब मुझे अपने प्रेम की स्वीकारोक्ति कर दी, अभी का चेहरा मुरझाता चला जा रहा था, परंतु मैने भी अभी को जलाने की सोच रखी थी क्योंकि कभी इसी लड़की के लिये उसने मुझे किनारे कर दिया था, आज मेरी बारी थी अतः मैने उपासना से फोन पर ही चुम्बन की माँग कर दी , वह तो जैसे इसी का इंतजार कर रही थी, दूसरी तरफ से बेतहाशा चुम्बन की बारिश प्रारंभ हो गयी, मेरी रुचि चुम्बन से ज्यादा अभी की प्रतिक्रिया पर थी, प्रत्येक स्वर के साथ उसका मुख निस्तेज होता जा रहा था, मैने काम का बहाना बनाकर संपर्क विच्छेद किया , मै अभी को ज्यादा प्रताड़ित नही करना चाहता था । अभी हमारी बाते सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था, उसे समझ नही आ रहा था कि क्या कहे , कमोबेश यही स्थिति मेरी भी थी , हम दोनो शिवाला घाट पर चुपचाप बैठे सूर्यास्त का इंतजार करते रहे कि कब अंधेरा हो और कब हम एक दूसरे से दूर जा पाये । चलते चलते अभी ने बस इतना कहा " उसके साथ कुछ गलत मत करना, वो बहुत अच्छी लड़की हैं "
मेरा रोम रोम यह सोच कर सुलग उठा कि ये गधा अब भी बस उसके बारे में सोच रहा और क्या इसे मुझ पर भरोसा नही है या क्या ये मुझे अच्छा लड़का नही समझता , परंतु मैने कोई प्रतिक्रिया नही दी, मै अभी को जलाने के अपने आनंद को नष्ट नही करना चाहता था ।
मेरी और उपासना की बाते फोन पर बदस्तूर चलती रही, अब तो उसका छोटा भाई भी मुझे जानने लगा था जिसे लेकर वो अक्सर मुझसे मिलने रेस्टोरेंट मे आती थी । उस दिन उपासना के माता पिता अपने पैतृक गाँव जाने वाले थे , उपासना ने मुझे फोन पर ऐसा बताया व देर शाम अपने घर पर आमंत्रित किया , उस दिन घर पर बस वो और उसका छोटा भाई रहने वाला था जो ८-९ बजे तक सो जाता था, योजना के अनुसार वह घर का मुख्य दरवाजा खुला छोड़ देने वाली थी , जिससे मैं आसानी से घर के अंदर आ सकूँ । मैने सारी वस्तु स्थिति से अभिमन्यु को अवगत करा दिया, साथ ही साथ यह भी कहा कि वो मेरे फोन करने पर ही अंदर आये ।
रात्रि के नौ बज रहे थे, ठण्ड की शुरुआत हो चुकी थी अतः कोहरा भी पड़ रहा था, मै और अभी उपासना के घर की तरफ बढ़े चले जा रहे थे । घर से थोड़ी दूरी पर मैने अभी को मोटर साइकल बंद करने को कहा , यहाँ से मै पैदल जाने वाला था तथा उसे मेरे फोन की प्रतीक्षा करनी थी । चुपचाप टहलते हुये मै उपासना के दरवाजे पर पहुँच गया , योजना के अनुसार दरवाजा खुला हुआ था अतः मुझे प्रवेश में कोई असुविधा नही हुयी , मैने दरवाजे को यथास्थिति कर के अभी के लिए खुला छोड़ दिया। घर का मुख्य दरवाजा दोनो तरफ से खुलने की सुविधा से युक्त था , सधे हुये हाथों से मैने उसे खोला ताकि कोई आवाज न हो , पूरी सावधानी के साथ मै घर मे दाखिल हो गया । टेली विजन की आवाज से स्पष्ट था कि उपासना जाग रही थी मै सीधे उस आवाज की दिशा में चल पड़ा, श्वेत रात्रि परिधान में वो किसी परी से कम नही लग रही थी, मैने दबे पाँव उसके पीछे जाकर उसकी आँखे अपनी हथेलियों से बंद कर दी ।
मेरी हथेलियों को अपनी हथेलियों से सहलाते उलाहना देते हुये वो बोली " राज ! मै कितनी देर से तुम्हारा इंतजार कर रही थी "
मैने उसकी आँखो को स्वतंत्र कर दिया और उसके छोटे भाई के बारे में पूछने पर पता चला वो रात्रि भोजन करके सो गया है । मै कुछ सोच भी पाता इसके पहले वो कब अपने स्थान से उठकर मेरे पास आ गयी और मुझे आलिंगन में बाँध लिया मुझे पता ही नही चला । मिनटो हम इसी तरह आलिंगनबंध खड़े रहे, उसके स्पर्श की कोमलता को देने के लिये उपमेय नही थे, मेरी सारी काया कंटकित हो उठी, परंतु इसके पहले मै इसमे आकंठ डूब जाता , मेरे अवचेतन मस्तिष्क में अभिमन्यु का विचार बारंबार आने लगा। घर पर बताने का बहाना करके मैने अभी को फोन कर दिया ।
"तुम बिल्कुल भी रोमांचक नही हो, बुद्धु" उलाहना देने वाले स्वर में उसने कहा
मै चुपचाप जाकर सोफे पर बैठ टेलीविजन के चैनल बदलने लगा , वो आकर मेरी गोद मे सर रखकर सोफे पर लेट गयी । कभी वो मेरे हथेलियों को उलट पलट कर देखती जैसे उन्हें पढ़ने की कोशिश कर रही हो तो कभी मेरे करीने से सवाँरे हुये बालों को बिगाड़ती। मै चुपचाप अपने पर नियंत्रण की चेष्टा करता हुआ अभिमन्यु के आने की प्रतीक्षा करता रहा ।
अभिमन्यु दरवाजे से अंदर आ गया था, उपासना ने उसकी तरफ देखा फिर एक प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी तरफ देखा, मै बिना कुछ कहे अपने स्थान पर खड़ा हुआ और अभिमन्यु की तरफ चल पड़ा , जानबूझ कर मैने अभिमन्यु से उसके सामने हाथ मिलाया, हम गले लगे और बिना कुछ उपासना से बोले चुपचाप घर से बाहर निकल आये । उसके बाद मेरी उपासना से कभी बात या मुलाकात नही हुयी , बस अभी से पता चला कि एक दिन वह उससे फोन पर क्षमा याचना कर रही थी, मेरा प्रतिशोध पूरा हो चुका था ।

